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एकपहल सुरक्षा-सम्मान के लिए

वर्ष 2013 से पहले कार्यस्थल में यौन उत्पीडऩ जैसी घटनाओं के लिए अलग से कोई कानून नहीं था। इस अधिनियम के आने से स्त्रियों में आशा जागी कि वे अपनी अस्मिता और सुरक्षा की रक्षा करते हुए करियर में आगे बढ़ सकेेंगी। इसके बावज़्ाूद इस कानून को लागू करने की

By Edited By: Published: Wed, 02 Mar 2016 12:48 PM (IST)Updated: Wed, 02 Mar 2016 12:48 PM (IST)
एकपहल सुरक्षा-सम्मान के लिए

वर्ष 2013 से पहले कार्यस्थल में यौन उत्पीडऩ जैसी घटनाओं के लिए अलग से कोई कानून नहीं था। इस अधिनियम के आने से स्त्रियों में आशा जागी कि वे अपनी अस्मिता और सुरक्षा की रक्षा करते हुए करियर में आगे बढ सकेेंगी। इसके बावज्ाूद इस कानून को लागू करने की दिशा में सुनिश्चित कदम नहीं उठाए जा सके। मुद्दा में इस बार इसी पहलू पर कुछ जानकारियां, सवाल और सुझाव।

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ष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में कार्यस्थलों में स्त्रियों के सम्मान के ख्िालाफ होने वाली घटनाएं काफी तेज्ाी से बढी हैं। वर्ष 2013 में लगभग ढाई सौ शिकायतें आईं तो वर्ष 2014 में इनकी संख्या दोगुनी हो गई। इससे पूर्व ऑक्सफैम इंडिया और सोशल एंड रूरल रिसर्च इंस्टीट्यूट के सर्वे 'सेक्सुअल हरैस्मेंट एट वर्कप्लेस इन इंडिया 2011-2012 के अनुसार लगभग 17 फीसद नौकरीपेशा स्त्रियां कार्यस्थलों में यौन-उत्पीडऩ से जूझती हैं। ग्ाौरतलब है कि 2013 में यौन-उत्पीडऩ रोकथाम, निषेध और निवारण अधिनियम बना, जोकि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए बनाया गया है।

लडकियां कहीं भी ख्ाुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। घर में हों या सडक पर, सार्वजनिक स्थलों पर हों या पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का इस्तेमाल कर रही हों, हर जगह कभी न कभी उन्हें मानसिक-शारीरिक उत्पीडऩ से जूझना पडता है। करियर में मेहनत से आगे बढऩे और कुछ कर दिखाने की चाहत इतनी आसान भी नहीं होती।

विशाखा गाइडलाइंस 1997

इन घटनाओं को देखते हुए वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर स्त्री सुरक्षा व अस्मिता की रक्षा के लिए कुछ दिशा-निर्देश प्रस्तावित किए थे, जिन्हें विशाखा गाइडलाइंस कहा गया। यौन-उत्पीडऩ के एक मामले में फैसला देते हुए ये गाइडलाइंस जारी किए गए।

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान बनाम विशाखा केस 1997 में इसे परिभाषित करते हुए कहा, 'कोई भी अस्वीकृत यौन व्यवहार, जिसमें शारीरिक संपर्क, ग्ालत ढंग से छूने या संपर्क की कोशिश, प्रस्ताव, मांग, प्रार्थना, अश्लील टिप्पणी, अश्लील साहित्य या अप्रिय शारीरिक या मौखिक आचरण आदि शामिल हो, यौन-उत्पीडऩ की श्रेणी में आएगा।

हैरानी की बात यह है कि 15 साल तक यह प्रस्ताव लोक सभा और राज्य सभा से पारित होने की प्रतीक्षा करता रहा। अंत में वर्ष 2013 में वर्कप्लेस में सेक्सुअल हरैस्मेंट एक्ट पारित हुआ, जिसके तहत निर्देश जारी किया गया कि देश के सभी संस्थानों में ऐसी घटनाओं की शिकायत के लिए अनिवार्य रूप से एक इंटर्नल कंप्लेंट कमेटी (आइसीसी) का गठन किया जाए। इन निर्देशों में कुछ बातों की व्यवस्था की गई-

किसी भी संस्थान में ऐसी घटनाओं को रोकने और उन पर सुनवाई की ज्िाम्मेदारी उस संस्थान के व्यवस्थापक, संस्थापक या वरिष्ठ लोगों की हो।

ऐसी किसी घटना की सुनवाई के दौरान पीडित या गवाह के ख्िालाफ किसी तरह का अन्याय या अत्याचार न हो।

संस्थान अपने यहां ऐसी घटनाओं पर रोक सुनिश्चित करें।

ऐसी घटनाओं की सुनवाई के लिए गठित शिकायत कमेटी की मुखिया कोई स्त्री हो और इसके मेंबर्स में आधी से अधिक स्त्रियां ही हों।

उल्लंघन पर जुर्माना

भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष के लिए समान अधिकारों की व्यवस्था करता है। भारतीय दंड संहिता में यौन-उत्पीडऩ को दंडनीय अपराध माना गया है। चूंकि बाहरी दुनिया में स्त्रियों के कदम हाल के कुछ वर्षों में अधिक बढे हैं, लिहाज्ाा कार्यस्थलों में स्त्रियों के सम्मान की सुरक्षा के लिए अलग से किसी कानून की ज्ारूरत भी हाल के वर्षों में ही ज्य़ादा हुई है, इसीलिए वर्ष 2013 के दिसंबर महीने में यह कानून पारित हुआ।

यह अधिनियम विशाखा केस में दिए गए सभी निर्देशों का अनुपालन करते हुए इसमें कुछ और प्रस्ताव भी जोडता है। इनमें एक है, शिकायत समिति को सबूत जुटाने के लिए सिविल कोर्ट जैसी शक्तियां प्रदान करना। इस अधिनियम के तहत ठेका, व्यवसाय में कार्यरत लोगों के अलावा दिहाडी मज्ादूर, घरों में काम करने वाली स्त्रियां भी शामिल हैं। इस कानून का उल्लंघन करने वालों को 50 हज्ाार रुपये तक का जुर्माना भरना पड सकता है। अगर किसी जगह पर इस कानून का उल्लंघन एक से अधिक बार हुआ हो तो जुर्माने की राशि बढा दी जाएगी। अगर ऐसा बार-बार हो रहा हो तो संस्थान का लाइसेंस या रजिस्ट्रेशन रद्द भी किया जा सकता है।

कानून का पालन कितना

ग्ाौरतलब है कि कुछ समय पहले चेन्नई की एक कंपनी में ऐसा मामला सामने आया। कानून का पालन न करने की वजह से उसे लगभग पौने दो करोड का जुर्माना भरना पडा। विडंबना ही है कि लगभग दो वर्ष बाद भी इस कानून को लेकर जागरूकता नहीं दिखाई दे रही है।

फिक्की-ईवाई रिपोर्ट 'फोस्टरिंग सेफ वर्कप्लेसेज्ा में बताया गया कि 31 फीसद कंपनियों ने इस कानून को लागू ही नहीं करवाया। ऐसा न करने वालों में 36 प्रतिशत भारतीय और 25 प्रतिशत मल्टीनेशनल कंपनियां हैं। इसके अलावा 40 प्रतिशत ऐसी कंपनियां हैं, जिन्होंने आंतरिक शिकायत समिति के सदस्यों को ट्रेनिंग नहीं दी। यहां तक कि 35 प्रतिशत लोगों को यह भी नहीं मालूम है कि शिकायत समिति गठित करने संबंधी कानून का उल्लंघन न करना दंडनीय अपराध है।

कुछ समय पहले दिल्ली में 'एसोचैम और 'कॉम्प्लाई करो की एक संयुक्त कॉन्फ्रेंस में केेंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने यौन उत्पीडऩ कानून को सख्ती से लागू किए जाने पर बल दिया। ग्ाौरतलब है कि महिला व बाल विकास मंत्रालय इस अधिनियम पर अमल करवाने वाला प्रधान मंत्रालय है। मेनका गांधी ने सम्मेलन में मौज्ाूद कॉरपोरेट्स को सख्त हिदायत दी कि ऐसा न करने पर उनके ख्िालाफ कडे कदम उठाए जा सकते हैं। उन्होंने इस पर एक हैंडबुक भी जारी की है, जिसमें अधिनियम के बारे में सरल शब्दों में जानकारी है।

सम्मेलन में मुंबई के कुछ इलाकों में हुए सर्वेक्षण के आंकडे भी दिखाए गए। बताया गया कि यहां केवल 3 फीसद संगठनों ने ही कानून का पालन किया है, जबकि 86 प्रतिशत ऐसे हैं, जो इस कानून के बारे में जानते ही नहीं हैं।

क्या हैं लूपहोल्स

स्त्री सुरक्षा की दिशा में यह निश्चित तौर पर एक ज्ारूरी अधिनियम है, लेकिन इसमें कुछ कमियां भी हैं। आम स्त्रियों की दृष्टि से ये कमियां इस तरह दिखती हैं-

यह कार्यस्थल में यौन-उत्पीडऩ को अपराध नहीं, नागरिक दोष की श्रेणी में रखता है। स्त्री के सम्मान के ख्िालाफ कोई भी कृत्य अपराध माना जाना चाहिए। यह इसलिए ज्ारूरी है क्योंकि कोई स्त्री अपने प्रति होने वाले दुव्र्यवहार, अपशब्द, अश्लील कृत्य के ख्िालाफ तभी शिकायत करती है, जब वह इसे अपराध समझती है।

पीडित और आरोपी एक ही संस्थान में कार्यरत होते हैं। ऐसे में पीडित पर दबाव अधिक होता है। उसे नौकरी खोने का भय भी बना रहता है। कई बार उसकी शिकायत को अन्य स्त्रियों के लिए उदाहरण बना कर भी पेश किया जाता है, ताकि वे भविष्य में ऐसा कुछ करने से हिचकिचाएं।

हर कानून का एक दूसरा पहलू भी होता है। इस अधिनियम में भी कानून के ग्ालत इस्तेमाल की आशंका हो सकती है। असक्षम, अयोग्य कर्मचारी इसकी आड में स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश कर सकते हैं।

पीडित को भारतीय दंड संहिता के तहत न्याय पाना हो तो इसके लिए आपराधिक उपाय ढूंढने होंगे। इसकी शिकायत आईपीसी की धारा 354 के तहत दर्ज की जाती है, जो यौन-उत्पीडऩ कानून की विशेष धारा नहीं, एक सामान्य प्रावधान है।

अभी इस कानून को आए दो वर्ष ही हुए हैं। इस बारे में जागरूकता कम है और कंपनियों को भी इसकी पूरी जानकारी नहीं है, लिहाज्ाा वहां शिकायत समितियों का गठन नहीं किया जा सका है। यह कानून इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह स्त्री को अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत करता है। स्त्री-सशक्तीकरण की दिशा में इसे नि:संदेह अहम कदम माना जा सकता है। यदि सरकार और संस्थान स्त्री कर्मचारियों के अधिकारों व सुरक्षा के प्रति ईमानदार हैं और चाहते हैं कि स्त्रियां करियर में आगे बढें तो उन्हें कानून का अनुपालन करवाने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे।

इंदिरा राठौर


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