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कोई लौटा दे मुझे

प्‍लेन टेक ऑफ के लिए तैयार था। बढ़ती धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश में मैंने अपनी बगल की सीट पर बैठी बारह साल की बेटी ईशा को देखा।

By Edited By: Published: Thu, 29 Dec 2016 02:37 PM (IST)Updated: Thu, 29 Dec 2016 02:37 PM (IST)
कोई लौटा दे मुझे
कहानी के बारे में : बचपन की दोस्ती में मन बडा भोला होता है, वह नफा-नुकसान नहीं, प्रेम जानता है और इसकी खातिर सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहता है। इसी दोस्ती पर लिखी गई है यह कहानी। लेखिका के बारे में : डॉ. छवि निगम के शोध पत्र राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी-अंग्रेजी में लेख, कहानियां व कविताएं प्रकाशित, कई पुरस्कार प्राप्त। संप्रति : लखनऊ में रहकर अध्यापन और लेखन। प्लेन टेक ऑफ के लिए तैयार था। बढती धडकनों पर काबू पाने की कोशिश में मैंने अपनी बगल की सीट पर बैठी बारह साल की बेटी ईशा को देखा। नजरें मिलने पर वो मुस्कुरा पडी। मुझसे अकसर लखनऊ के किस्से-कहानियां सुन-सुन कर वहां जाने को ईशा इतनी एक्साइटेड हो गई थी कि सीट में भी कसमसा रही थी, खासतौर से जूबी खाला से मिलने के लिए। ये बात सोचने में ही कितनी अजीब थी कि लखनऊ, जहां मेरे बचपन का खूबसूरत समय बीता, जहां मैंने ग्रेजुएशन किया, वहां अब 20 साल बाद दोबारा जा रही हूं मैं। सच तो यह है कि इस दौरान मेरी हिम्मत ही नहीं पडी और आज भी अगर ईशा साथ न होती तो शायद मैं जाती ही नहीं । अचानक मेरा ध्यान गया। प्लेन टेक ऑफ कर रहा था। मैंने ईशा का हाथ कस कर पकड लिया। उसने हैरानी से मुझे देखा, 'व्हॉट हैपंड मम्मा?' 'नथिंग बेटा...' मैंने उसका गाल थपथपा दिया। मैं सचमुच थोडा सहमी हुई थी। कहीं मेरा वो डर, आशंकाएं सच न हो जाएं जिन्हें अकसर सोचते हुए मैं रातों को करवट बदलती रहती थी। वे डर, जो मुझे अपनी सबसे प्यारी सहेली जूबी को लेकर थे। शायद इस बार जूबी से मुलाकात हो ही जाए। शायद मैं देख पाऊं कि वो ठीक है- खुश है लेकिन ऐसा न हुआ तो? मैंने एक गहरी सांस लेकर खिडकी से बाहर देखा। नीचे सब कुछ छोटा दिख रहा था। काश हमारी प्रॉब्लम्स भी ऐसे ही छोटी हो जातीं पर यहां तो मैंने जूबी को लेकर खुद पर जो गिल्ट ओढ रखा था, वो दिन-प्रतिदिन भारी हो रहा था। जरूरी था कि उसे तलाश कर, उससे मिल कर बीस वर्षों का यह बोझ उतारा जाए। काश जूबी ने कभी मेरे खतों का जवाब दिया होता। मेरे नंबर पर बात की होती...तो शायद मुझे राहत मिलती। जान पाती तो सुकून से रह पाती। पर कहीं मैं...उसकी बर्बादी का कारण हुई तो? फिर से एक सिहरन बदन में दौड गई। पता नहीं, वह मुझसे मिलेगी या नहीं। मेरे चश्मे का कांच कुछ धुंधला गया था। उसे पोंछ ही रही थी कि ईशा की आवाज आई, 'मम्मा! कितनी अच्छी बात है न कि आप अपने कॉलेज के रीयूनियन में जा रही हो। इमैजिन, इतने साल बाद आप अपनी फ्रेंड्स से मिलेंगी।' मैं बरबस मुस्कुरा पडी। जबसे टिकट्स आए थे, ईशा कमोबेश सौ बार यह बात दोहरा चुकी थी। बचपन होता ही इतना प्यारा है। ...बचपन तो मेरा भी प्यारा था। सीट पर सिर टिका कर मैंने आंखें मूंद लीं। मेरी आंखों के आगे जूबी की छवि कौंध गई...जब वह और मैं ईशा की उम्र के ही थे। भोले व दुनियादारी से दूर...। '..मिनी...,' फुसफुसाहट सुनकर मैंने मेज पर खुली इंग्लिश ग्रामर की किताब से नजर उठा कर कमरे की खिडकी की ओर देखा। एक हाथ चौखट से टिकाए, घुटनों के बल किसी बंदर की तरह खुद को बैलेंस किए हुए जूबी मुस्कुरा रही थी। हलकी छींट का पिंक सलवार-कुर्ता पहने, लंबी चोटियों में काले रिबन बांधे वह बेहद प्यारी दिखती थी। 'आ न... खेलते हैं,' उसने अपनी मुठ्ठी खोल दी। उसमें चमकती गिट्टकें देख मेरी आंखें चमक उठीं। झट दरवाजे की ओर मुडकर देखा...। मां नहीं दिख रही थीं। पट से खिडकी का पूरा पल्ला खोला और हम कुलांचे भरते छत पर जा पहुंचे। हांफते हुए दोनों अपनी तेज चलती सांसों को सामान्य करने की कोशिश करते हुए सोचने लगे कि कौन सा खेल खेला जाए। 'गिट्टक खेलें...?' कहकर वो उकडूं बैठ गई। उसने फटाफट एक हथेली मोड कर चूल्हा सा बना लिया और दूसरे हाथ से गिट्टक हवा में उछालने लगी। मैंने अपनी ढीली हो आई पोनीटेल को दोबारा रबरबैंड से कसते हुए सोचा, इस खेल में तो जूबी ही जीतेगी। एक तो इसकी उंगलियां ज्यादा लंबी हैं, दूसरे अपनी अम्मा के साथ ये जिस तेजी से घर के काम निपटाती है, उसी तेजी से सटासट गिट्टियां भी सरका देगी। जीतने के लिए मुझे दूसरा खेल खेलना होगा। हम पुराने लखनऊ के चौक वाले इलाके में रहते थे। उसका बडा सा हवेलीनुमा मकान था, जिसमें लंबा-चौडा परिवार रहता था। इतना बडा कि मैं कभी सबको पहचान नहीं पाई। उसके अब्बा बहुत अच्छे लगते थे। बहुत मीठी, हिंदी-उर्दू मिक्स लखनवी बोलते थे। मेरे पापा की पोस्टिंग फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में होने की वजह से यहां उन्होंने किराये का मकान लिया था। धीरे-धीरे लखनऊ इस तरह हमें अपना बनाता गया कि बाद में भले ही पापा की पोस्टिंग आसपास के शहरों में होती रही हो, हमारा स्थायी ठिकाना लखनऊ ही बना रहा। उस गली में हमारे घर के दरवाजे भले ही थोडी दूर थे लेकिन छतें और दिल मिले हुए थे। दिन में दो बार कट्टी करते तो चार बार मिलनी। होली पर क्रोशिया के थालपोश से ढका गुझिया भरा थाल अपने हाथों में साधे हुए मैं जूबी के घर जाती तो ईद और बकरीद पर उसके यहां से सेवर्ईं भरी देगची हमारे घर भिजवाई जाती। दीवाली के मेरे पटाखों में से उसका हिस्सा तय होता तो उसकी ईदी में मेरा। ये सब बदस्तूर तब तक चलता रहा, जब तक मैंने बीए नहीं कर लिया। इसके बाद हमें लखनऊ छोडऩा पडा। शायद हम तब भी न जाते, अगर वो घटना न होती, जिसने मेरी और जूबी की जिंदगी बदल दी थी। इसकी शुरुआत उसी दिन से हुई थी...जिस दिन छत पर खडे हम दोनों सोच रहे थे कि आज क्या खेलें। उस दिन जूबी के चचाजान की छत पर मैंने सोच लिया था कि गिट्टक उछालने वाला खेल हम नहीं खेलेंगे। मैं फ्रॉक की प्लीट्स सही कर रही थी और आंखों में सवाल लिए जूबी मेरी ओर देख रही थी। 'हम इक्खट दुक्खट खेलेंगे...,' मैंने घोषणा की। एक तो गिट्टक सही खाने में फेेंकने में मुझे महारत हासिल थी और दूसरे, जब जूबी की बारी आती तो कभी चोटियां तो कभी दुपट्टा आडे आ जाता। एक टांग पर कूदकर आगे बढते वक्त सलवार का पायंचा उलझ जाता। मतलब मेरी जीत पक्की। जूबी हां में सिर हिला किसी कोने में पडा चूने का टुकडा ढूंढ भी लाई। लाइनें खींच फटाफट हमारा खेल शुरू हो गया। ये खेल हमारी जिंदगी के नए खेल की शुरुआत करने वाला था। दूर वाली छत के कोने पर हमारा इक्खट-दुक्खट वाला खेल जारी था। मैं दो खानों पर उस चूने के टुकडे से कट्टम-कुट्टा कर खेल की भाषा में अपने घर बसा चुकी थी। बेचारी जूबी का खाता अभी खुला तक नहीं था। तभी अचानक जूबी की गिट्टक सही निशाने पर बैठी और वो ताली बजाकर कूदने लगी, 'लो, मेरा भी घर बस गया...।' 'घर तो बसना अभी बाकी है...,' सीढिय़ों की तरफ से किसी आदमी की आवाज सुनाई दी तो हम चौंक गए। कोई दीवार की छाया में छिपा इतनी देर से हमें देख रहा है, हमें पता ही नहीं चला। पठान सूट पहने हुए दाढी-मूंछों वाला 30-35 साल का एक शख्स हमारी ओर बढकर बोला, 'हमें नहीं खिलाइएगा साथ?' हम ताबडतोड सिर पर पैर रखकर सीढिय़ों से नीचे भागे। नीचे आने पर पता चला कि वो नदीम भाई थे, जूबी के चचाजान के बेटे। विदेश से दौलत कमा कर वापस आए थे। पता नहीं क्यों, वह हमें अच्छे नहीं लगे। हालांकि तब नहीं समझ पाए कि उनके गिफ्ट्स से लदे-फदे जूबी के परिवार वाले जिस शख्स की इतनी तारीफ कर रहे थे, वह हमें इतना बुरा क्यों लगा। शायद हमारी भोली आंखें उस बदनीयत दीमक को पहचान पा रही थीं, जो उस परिवार की नींव को खोखला करते हुए उसकेअब्बू के प्राण लेने वाला था। ...लखनऊ पहुंचने के अनाउंसमेंट ने मेरा ध्यान तोडा। मैंने बगल में ऊंघती ईशा को धीरे से हिलाकर जगाया और हमने अपनी सीट बेल्ट बांध ली। हम लैंड करने वाले थे। 'मम्मा, मुझे पूरा लखनऊ देखना है...प्लीज। कल तो आप अपने कॉलेज जाओगी और शाम को हमारी पुणे की फ्लाइट है। होटल जाने से पहले हम खूब घूमेंगे न?' 'ओके', मैंने ड्राइवर को इंस्ट्रक्शंस दे दिए। टैक्सी में बैठते हुए हमारे चेहरे पर मुस्कान थी। इमारतें, बाजार...इन बीस सालों में सब कुछ कितना बदल गया था। ईशा मुस्कुराती...चहकती रही। बाहर ही बाहर से बेली गारद, इमामबाडा, भूलभुलैया, रूमी गेट देखना...उसके लिए हिस्ट्री बुक का चैप्टर जीवित हो जाने जैसा था। मेरी सांस रुकती जा रही थी। टैक्सी चौक की ओर बढ रही थी यानी जूबी के घर की ओर। जैसे-जैसे हम पुराने लखनऊ की ओर जा रहे थे, दिल की धडकनें तेज होती जा रही थी। यहां कुछ नहीं बदला था। अवध के नवाबों की शाम की रौनक पूरे शबाब पर थी। इत्र की हलकी सी खुशबू और लजीज पकवानों की महक हवा में फैली हुई थी। 'बेटा, मैं पांच मिनट में आई,' ईशा को रबडीदार लस्सी का कुल्हड थमा टैक्सी से उतर कर मैं गली के अंदर बढी। यह संकरी सी जगह मुझे पहचानती थी। मैं लगभग दौडऩे लगी थी और फिर मानो जिंदगी थम सी गई। मैं जूबी के घर के सामने खडी थी। हलके हरे रंग का भारीभरकम दरवाजा, ऊपर काली लोहे की जंजीर वाली सांकल लटकी थी। मैंने एक गहरी सांस ली और एक सीढी चढकर सांकल खडख़डा दी। एक अजनबी चेहरे ने दरवाजे से झांका। 'जूबी से मिलना था', मैंने संकोच से कहा। 'अंदर आ जाइए,' कहकर उसने भीतर से आवाज लगाई, 'अम्मी..., कोई मोहतरमा हैं।' दरवाजे से अंदर गुजरते हुए मैं कांप रही थी। आखिरी बार मैं इसी जगह से जूबी का हाथ पकड चुपचाप बाहर निकल रही थी कि तभी पीछे से नदीम ने चील की तरह झपट्टा मार जूबी का दूसरा हाथ जकड लिया था। 'उसे छोड दीजिए नदीम भाई', मैं चिल्लाई थी, 'आप ऐसे उससे निकाह नहीं कर सकते।' जवाब में जूबी की चीख सुनाई दी थी। कितना डरावना दृश्य था। नदीम ने उसका हाथ इतना कस कर उमेठ रखा था कि चूडिय़ों के कई टुकडे उसकी कलाई में घुस चुके थे। दूसरे हाथ से दु:शासन की तरह उसके बाल खींचे हुए थे। किसी दैत्य की तरह दांत पीसते हुए वो बोला, 'इसकी औकात नहीं है मना करने की। इसके बाप का सब कुछ हडप चुका हूं मैं। तुम जाओ यहां से वरना...।' जूबी को अंदर बंद कर उसने मुझे बाहर धकेल दिया पर मैं आंगन में दौड गई। सचमुच निकाह की तैयारी कर ली गई थी। कुछ ही लोग थे। नदीम के साथियों से घिरे मुंह लटकाए अब्बा एक कुर्सी पर बैठे थे। हाथ धोकर पीछे पड गया था ये आदमी। पिछले आठ-नौ सालों के दौरान.. इसने बेचारी जूबी का जीना हराम कर रखा था। हमने कितना बताया पर उसके दबदबे के आगे उसके अपनों ने भी विश्वास नहीं किया था। जूबी की खातिर मैं अपना डर भूल कर बीच आंगन बढ गई थी। आंगन में खडे मेरे कानों में बीस साल पहले मेरे खुद के कहे शब्द कानों में गूंजने लगे, 'अब्बा, प्लीज इस घटिया आदमी से जूबी का निकाह मत कीजिए। ये आपको और अपनी बीबी को धोखा दे रहा है। जूबी को धमकाते मैंने खुद देखा है।' इसके आगे बस अंधेरा छा गया। दो दिन बाद होश आया तो तेज बुखार से तप रही थी। हार्टअटैक से अब्बा का इंतकाल हो चुका था और आशंकित पापा ने इलाहाबाद लौटने का फैसला कर लिया था। चलने से पहले मैंने बहुत खटखटाया मगर जूबी के घर के दरवाजे नहीं खुले थे। तभी अंदर से आहट सुन मैं वर्तमान में आई। ये जूबी तो नहीं थी। 'जी, कुछ साल पहले हमने ये मकान खरीद लिया था। उनके बारे में तो कोई जानकारी नहीं..।' अपने आंसू किसी तरह रोके मैं लौट आई। ईशा को थोडा और घुमा-फिरा कर होटल में आई लेकिन दिल में तो जूबी को लेकर तूफान उठा हुआ था। सुबह तैयार होकर कॉलेज पहुंची तो हमारे बैच की लगभग सभी लडकियां...न-न दरअसल महिलाएं वहां मौजूद थीं मगर जिसे मेरी निगाह ढूंढ रही थी, जिसके लिए हजारों मील तय कर आई थी...वो ही न जाने कहां थी। डायस पर कॉलेज की कोई प्रोफेसर खूबसूरती से हमारा नाम और परिचय पढ रही थीं, जो फॉर्म में लिखकर हमने भेज दिया था। तभी कुछ सुनकर मेरे खयालों में धमाका सा हुआ। 'और मैं डॉ. जूबी अहमद...,' मैंने धुंधलाई आंंखों से उस स्मार्ट लेडी की ओर देखा। क्या ये वाकई जूबी है? मंत्रमुग्ध सी मैं उसकी तरफ दौड पडी। उसने भी अपना हाथ मेरी ओर बढा दिया और फिर बोली, 'मेरा परिचय तो सिर्फ मेरी ये सखी है। मुझे तो अपनी जिंदगी के फैसले लेने भी नहीं आते थे लेकिन जिस दिन इसने मेरी खातिर मुझे दी जाने वाली चोट अपने माथे पर झेली, मैंने भी काजी के सामने जाकर निकाह के लिए मना कर दिया।' हमने एक-दूसरे का हाथ कस कर पकड लिया और एक साथ ही बोल पडे, 'पहले ये बता, तू ठीक तो है न?' हम मुस्कुरा रहे थे और आंखें भी पोंछ रहे थे। 'मिनी सुन। अब्बा ने तुझे शुक्रिया कह कर दुआएं दी थीं। वो तो अम्मी जबरदस्ती मुझे लेकर वहां से चली आईं...।' मैंने उसे टोका, 'जरा रुक। पहले ईशा को तो बता दूं कि उसकी जूबी खाला मिल गई हैं और मुझे मेरा सुकून...।' शांति निकेतन विद्यालय कोलकाता से आरंभिक शिक्षा, देश-विदेश में एकल व समूह चित्रकला प्रदर्शनियां, संथाल फोक पपेट थिएटर पर डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माण, एक लघु अंग्रेजी फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और स्क्रिप्टिंग, साहित्य-कला व संस्कृति के आदान-प्रदान के लिए फ्रांस और बांग्लादेश की यात्रा।

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