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जज्बा जिंदगी संवारने का

दिल्ली की मीरा भाटिया का जीवन इस बात की सबसे बड़ी मिसाल है कि अगर हमारे दिल में दूसरों का दर्द समझने का जज्बा हो तो हमें उनका जीवन संवारने में निश्चित रूप से कामयाबी मिलती है।

By Edited By: Published: Mon, 05 Sep 2016 02:30 PM (IST)Updated: Mon, 05 Sep 2016 02:30 PM (IST)
जज्बा जिंदगी संवारने का
आज जब लोग मेरे प्रयासों की प्रशंसा करते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि मैंने कोई असाधारण कार्य नहीं किया है, बल्कि मैं तो उन लोगों की मुश्किलों को थोडा कम करने की छोटी सी कोशिश कर रही हूं जो शुरुआत से ही मेरे जीवन का अटूट हिस्सा रहे हैं। बचपन के वे दिन मैं मूलत: दिल्ली की रहने वाली हूं। वैसे तो मेरा बचपन भी आम बच्चों के जैसा ही था। मैं दो भाइयों की इकलौती बहन हूं। मेरी परवरिश एक बडे संयुक्त परिवार में हुई है, जहां मुझे मम्मी-पापा के अलावा परिवार के सभी सदस्यों का भरपूर प्यार मिला। हां, सिर्फ एक मामले में मेरा बचपन दूसरे बच्चों से थोडा अलग जरूर था कि मेरे पेरेंट्स बोलने-सुनने में असमर्थ थे। फिर भी आज मैं पूरे विश्वास के साथ यह कह सकती हूं कि उनकी इस अक्षमता की वजह से हमारी परवरिश की राह में कभी कोई रुकावट नहीं आई। मेरे पिता सूरज प्रकाश कंचनबरस ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ डेफ की प्रिंटिंग प्रेस में काम करते थे और मां मोहिनी कंचनबरस दिल्ली की ही एक स्वयंसेवी संस्था फाउंडेशन ऑफ डेफ वुमन की स्त्रियों को हैंडीक्राफ्ट और बाटिक पेंटिंग का काम सिखाती थीं। उन्होंने अपनी सीमित आमदनी से भी हमें अच्छी से अच्छी शिक्षा दी। उन दिनों सालवान पब्लिक स्कूल दिल्ली के अच्छे स्कूलों में गिना जाता था। मैंने दसवीं की परीक्षा वहीं से पास की थी। उसके बाद मैंने हंसराज कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। मुझे आज भी याद है कि पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में मेरे माता-पिता हमारे साथ स्कूल जाते और वहां वे हमारी टीचर्स से लिखकर बातें करते। हम तीनों भाई-बहन छोटी उम्र से ही साइन लैंग्वेज समझने लगे थे। अगर हमारी टीचर्स के साथ बातचीत में कोई दिक्कत आती तो हम उनके बीच इंटरप्रेटर की भूमिका निभाते हुए दोनों को एक-दूसरे की बातें समझा देते थे। सही मायने में साइन लैंग्वेज ही हमारी मातृभाषा है। हालांकि, हमारे संयुक्त परिवार के सभी सदस्य बहुत अच्छे थे और हमारे चाचा हरदम हमारी मदद को तैयार रहते थे, फिर भी मेरे पिता बडी खुशी के साथ अपनी सारी जिम्मेदारियां खुद ही निभाते। हमारे पेरेंट्स में गजब का आत्मविश्वास था। हमारे मन में कभी भी इस बात को लेकर कोई हीन भावना नहीं आई कि मेरे माता-पिता बोलने-सुनने में असमर्थ हैं। आम बच्चों की तरह हम शरारतें भी करते पर मम्मी आंखों के इशारे से ही हमें ऐसी फटकार लगाती थीं कि हम तुरंत उनकी बात मान लेते थे। आज जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचती हूं तो ऐसा लगता है कि तब हमारे पेरेंट्स को कितनी मुश्किलें उठानी पडी होंगी। दर्द का रिश्ता वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था। मेरे पेरेंट्स के ज्य़ादातर दोस्त भी मूक-वधिर थे और उनसे अकसर मेरा मिलना-जुलना होता था। कभी-कभी मैं पापा या मम्मी के साथ उनके वर्क प्लेस पर भी चली जाती। मैं बचपन से ही ऐसे लोगों की परेशानियों को समझने लगी थी। जब भी पापा के ऑफिस में कोई मीटिंग होती तो अपनी मदद के लिए वह मुझे अपने साथ ले जाते क्योंकि बाहर से कुछ ऐसे भी लोग आते थे, जो साइन लैंग्वेज समझ नहीं पाते थे, ऐसे में मैं पापा के लिए इंटरप्रेटर का काम करती थी। इस तरह स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही मेरे मन में यह इच्छा जागने लगी थी कि मुझे ऐसे लोगों की मदद करनी चाहिए और निजी स्तर पर जितना भी संभव होता मैं उनकी मदद जरूर करती। इसी बीच 1994 में दूरदर्शन पर मूक-वधिरों के लिए समाचार पढऩे का भी काम करने लगी। फिर 1995 में शादी हुई। उसके बाद मेरे दोनों बच्चों संस्कृति और सत्यार्थ का जन्म हुआ और कुछ समय के लिए मैं उनकी परवरिश में व्यस्त हो गई लेकिन तब भी मैं डिफरेंट्ली एबल लोगों के लिए कुछ करना चाहती थी। सफर की शुरुआत जब बच्चे थोडे बडे हो गए तो मैंने 2006 में योजनाबद्ध तरीके से काम शुरू करने के उद्देश्य से 'साईं स्वयं सोसाइटी' नामक स्वयंसेवी संस्था की स्थापना की। हमारे समाज में अब तक ऐसी धारणा बनी हुई है कि दिव्यांग केवल हैंडीक्राफ्ट से जुडे मामूली काम ही कर सकते हैं लेकिन मैं उन्हें उनकी रुचि के अनुकूल रोजगार दिलाना चाहती थी। इसलिए मैंने मूक-वधिर और ऑर्थोपेडिकली हैंडीकैप्ड छात्रों को बारहवीं पास करने के बाद वोकेशनल ट्रेनिंग देने के साथ उनके लिए प्लेसमेंट की व्यवस्था भी शुरू की। उनके लिए यह सुविधा नि:शुल्क है। इसके लिए हम कंपनियों से भी कोई पैसा नहीं लेते। इतना ही नहीं, अगर कभी किसी युवक/युवती की नौकरी छूट जाती है तब भी हम दोबारा उसके लिए रोजगार की व्यवस्था करवाते हैं। दिल्ली के अलावा पंजाब, महाराष्ट्र हरियाणा और गुजरात में भी हमारी संस्था ऐसे लोगों की मदद कर रही है। हमारे इन प्रयासों से पूरे देश में लगभग तीन हजार युवा रोजगार पाकर आत्मसम्मान के साथ अपना जीवन जी रहे हैं। उनमें कई बच्चे ऐसे भी हैं, जिन्होंने बेहद मुश्किल हालात से लडकर अपनी पहचान कायम की है। मिसाल के तौर पर जबलपुर के दिहाडी मजदूर का बच्चा हमारे यहां से ट्रेनिंग लेकर आइबीएम कंपनी में काम कर रहा है। इसी तरह हमारे पास एक ऐसी लडकी आई थी, जो किसी दुर्घटना की वजह से सुनने की क्षमता खो चुकी थी। इस वजह वह गहरे डिप्रेशन में चली गई थी। हमने लंबे समय तक साइकोलॉजिस्ट से उसकी काउंसलिंग करवाई। आज वह लडकी दिल्ली के एक बडे मॉल में कैशियर के पद पर कार्यरत है। अगर आज मेरी मां जीवित होतीं तो मेरा यह प्रयास देखकर बहुत खुश होतीं। हां, मेरे पिता अब भी मेरे साथ हैं और उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत मायने रखता है। उम्मीद की किरण यह अच्छी बात है कि दिव्यांगों के प्रति समाज का नजरिया बदल रहा है। अब लोग उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील हैं। कई कंपनियां मेरे इस कार्य में स्वेच्छा से मुझे आर्थिक सहयोग देती हैं। कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हॉस्पिटैलिटी क्षेत्र से जुडी देश की कई अग्रणी कंपनियां दिव्यांगों के लिए 10 से 20 प्रतिशत तक सीटों पर आरक्षण देती हैं। भारत सरकार का सुगम्य भारत अभियान भी इसी प्रयास का एक हिस्सा है। इंडियन साइन लैंग्वेज रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की भी तैयारी चल रही है। हालांकि, अभी हमें इस दिशा में और काम करने की जरूरत है, ताकि दूरदराज गांव में रहने वाले प्रत्येक डिफरेंट्ली एबल व्यक्ति के पास रोजगार के प्रशिक्षण की सुविधा हो और वह आत्मसम्मान के साथ सर उठा कर अपनी जिंदगी जी सके। प्रस्तुति : विनीता

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