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हमारे बुज़ुर्ग दिल से युवा

अगर हम सकारात्मक बदलाव की बात करें तो इस मामले में हमारे बुज़ुर्ग सबसे आगे हैं। अब वे न केवल नए ज़माने की ज़रूरतों को पहचानने लगे हैं, बल्कि उसी के अनुकूल खुद को भी ढाल रहे हैं।

By Edited By: Published: Mon, 04 Jul 2016 12:11 PM (IST)Updated: Mon, 04 Jul 2016 12:11 PM (IST)
हमारे बुज़ुर्ग दिल से युवा
आज के बुजुर्ग बदलते वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना सीख रहे हैं। दरअसल इस पीढी के बुजुर्गों ने अपने भविष्य की तैयारी काफी पहले से ही शुरू कर दी थी। इसी वजह से रिटायरमेंट के बाद वे सुकून की जिंदगी जी रहे हैं। अब उन्हें अपनी संतान पर निर्भर होने की जरूरत नहीं पडती। उन्होंने बहुत पहले से ही खुद को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया था कि बडे होने के बाद उनके बच्चे उच्च शिक्षा और जॉब के लिए दूसरे शहरों में चले जाएंगे और बाद में उन्हें अकेले ही रहना होगा। इस संदर्भ में समाजशास्त्री डॉ. रेणुका सिंह कहती हैं, 'एक दौर ऐसा भी था, जब संयुक्त परिवारों के टूटने की वजह से लोग बहुत चिंतित थे पर पिछले दो दशकों में भारतीय बुजुर्गों ने इस बदलाव के साथ एडजस्ट करना सीख लिया है। आज वे आत्मनिर्भर और खुश हैं। अब उनके जीवन में अकेलेपन और उदासी जैसे शब्दों के लिए कोई जगह नहीं है।' बेहद खूबसूरत है यह दौर शादी के बाद लोग घर-गृहस्थी और बच्चों की परवरिश से जुडी जिम्मेदारियों में इतने व्यस्त होते हैं कि उन्हें पल भर के लिए भी अपनी खुशियों और सपनों के बारे में सोचने की मोहलत नहीं मिलती। जब संतानें अपनी गृहस्थी में रम जाती हैं, तब उन्हें अपना खयाल आता है। ऐसे में उन्हें कुछ समय के लिए थोडा अकेलापन जरूर महसूस होता है, पर वे जल्द ही नए सिरे से अपनी जिंदगी को संवार कर उसे बेहद खुशनुमा बना देते हैं। अब उनके पास अपने लिए भरपूर वक्त होता है, जिसका इस्तेमाल वे अपनी रुचि से जुडे उन कार्यों के लिए कर सकते हैं, जिन्हें वे अब तक पूरा नहीं कर पा रहे थे। किसी भी बुजुर्ग दंपती के लिए यह उनकी उम्र का बेहद खूबसूरत दौर होता है, जब वे सही मायने में एक-दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। मिट रहे हैं फासले आज के बुजुर्गों में एक सकारात्मक बदलाव यह भी नजर आ रहा है कि वे युवा पीढी की तरफ दोस्ती का हाथ बढा रहे हैं। अब पुरानी पीढी के लोग भी विज्ञान-तकनीक, खानपान और रहन-सहन के तौर-तरीके में आने वाले बदलाव को सहजता से स्वीकारते हुए उन्हें अपनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी वजह से आजकल युवाओं को भी उनका साथ बहुत पसंद आता है। अब पुरानी पीढी को इस सच्चाई का एहसास हो गया है कि खुश रहने के लिए वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना बहुत जरूरी है और ऐसा नहीं करने पर वे बहुत पीछे छूट जाएंगे। पहचानते हैं सेहत की कीमत आज के बुजुर्गों की सोच में सकारात्मक बदलाव आ रहा है। अब वे अपनी सेहत के प्रति बेहद जागरूक हैं। संतुलित खानपान, नियमित मॉर्निंग वॉक, योगाभ्यास और एक्सरसाइज की वजह से उनकी उम्र बढऩे की प्रक्रिया धीमी हो गई है। इसके अलावा आजकल सभी बुजुर्गों के पास मेडिकल इंश्योरेंस होता है, अगर ऐसा न भी हो तो उन्हें अपनी संतानों के स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से उपचार की सुविधा मिल जाती है। इसलिए अब पुराने समय की तरह आर्थिक चिंता की वजह से बुजुर्गों को अपना इलाज टालने की जरूरत नहीं पडती। पहले साठ साल की उम्र के बाद लोगों के लिए जिंदगी ठहर सी जाती थी पर अब ऐसा नहीं है। आजकल इस आयु वर्ग के लोग न तो बूढे दिखते हैं और न ही अपने लिए ऐसा कोई विशेषण सुनना पसंद करते हैं। जिंदादिली का नाम है जिंदगी उम्र हो गई है, भगवान का नाम जपो और घर के एक कोने में चुपचाप पडे रहो। समाज द्वारा तय किए गए इस निराशावादी जीवन-दर्शन को भारतीय बुजुर्ग सदियों से ढोते चले आ रहे थे क्योंकि अब तक उन्होंने अपनी पिछली पीढी को भी ऐसे ही घुट-घुटकर जीते देखा था। आज से बीस साल पहले तक रिटायर होने वाले व्यक्ति को विदाई समारोह में उपहार स्वरूप कुछ धार्मिक पुस्तकें और वॉकिंग स्टिक जैसी चीजें निश्चित रूप से दी जाती थीं। पहले से ही यह मान लिया जाता था कि अब इस व्यक्ति की जिंदगी पूजा-पाठ और सुबह की सैर तक ही सीमित रहेगी। कोई यह जानने की जरूरत नहीं समझता था कि उस व्यक्ति की पसंद और रुचियां क्या हैं? समाज द्वारा बनाई गई अपनी इस स्टीरियोटाइप इमेज से बुजुर्ग खुद ही ऊबने लगे। आर्थिक उदारीकरण ने पहले की तुलना में हमारी जिंदगी को बहुत आसान बना दिया है। जब घर में इंटरनेट है तो आज की दादी मां ने भी अपनी नन्ही पोती के साथ मिलकर गूगल पर नई रेसिपीज सर्च करना सीख लिया है। फिर एक रोज पोती ने अपनी दादी का फेसबुक अकाउंट भी खोल दिया। शुरुआत में तो दस-पंद्रह दिनों तक वह घर में अपने साथ रहने वाले बच्चों की तसवीरों को शेयर और लाइक करती रहीं। एक रोज उनकी नन्ही पोती श्रेया ने उनके मेसेज बॉक्स पर क्लिक करके दिखाया, 'दादी क्या आप इन्हें पहचानती हैं? इन्होंने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है।' तो वह चौंक पडीं, 'अरे! यह तो श्यामा है। सातवीं क्लास में मेरे साथ पढती थी। स्कूल के बाद दोबारा कभी इससे मिलना नहीं हुआ। दादी की खुशी का ठिकाना नहीं था। अब तक तो तो उन्होंने चैटिंग करना भी सीख लिया है और घंटों अपनी सहेली के साथ बातें करती रहती हैं। अगर जीवन में कुछ नया और बेहतर आए तो उसे अपनाने में झिझक कैसी? माना कि मूंग की दाल, लौकी की सब्जी और रोटी दादा जी के लिए आइडियल फूड है, लेकिन अगर कभी बच्चों के साथ पित्जा खाने के लिए उनका भी मन मचलने लगे तो इसमें क्या बुराई है? आज के बुजुर्ग हर बदलाव के साथ खुद को अपडेट रखते हैं। महानगरों के मल्टीप्लेक्स हॉल में जब भी कोई नई फिल्म रिलीज होती है, वहां बुजुर्ग दर्शक भी अच्छी तादाद में दिखाई देते हैं। युवाओं की जिम्मेदारी यह अच्छी बात है कि आज के बुजुर्ग हमारी पसंद-नापसंद और रुचियों का खयाल रखते हैं। जितना संभव हो पाता है, वक्त के साथ खुद को बदलने की कोशिश करते हैं लेकिन उनके प्रति हमारा भी कुछ फर्ज बनता है, जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। जिन्होंने उंगली पकड कर हमें चलना सिखाया था, आज जब उन्हें सहारे की जरूरत है तो हमें हर हाल में उनके पास होना चाहिए। अनमोल है यह जीवन अपने मरीजों का ध्यान रखने के लिए मेरा स्वस्थ होना भी बहुत जरूरी है। इसलिए मैं नियमित योगाभ्यास और मॉर्निंग वॉक करता हूं। मुझे पढऩे का बहुत शौक है। घर पर मेरी निजी लाइब्रेरी में मेडिकल साइंस के अलावा साहित्य और अध्यात्म से जुडी ढेर सारी किताबें हैं। फोटोग्राफी मेरी हॉबी है और मैं आज भी इसके लिए समय जरूर निकालता हूं। हमारा यह जीवन अनमोल है। इसलिए हमें इसके हर पल का सदुपयोग करते हुए हमेशा सकारात्मक और अच्छे कार्य करने चाहिए। [डॉ. पी. के. दवे, उम्र 77 वर्ष, चेयरमैन, एडवाइजरी बोर्ड, रॉकलैंड हॉस्पिटल, दिल्ली] उम्र कोई रुकावट नहीं मैं सीआरपीएफ में कमांडेंट था। रिटायरमेंट के बाद अपनी बोरियत दूर करने के लिए मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर की मास्टर्स एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं के लिए दौडऩा शुरू कर दिया, जिसके लिए कोई अधिकतम आयु सीमा नहीं होती। अब तक कई गोल्ड मेडल जीत चुका हूं। जब लोग मुझे बुजुर्ग नौजवान कहकर बुलाते हैं तो मेरा उत्साह दोगुना हो जाता है। मैं अपने खानपान और फिटनेस का पूरा ध्यान रखता हूं। अगर हमारे मन में उत्साह हो तो उम्र कभी भी रुकावट नहीं बनती। [मुंशीराम शेखावत, उम्र 68 वर्ष, एथलीट] करती हूं लोगों की मदद मुझे और मेरे पति ओम प्रकाश दानी को घूमने-फिरने का बहुत शौक है। पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद यही वह समय है, जब इंसान को अपनी खुशियों के बारे मेें सोचने का वक्त मिलता है। इसलिए हम दोनों हर महीने-दो महीने बाद किसी शांत-सुंदर पर्यटन स्थल की ओर निकल पडते हैं। इसके अलावा जरूरतमंदों की मदद करके मुझे सच्ची खुशी मिलती है। [शोभा दानी, उम्र, 63 वर्ष,चार्टर प्रेसिडेंट लॉयनेस क्लब नई दिल्ली] जरूरी है थोडी उदारता बढती उम्र के साथ सेहत में थोडी गिरावट आना स्वाभाविक है। इसलिए अब मैं बहुत ज्य़ादा यात्राएं नहीं कर पाती और घर पर ही लेखन में व्यस्त रहती हूं। इससे मेरे मन को बहुत सुकून मिलता है। है। मेरा मानना है कि अगर बुजुर्ग युवा पीढी की भावनाओं को समझते हुए उनके साथ थोडी उदारता बरतें तो इससे दोनों पीढिय़ों के बीच फासले मिट जाते हैं और परिवार का माहौल खुशनुमा बना रहता है। [लीला रामचंद्रन, उम्र 77 वर्ष, कथाकार] विनीता

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