Move to Jagran APP

अनोखा रिश्ता

ग्रामीण से दिखने वाले दो भाइयों ने बाई को डूबने से बचाया था और बदले में बाई ने उन्हें भाई बना लिया। तब से हर वर्ष कुछ दिन वे बाई के घर बिताते। घर के कुछ सदस्यों को उनका आना रास न आया। बहुओं के बीच होती बातचीत कानों में

By Edited By: Published: Fri, 27 Nov 2015 02:40 PM (IST)Updated: Fri, 27 Nov 2015 02:40 PM (IST)
अनोखा रिश्ता

ग्रामीण से दिखने वाले दो भाइयों ने बाई को डूबने से बचाया था और बदले में बाई ने उन्हें भाई बना लिया। तब से हर वर्ष कुछ दिन वे बाई के घर बिताते। घर के कुछ सदस्यों को उनका आना रास न आया। बहुओं के बीच होती बातचीत कानों में पडी तो भाइयों का आना थम गया, मगर फिर उन्होंने जो किया, वह तो सगा भाई भी न कर पाता।

loksabha election banner

मंझली बहू के चेहरे पर हवाइयां उड रही थीं। अमूमन हंसती-मुस्कुराती बहूरानी ऐसी गुमसुम और उदास थी कि पूछो मत। चौके के बाहर नाली की धड से लगे गुलाब के पौधे को बूढा नौकर मन्नू छांट रहा था। कैंची की खच्च-खच्च की आवाज्ा कानों में पडी तो उसका मुंह खुला, 'मन्नू, पूरा पेड काट देगा क्या? पता है, पेडों में भी जान होती है। उन्हें भी दर्द होता है। उसके हाथ रुक से गए। 'बहूरानी, बेतरतीब फैल रहा है। सोच रहा हूं कि इसकी छंटनी कर दूं। नई-नई शाखाएं निकलेंगी, नई कोंपले आएंगी तो ढेर सारे फूल खिलेंगे।

'अच्छा.. अभी छोड। बाई पूजा में बैठने वाली हैं। एक मु_ी फूल पूजा घर में ले जा।

'बहूरानी आप नहीं करेंगी पूजा?

'आज मन नहीं कर रहा।

हालांकि बहूरानी का स्वभाव ऐसा था कि कभी-कभी मन्नू थोडी-बहुत हंसी-ठिठोली कर लेता था। मन में कुछ आया तो पूछ भी लेता था, पर बाई तो काम की बात करती थीं। बहूरानी को भी हिदायत दे रखी थी कि इन लोगों को ज्य़ादा मुंह मत लगाना। मन्नू ने फिर पूछा, 'बहूरानी, कोई ऐसी-वैसी बात हो तो बता दो। कुछ बन पडा तो कर दूंगा।

'कुछ नहीं रे! बस यूं ही। तुझे पता नहीं, अमरा-पतिया आने वाले हैं।

'बहूरानी वे तो हर साल आते हैं।

'हां, पूरे डेढ महीने के लिए आते हैं परिवार सहित। उनके आने की ख्ाबर सुनते ही मेरे हाथ-पांव फूल जाते हैं।

'मगर वे तो सीधे-सादे किसान हैं। मैंने सुना है कि पांच सौ बीघा ज्ामीन है उनके पास। 'होगी, पर इससे हमें क्या लेना-देना। उनके आने की ख्ाबर सुनते ही बडी बहूरानी मायके चली जाती हैं और फिर पूरे डेढ महीने भोगना पडता है मुझे। उनके परिवार का एक-एक सदस्य बीस-बीस रोटी से कम नहीं खाता और बाई सारा काम मुझ पर छोड देती हैं। कहती हैं, मेहमानों से क्या काम कराना।

'ये बात तो है बहूरानी। महाराजिन लगा लेनी चाहिए। कहो तो रहिमन चाची को बोल दूं?

'क्या होगा तेरे बोलने से? अगले की गांठ से पैसा टका निकले तब तो...।

'मगर अमरा-पतिया तो पूरे साल की रसद भी पहुंचा जाते हैं। पता है, पिछली दफा तीन बैलगाडिय़ां आई थीं। एक में पूरा परिवार और दो में अनाज की बोरियां लदी थीं। अनाज में दाल, चावल और गेहूं के बोरे थे। उसमें से गेहूं के दो कट्टे मुझे भी दे गए थे। दस किलो दाल और दस किलो चावल अलग से। इस बात पर बहूरानी चुप हो गई। आहट हुई तो मन्नू से बोली, 'अब तू अपना काम कर। शायद बाई आ रही हैं।

बाई धडधडाती चौके में चली गई थीं, 'बहू, गाडिय़ां आ गई हैं अमरा-पतिया की। जल्दी हाथ चला। इतनी दूर से आ रहे हैं बेचारे, भूखे-प्यासे होंगे। आते ही बच्चों को खाना दे देना। बडे एक साथ खाएंगे। उसके मन में आया कि साफ-साफ कह दे कि अकेले अब नहीं होता यह सब। एक घडी ख्ाुद भी चौके में काम करके देखें तो पता चल जाए...। पर मन की बात होठों पर आने के पहले कहीं खो जाती है। इसके उलट बडी बहू उधार बाकी नहीं रखती। तुरंत सूद समेत लौटा देती है। इसलिए बाई का उस पर ज्ाोर नहीं चलता। कहे तो अमरा-पतिया के सामने बाई को नाकों चने चबवा दे। इसलिए भी बाई उसे मायके जाने से रोक नहीं पातीं। जिस दिन अमरा-पतिया का परिवार रुख्ासत होता है, उसके दूसरे दिन सुबह-सुबह चली आती है...। अचानक उसके विचार भंग हुए। सामने मुन्ना था। हाथ में लकडी का घोडा था।

'अम्मा देखो, अमरा दादू ने क्या दिया? उसने मुन्ना की बात पर ज्य़ादा ध्यान नहीं दिया बल्कि झल्ला गई, 'जा बाहर खेल!

'अम्मा तुमने नहीं सुनी बैलों के गले की घंटी! देखो तो सही... ये काठ का घोडा! देखो इसके नीचे कितने पहिये लगे हैं?

'अच्छा जा बाहर, मुझे काम करने दे। मुन्ना ने आश्चर्य से अपनी मां की तरफ देखा और निराश होकर बाहर की तरफ चल पडा।

बाहर निकल कर उसने देखा कि आंगन में नीम के नीचे तख्त पर पडे गद्दे पर अमरा दादू मसनद के सहारे बैठे हैं और पतिया आंख बंद कर लेटे हैं। अमरा बच्चों से घिरा है। वह भी उन सबके बीच जा बैठा।

'आ इधर आ मुन्ना, तू भी सुन, उसकी बहन पुष्पा ने उसे खींच कर पास बैठा लिया।

'तुम लोग क्या सुन रही हो? उसने अपनी बहन की तरफ देखा।

'कुछ नहीं, एक बार खेत पर दादू का सामना शेर से हो गया था। दादू, दिखाओ न इसे भी निशान...? अमरा ने बनियान उतार दी तो उसके घाव की ओर इशारा करती पुष्पा बोली, 'देखो, मुन्ना दादू के सीने पर बाघ के पंजे के निशान कैसे उभरे हैं। फिर बडी-बडी आंखें फाडते हुए अमरा की तरफ होकर बोली, 'अच्छा, दादू फिर क्या हुआ...?

'फिर क्या होना था। पतिया शेर की कमर पर ल_ बजा रहा था और मैंने उसके दोनों पैर पकड रखे थे। कुछ देर तक यूं ही चलती रही उठापटक, अंत में उसे भागना पडा। मुन्ना ने उसके सीने पर बाघ के पंजों के निशान पर उंगली घुमाई। 'आप तो बडे बहादुर हो दादू! बाघ से लडऩा हंसी-खेल है क्या...?

उसी समय बाबूजी आ खडे हुए, 'बच्चों, अब दादू को आराम करने दो। तुम सब जाकर खाना खा लो। चिंटू और पप्पू को भी साथ ले जाओ। इतनी दूर से आते-आते थक गए होंगे। बाबा ने मसनद उठाई और बैठक में जाकर अमरा के पास बैठ गए।

तभी डाकिया आया, 'बाबूजी, तार है। बाबा तुरंत उठे और तार पढऩे लगे। पढते-पढते चौके की तरफ निकल गए। बंबई से काकू और काकी के आने का संदेश था उसमें। उन्होंने वहीं से बाई को आवाज्ा दी, 'गीता, कल संतोष आ रहा है। बाई ने सुुना तो छोटी बहू से बोली, 'तुम्हारा देवर संतोष आ रहा है..., मगर छोटी बहू का चेहरा भावशून्य था। वह रोटी बेल रही थी। एक क्षण को भी उसका हाथ न रुका। 'क्या तुझे ख्ाुशी नहीं हुई बहू? बाई बोलीं।

'ख्ाुशी क्यों नहीं होगी, इतने सालों बाद आ रहे हैं देवर जी। अब तक तो छोटी बहू मेमसाहब बन गई होंगी। बाई की आंखों में अजीब चमक दिखी। ऐसा लगा, काकू और काकी को साक्षात सामने देख रही हों। वापस बैठक में आईं तो बाबा उठकर जा चुके थे। न अमरा को समझ आया और न पतिया को। वे दोनों मुंह बाए कभी बाई की तरफ देख रहे थे तो कभी लिफाफे की तरफ, लेकिन बाई को उनके होने का एहसास तक न रहा। आगे बढ कर अमरा ने पूछा, 'क्या हुआ है जिज्जी?

'संतोष आ रहा है बंबई से, यह कह उन्होंने मन्नू को आवाज्ा लगाई, 'कहां गया रे।

'आया अम्मा! मन्नू दौडा-दौडा आया।

'संतोष आ रहा है बंबई से। माया वाला कमरा साफ कर दे। अच्छी तरह बिस्तर लगा दे। शाम तक पूरा कमरा ठीक कर दे।

मन्नू तुरंत दुछत्ती की ओर चल पडा। बाई जाते-जाते बोलीं, 'गुसलखाना भी देख लेना। एक तिनका भी पडा न रहे। इसी बीच बाबूजी भी आ गए थे। अमरा से बोले, 'भैया, चलिए आपको हाट बाज्ाार दिखा लाऊं। वहीं से खेत देखने चलेंगे। कल संतोष आएगा तो फुर्सत नहीं मिल सकेगी।

अमरा ने पतिया को आवाज्ा लगाई, 'छोटू, मनोहर भैया के साथ हाट तक चलना है?

'अभी आया भाई। वहां से आवाज्ा आई। अमरा बाबूजी की तरफ मुखातिब हो बोला, 'हम दोनों हर जगह साथ जाते हैं। अम्मा ने मरते समय यही कहा था कि कभी साथ न छोडऩा। बाबूजी कुछ बोले नहीं।

अगली सुबह कुछ अलग तरह की थी। बाई थकी-थकी सी लग रही थीं। शायद सुबह के इंतज्ाार में सारी रात आंखों में ही काट दी थी। उठते ही बाबू जी को जगाया, 'मनोहर, तैयार हो जाओ, संतोष को लेने चलेंगे।

'मगर बाई, रेलवे स्टेशन तो दस कदम की दूरी पर है। पैदल चल सकते हैं। चलो, मैं अमरा को उठाता हूं। वह धीरे से बोलीं, 'क्या ज्ारूरत है? सोने दे उन्हें। पता नहीं बहू को न अच्छा लगे। गांव के हैं देहाती-धुर्र! कहां ये और कहां वो बंबई वाली!

बाबू जी कुछ बोले नहीं, लेकिन उनके चेहरे से स्पष्ट हो रहा था कि यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी। फिर मोटर से काकू नीचे उतरे थे सूट-पेंट और टाई में। कितने बदल गए थे। पहले पायजामे में डिप्टी साहब के घर तक चले जाते थे, लेकिन अब एकदम बंबइया ठसक में थे। मन्नू मोटर से सामान उतार-उतार कर माया वाले कमरे में जमा रहा था। एक सूटकेस उन्होंने बैठक में रखवा लिया। वहां सभी लोग मौजूद थे। अमरा-पतिया, घूंघट में उनकी बीवियां और उनके बच्चे चिंटू और पप्पू। छोटी बहू, मुन्ना और पुष्पा। मन्नू हाथ बांधे दरवाज्ो पर आ खडा हुआ। काकी जींस और टॉप में काका के बगल में खडी थीं। काकू ने सूटकेस खोला। एक-एक कर सामान निकालने लगे, 'यह भाभी के लिए, ये भैया के लिए, बाई यह साडी तुम्हारे लिए। मुन्ना और पुष्पा के लिए खिलौनों का डिब्बा निकाला और मन्नू के लिए कुर्ता...। बाबूजी ने सवालिया नज्ारों से काकू की तरफ देखा और अमरा-पतिया की तरफ देख कर बोले, 'इनके लिए? काकू को कोई जवाब न सूझा। अमरा बोल पडा, 'इन्हें हमारे आने की ख्ाबर न होगी। काकी बोली, 'ठीक कहा। हमें मालूम ही नहीं था कि आप लोग यहां होंगे। इसके बाद कोई नहीं बोला। हालांकि सबको मालूम था मगर वक्त का तकाजा था कि चुप रहा जाए।

शाम को सारा परिवार बगीचे की तरफ निकल गया था। घर में दोनों बहुएं थीं, मंझली और काकी। पतिया को बुख्ाार था, इसलिए चादर तान कर बैठक में लेटा था। दोनों बहुओं के बीच बातचीत चल रही थी। काकी बंबई की भव्य इमारतों के बारे में मंझली बहू को बता रही थी।

बहूरानी दम साधे काकी की कहानियां सुन रही थी। उसके पास कहने को कुछ नहीं था। केवल एक पासा नदी दी, उस पर बना पुल और हनुमान जी की मढिय़ा। दिनचर्या के नाम पर सुुबह से शाम तक चौके में खटने, बच्चों और बडों की सेवा टहल के अलावा और कुछ नहीं था। लेकिन काकी के पास बंबई थी। मॉल्स, सडकों पर दौडती-भागती गाडिय़ां, लोकल ट्रेन, पब और फुटपाथ पर डेरा जमाए गुंडे-मवाली। जुहू बीच, चौपाटी और लहराता समुद्र। एकाएक काकी ने विषय बदला, 'इस गांव में तो दस-पंद्रह दिन से ज्य़ादा नहीं ठहर सकती मैं।

'क्यों? बहूरानी ने सवाल किया। उसने कंधे उचकाए, 'क्या है यहां? डल लाइफ है। यहां से वहां तक बैलगाडिय़ां और साइकिलें ही दिखाई देती हैं। अच्छा ये बताओ नीम के नीचे किसकी बैलगाडिय़ां खडी हैं? बैलगाडी सुन कर अचानक पतिया के कान खडे हो गए। बहूरानी बोली, 'अमरा-पतिया की। बाई के मुंह बोले भाई हैं।

'लेकिन उनके दो भाई तो कहीं और हैं। शहर में रहते हैं। ये तो गंवार जैसे दिखते हैं।

गंवार शब्द कान में पडा तो पतिया ने करवट बदली, लेकिन वहां किसी का ध्यान नहीं था। वह बोली, 'रस्ते चलते को कोई कैसे भाई बना सकता है?

'इन्होंने ही बाई की जान बचाई है, तब से...! बाई और बाबा गंगा स्नान के लिए गए थे इलाहाबाद। वहां अचानक बाई का पैर फिसला और वह गंगाजी में बहने लगीं। तभी अमरा-पतिया ने उन्हें डूबते देखा तो दोनों उफनती गंगा नदी में कूद पडे और बाई को सलामत बाहर निकाल लाए। बस उसी दिन से बाई ने इन्हें अपना भाई मान लिया।

'स्ट्रेंज! काकी बोलीं, 'पहली बार आए हैं?

'हर साल आते हैं गर्मियों में।

'कब तक रहेंगे?

'पूरे डेढ महीने।

'डेढ महीने...! माई गॉड!

'ये जो बैलगाडिय़ां बंधी हैं, उनसे साल भर की रसद लाते हैं बहन को भेंट करने। बडे आसामी हैं।

'ओह माई गॉड! तुम इतने लोगों के लिए खाना पका लेती हो?

'हां, तुम भी तो हाथ बंटाओगी!

'ना बाबा..., मेरे यहां तो कुक है। मुझे रोटी बनाना आता ही नहीं। इन लोगों की तो ख्ाुराक भी अच्छी-ख्ाासी होगी।

'हां, खेत में काम करने वाले हैं। एक-एक आदमी बीस-बीस रोटियां खा लेता है।

'तब तो मुझे जल्दी ही वापस लौटना पडेगा। वैसे तो महीने भर के लिए आए हैं पर...। संतोष से बात करनी पडेगी।

पतिया को सामने देख दोनों सावधान हो गईं। एक-दूसरे को आंखों-आंखों में देखा और तुरंत वहां से उठकर चल दीं।

पतिया ने वह रात किसी तरह काटी। काकी की बातें उसे चुभ गईं। अमरा को बताना था, मगर ऐसे मौके पर मुंह बंद रखना ही ठीक था। सुबह उठते ही अमरा से बोला, 'भाई मुझे लौटना पडेगा। तुम यहां रुक सकते हो। अमरा आश्चर्य से बोला, 'आज तक तो ऐसा हुआ नहीं, फिर तू लौटने की बातें क्यों कर रहा है? अभी तो हमें सात दिन भी नहीं हुए हैं? कोई बात हुई क्या?

पतिया चुप हो गया। पहले कभी ऐसा हुआ नहीं कि उसने अमरा से कोई बात छुपाई हो। फिर भी अमरा समझ गया। बोला, 'तू चला जा। दोनों साथ जाएंगे तो जिज्जी को अच्छा नहीं लगेगा। मैं भी कोई बहाना बना कर हफ्ते भर में निकल लूंगा।

दोनों ओसारे पर खडे होकर बातें कर ही रहे थे कि बाई आ धमकीं। 'क्या खुसुर-पुसुर चल रही है दोनों में? अमरा ने पतिया की तरफ देखा और बोला, 'जिज्जी, पतिया की सास बीमार है। इसे जाना पडेगा। यदि अच्छी नहीं हुई तो मैं भी चला जाऊंगा।

'बाई चुप थीं। समझ रही थीं कि कोई बात हुई है। फिर बोलीं, 'किसी ने कुछ कहा है?

'नहीं जिज्जी! अब घर में ऐसी बात हो गई तो रुकना भी मुश्किल है।

'अच्छा, मैं रास्ते के लिए नाश्ता-पानी तैयार करवा देती हूं, इतना कह वह बेचैन-सी चौके की तरफ चल पडीं।

पतिया के बिना अमरा कैसे रह सकता था। सो किसी तरह एक हफ्ता काटा उसने और बाई से अंतिम विदा लेकर वह भी लौट पडा।

उसके बाद हर वर्ष सिर्फ बैलगाडिय़ां आती रहीं उसकी। उनमें अनाज के बोरे लदे होते थे। बाई ने कई संदेश भेजे। एक पत्र ज्ारूर लिखा था अमरा ने, जो अभी मेरे हाथ में है और जिसमें अपनी ज्ामीन का तिहाई हिस्सा बहन होने के नाते बाई के नाम करने की बात लिखी है। पता नहीं, बाई ने वह स्वीकार किया या नहीं। मेरे हाथ में पत्र है। आंसू टपक रहे हैं। इस अनोखे रिश्ते को क्या कहूं। अब न वैसे अमरा हैं और न पतिया। हेमंत कुमार पारीक


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.