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रिश्तों का बढ़ता दायरा

समय के साथ परिवारों का आकार छोटा हो रहा है, लेकिन आसपास के परिवेश में कुछ आत्मीय रिश्ते भी विकसित हो रहे हैं। इन्हें एक्सटेंडेड फेमिली कहा जा सकता है। महानगरों की व्यस्त जीवनशैली में अकेलापन नहीं महसूस होने देता रिश्तों का यह विस्तार।

By Edited By: Published: Tue, 01 Mar 2016 02:44 PM (IST)Updated: Tue, 01 Mar 2016 02:44 PM (IST)
रिश्तों का बढ़ता दायरा

समय के साथ परिवारों का आकार छोटा हो रहा है, लेकिन आसपास के परिवेश में कुछ आत्मीय रिश्ते भी विकसित हो रहे हैं। इन्हें एक्सटेंडेड फेमिली कहा जा सकता है। महानगरों की व्यस्त जीवनशैली में अकेलापन नहीं महसूस होने देता रिश्तों का यह विस्तार।

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पहले परिवार का मतलब था-पेरेंट्स और सगे भाई-बहनों के अलावा दादा-दादी, बुआ और चाचा-चाची के साथ ढेर सारे कजंस। वक्त बदलने लगा। ग्लोबलाइजेशन के बाद छोटे शहरों की युवा पीढी अच्छे करियर की चाहत में महानगरों का रुख करने लगी। पैसा तो बहुत कमाया, पर सारे रिश्ते-नाते पीछे छूट गए। त्योहार जैसे अवसरों पर जब उन्हें घर की याद सताने लगी तो उन्होंने अपने दिलों के बंद दरवाजों को खोल कर आसपास की दुनिया को देखना-समझना शुरू किया। तब उन्हें महसूस हुआ कि घर की चारदीवारी के बाहर भी एक बहुत सुंदर दुनिया है, जहां कई ऐसे लोग होते हैं, जो कहने को हमारे परिवार के सदस्य नहीं होते, फिर भी हमारी जिंदगी को बेहतर बनाने में उनका बहुत बडा योगदान होता है।

दोस्तों का नया कुनबा

घर-परिवार से दूर अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लेकर अनजाने शहर में आने वाले युवा यहां दोस्तों का एक नया कुनबा बना लेते हैं। दूसरे शहरों से महानगरों में आने वाले युवा अकसर साथ मिलकर रहते हैं। यह व्यवस्था उनके लिए िकफायती होने के साथ सुरक्षित और आरामदायक भी होती है। इससे बेगाने शहर में उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होता। बीमारी या किसी अन्य परेशानी में वे एक-दूसरे के लिए मददगार साबित होते हैं। हालांकि, अलग-अलग परिवेश से आने वाले लोगों के साथ एडजस्टमेंट में थोडी दिक्कत जरूर होती है, पर सुविधाओं की ख्ाातिर इन कामकाजी युवाओं को अपनी कुछ आदतें बदलने में जरा भी गुरेज नहीं।

एक घर पडोस में

अब तक लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई थी कि महानगरों के अपार्टमेंट्स में रहने वाले अपने पडोसियों के नाम तक नहीं जानते, पर बदलते वक्त की जरूरतों ने इस सोच को पूरी तरह गलत साबित कर दिया है। अब बडे शहरों की संस्कृति और जीवनशैली में भी बदलाव नजर आ रहा है। आशुतोष कुट्टी पेशे से सीए हैं। वह कहते हैं, 'मैं मूलत: आंध्र प्रदेश का रहने वाला हूं और पिछले दस वर्षों से दिल्ली में हूं। मेरी वाइफ एक स्कूल में टीचर हैं। जब मैं दिल्ली आया था तब मेरी बेटी मात्र दो साल की थी। उस वक्त हमारे नेक्स्ट डोर नेबर ने हमारी बहुत मदद की। तब उनकी बेटियों की उम्र तकरीबन पांच-छह साल थी। उन्हीं के साथ रहकर मेरी बिटिया बडी आसानी से हिंदी बोलना सीख गई। उस परिवार के साथ हमारा एक ऐसा स्नेह भरा नाता बन गया है, जो इस अजनबी शहर में हमें अपनत्व का एहसास दिलाता है।

एक से भले दो

समान हितों के लिए साथ मिल-जुलकर रहना आज महानगरीय जीवनशैली की जरूरत बनती जा रही है। आजकल पेट्रोल की बढती कीमतों, ट्रैफिक जाम और प्रदूषण को देखते हुए कुछ लोग अपने पडोस में रहने वाले लोगों के साथ मिलकर कार पूलिंग की भी व्यवस्था कर लेते हैं। आजकल न्यूक्लियर फेमिली में छोटे बच्चों की परवरिश के दौरान मांओं के सामने कई तरह की समस्याएं आती हैं। इसलिए अब भारत में भी यूरोपीय देशों की तरह प्ले स्कूल जाने वाले बच्चों की मम्मियों ने साथ मिलकर मदर-टोडलर्स ग्रुप बनाना शुरू कर दिया है। इस ग्रुप की सभी स्त्रियां महीने में एक या दो बार अपने बच्चों के साथ किसी एक के घर पर मिलती हैं, जहां बच्चों को साथ खेलने के लिए कई हमउम्र दोस्त मिल जाते हैं, वहीं मम्मियां उनकी सेहत, खानपान और उनके विकास संबंधी समस्याओं पर आपस में खुलकर बातचीत करती हैं। इनका अपना परिवार भले ही छोटा हो, पर इससे बाहर इनकी बहुत बडी एक्सटेंडेड फेमिली है। महानगरों में ज्य़ादातर स्त्रियां कामकाजी होती हैं। इसलिए वहां घरेलू सहायक भी परिवार के सदस्य की तरह सच्चे मददगार साबित होते हैं।

वर्चुअल वल्र्ड के रिश्ते

आज की अति व्यस्त जीवनशैली में किसी के पास दूसरों की बातें सुनने का वक्त नहीं होता, ऐसे में यह वर्चुअल दुनिया समान विचार रखने वाले लोगों को दोस्ती और बातचीत का मंच प्रदान करती है। जहां वे खुल कर अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसी साइट्स के जरिये लोगों को बचपन के बिछडे दोस्त वापस मिल जाते हैं, दूर के रिश्तेदारों के साथ नए सिरे से संपर्क कायम हो जाता है, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बैठे लोगों के बीच भावनाओं और विचारों की इतनी सुंदर साझेदारी सिर्फ यहीं देखने को मिलती है।

बुजुर्गों का सामाजिक जीवन

महानगरों में बुजुर्गों का अकेलापन एक बडी समस्या है। इसलिए अब कुछ लोगों ने अपना सोशल क्लब बना लिया है, जहां वे साथ मिलकर अपनी रुचि से जुडे विषयों पर बातचीत करते हैं, शतरंज, कैरम और ताश जैसे इंडोर गेम्स खेलते हैं। कुछ लोग जरूरतमंद बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते हैं। कई बार कुछ बुजुर्ग दंपती साथ मिलकर अपने मनपसंद पर्यटन स्थलों की सैर पर निकल पडते हैं। धार्मिक रुझान के लोग मंदिरों की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन जाते हैं। यहां परिवार के सदस्य भले ही उनके साथ न हों, पर आसपास के लोगों का प्यार ही उन्हें जिंदादिल बनाए रखता है।

पीजी का बढता चलन

बडे शहरों में रहने वाले बुजुर्ग अकेलापन दूर करने के लिए और भी नई तरकीबें ढूंढ रहे हैं। महानगरों में पीजी का बढता चलन भी इनमें से एक है। वहां अकेले रहने वाले बुजुर्ग (ज्य़ादातर स्त्रियां) कामकाजी युवाओं को अपने घरों में बतौर पेइंग गेस्ट रहने की सुविधा मुहैया करवाते हैं। इससे जहां एक ओर उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी होती है, वहीं बीमारी या किसी आकस्मिक स्थिति में ये पेइंग गेस्ट उनके लिए बहुत मददगार साबित होते हैं। उनके बीच परिवार के सदस्यों जैसा अपनत्व विकसित हो जाता है।

सुख साथ होने का

महानगरों की एकाकी और आत्मकेंद्रित जीवनशैली से अब लोग ऊबने लगे हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'भावनाओं की शेयरिंग हमें तनाव और डिप्रेशन जैसी समस्याओं से बचाती है। इसीलिए आजकल बडे शहरों में करीबी दोस्तों या भाई-बहनों के साथ मिलकर एक ही अपार्टमेंट में फ्लैट्स की बुकिंग कराने का चलन बढता रहा है, ताकि जरूरत के वक्त वे एक-दूसरे के काम आ सकें।'

हर नया बदलाव अपने साथ कुछ मुश्किलें लाता है, पर उन्हीं के बीच नए रास्ते भी निकल आते हैं। जब परिवारों का आकार छोटा हुआ तो उसकी कमियां पूरी करने के लिए लोगों ने कई नए विकल्प ढूंढ लिए क्योंकि अकेले रहना हम भारतीयों की िफतरत नहीं है। परिवार तो हमारे दिलों में बसा होता है। हम चाहे जहां भी रहें, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को जीते हैं। द्

विनीता


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