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साथ निभाने का नाम है शादी: कमलेश-कांति

फिल्म रंग दे बसंती, तेजाब, सौदागर समेत कई सुपरहिट फिल्मों की कहानियां लिखने वाले कमलेश पांडे बॉलीवुड का जाना-पहचाना नाम हैं। उनकी हमसफर हैं कांति पांडे। 35 वर्षो के विवाहित जीवन में दोनों ने जीवन के कई उतार-चढ़ावों में एक-दूसरे का साथ निभाया है। मिलते हैं इस अनुभवी दंपती से।

By Edited By: Published: Fri, 01 Mar 2013 11:32 AM (IST)Updated: Fri, 01 Mar 2013 11:32 AM (IST)
साथ निभाने का नाम है शादी: कमलेश-कांति

लेखन और विज्ञापनों में सक्रिय कमलेश पांडे ने मायानगरी में एक पूरा युग जी लिया है। कई महत्वपूर्ण फिल्मों की कहानियां लिखीं। कौन बनेगा करोडपति के छठे सीजन का ऐड कैंपेन भी उन्होंने तैयार किया। कमलेश पांडे का विवाह 12 दिसंबर 1976 को कोलकाता की कांति पांडेय से हुआ। तब से अब तक जीवन के हर पल में दोनों साथ-साथ हैं। रूबरू होते हैं दांपत्य जीवन पर उनकी सोच से।

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शादी क्या है आपकी नजर में?

कमलेश : मेरा मानना है कि शादी तो सबको करनी चाहिए। कुछ ही लोग होते हैं जो शादी के बिना भी उम्र काट लेते है। बाकी जिम्मेदारियों की तरह यह भी बेहद अहम जिम्मेदारी है। यह एक इम्तिहान है। स्त्री-पुरुष संबंधों को गहराई से देखने की नजर देती है शादी। शादी से पहले भले ही यह दावा करें कि एक-दूसरे को जानते हैं, मगर यह सच है कि शादी एक-दूसरे को समझने का मौका देती है। शादी से पहले सिर्फ अच्छाइयां दिखती हैं, लेकिन शादी के बाद जब चौबीस घंटे साथ रहने लगते हैं, तब पता चलता है कि हम रिश्तों को कितना सहेज कर रख सकते हैं और हमारे भीतर धैर्य कितना है। शादी के बाद ही पता चलता है कि हम कितने परिपक्व हैं। मैं दार्शनिक सुकरात का उदाहरण दूं, जिनका कहना था, शादी के दो फायदे हैं। बीवी अच्छी मिले तो आप खुशिकस्मत बनते हो, बुरी मिले तो फिलोसॉफर (जोर से हंसते हैं कमलेश)।

कांति : बिलकुल सही बात है। शादी व्यक्ति को परिपक्व बनाती है। यहीं से गुजर कर पता चलता है कि आप कितने अच्छे या बुरे हैं? हम मां-बाप के साथ भी पूरी जिंदगी नहीं रहते, लेकिन इस एक रिश्ते में हर पल साथ होते हैं। शादी एक नई दुनिया और सोच को विकसित होने का मोका देती है। मैं मानती हूं कि इससे बडा न कोई स्वर्ग है और न नर्क। एक लेखक की पत्नी होने के नाते मेरे लिए धैर्य सबसे जरूरी है। पति के लिए शांतिपूर्ण माहौल बनाना मेरी जिम्मेदारी है। शादी बेहतरीन कंपेनियनशिप है। जिंदगी में संतुलन सिखाती है, सीमा में रहना सिखाती है और इसी में हम दूसरों के लिए जीना सीखते हैं।

कमलेश : सारे रिश्ते निभाते-निभाते स्त्री के पास खुद के लिए भी समय नहीं बचता। लेकिन मुझे माफ करें, यह चीज मैं आज की लडकियों में नहीं देखता। उनकी लाइफ का अलग एजेंडा है। करियर, महत्वाकांक्षाएं, पैसा उनके लिए अहम है। कामकाजी औरत के सवाल वाजिब हैं कि क्या उन्हें सिर्फ अपनी इच्छाओं की कुर्बानी देनी होगी? उनसे मेरा कहना है कि जिंदगी एकतरफा नहीं होती, न यह दोनों हाथों में लड्डू देती है। एक हाथ देती है, तो दूसरे हाथ से छीनती भी है। इसकी कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए। महत्वाकांक्षाओं व करियर को प्राथमिकता देंगे तो जिंदगी के बाकी मोर्चो पर मुंह की खानी होगी। इसीलिए लडकियां नौकरी छोडती हैं?

कांति : अब लडकियां किसी मजबूरी में हाउसवाइफ नहीं बनतीं। वे तय करती हैं कि उन्हें नौकरी करनी है या घर पर रहना है। दोनों जिम्मेदारियां साथ नहीं निभाई जा सकतीं। मैं पोस्ट ग्रेजुएट हूं। बीच-बीच में काम भी किया। फिर महसूस किया कि दोनों काम में संतुलन नहीं बिठा पा रही हूं। तब मैंने घर को चुना। इसमें खुश व संतुष्ट होना सीखा।

कमलेश : मैं यह नहीं कह रहा कि नौकरी करने वाली स्त्रियां घर नहीं संभाल पातीं। लेकिन तुलना करके देखें तो एक गृहणी ही घर ठीक ढंग से चला सकती है। दो नावों में सवार स्त्री की पूरी जिंदगी इस तनाव में गुजर जाती है कि वह नौकरी और परिवार के साथ न्याय कर पा रही है कि नहीं। मैं नहीं मानता कि नौकरी करने वाली औरतें परिवार को पूरा वक्त दे पाती हैं। वे ड्यूटी पर होती हैं और घर में बच्चे नौकरों के साथ बडे होते हैं। मैं तो यह भी कहता हूं कि पति कामकाजी नहीं है तो उसे पत्नी की भूमिका निभानी चाहिए। इसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। भारतीय परिवारों का ढांचा दोषी है?

कांति : हां, हमारे यहां सास-ससुर को इस बात से ऐतराज नहीं होता कि बहू नौकरी करने वाली है। लेकिन बहू घर भी उसी तरह संभाले, जैसे कोई टिपिकल हाउसवाइफ संभालती है, यह अपेक्षा रहती ही है। यह कैसा न्याय है? पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता। वहां स्त्रियां आजादी के साथ जीती हैं, परिवार उन्हें नहीं बांधता।

कमलेश : सही कहा कांति ने। मेरे खयाल से कोई एक चयन करना चाहिए ताकि आप अपनी पूरी ऊर्जा उसी दिशा में लगा सकें, वरना यहां भी तुलना की स्थिति पैदा हो जाती है। हाउसवाइफ को लगता है कि नौकरी करने वाली स्त्री घर-बाहर अच्छी तरह संभाल रही है, जबकि नौकरी करने वाली स्त्री को लगता है कि वह दोहरी जिंदगी जी रही है।

कांति : मुझे आज की लडकियों को देखकर अच्छा लगता है। वे ऊर्जावान हैं, आक्रामक हैं, उन्हें पता है कि सबको खुश नहीं रखा जा सकता। पति, दोस्तों, मां-बाप, बाकी रिश्तों को लेकर वे पहले की स्त्रियों से ज्यादा स्पष्ट हैं। वे व्यावहारिक सोच से आगे बढ रही हैं। इसलिए घर-बाहर सही तरह संभाल पा रही हैं।

कमलेश : पहले स्त्रियां दूसरों के लिए त्याग करती थीं, मगर अब उन पर सेल्फ हावी हो रहा है।

आप दोनों को एक-दूसरे में कौन सी बातें अच्छी लगती हैं?

कांति : पहली बात है- इनका लेखन। इनके अनुभवों का संसार भी बहुत गहरा है। हमारी अरेंज्ड मैरेज है, सो पहली मुलाकात में कोई विशेष बात नहीं थी। विज्ञापन कंपनी में काम करते थे। इनके पिता ने वैवाहिक विज्ञापन दिया था। उसे पढा तो लगा कि यही मेरे जीवनसाथी बन सकते हैं।

कमलेश : इनके भाई साहब मुझे जानते थे। मेरे ऑफिस भी आते थे। उन्होंने मेरे सामने बात रखी तो मैंने कहा, चलो देखते हैं। संयोग से मेरा ऑफिस भी इनके घर के पास था वर्ली नाका पर मुंबई में। इसलिए ऐसा कोई अजनबीपन नहीं था। मैं इन्हें देखने गया और यह मुझे जंच गई। मेरा मानना है कि आप जिसे अपना हमसफर बनाना चाहते हैं, उसे स्वीकार करें उसकी अच्छाई-बुराई सहित। अगर आपकी पत्नी अच्छा खाना बनाती है, पर बोलती ज्यादा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उसकी आलोचना करें। जिस क्षण आप खूबियों-खामियों का चुनाव करने लगते हैं, रिश्ता उसी समय से खत्म होना शुरू हो जाता है।

आप दोनों में कॉमन चीजें क्या हैं और किन बातों पर ग्ाुस्सा आता है?

कांति : मुझे अच्छा खाना बनाने का शोक है और इन्हें अच्छा खाने का। ग्ाुस्सा कम ही आता है। ये कभी मुझे मोका नहीं देते। मुझे भी इनकी तरह किताबों से प्यार है।

कमलेश : हम परफेक्ट मैच हैं। ये मेरा पूरा खयाल रखती हैं, इसलिए मुझे ग्ाुस्सा नहीं आता। कभी-कभी जब तल्लीनता से लिख रहा होता हूं, तभी पूछती हैं कि आज क्या खाओगे भर्ता या कोफ्ता, तब झल्लाहट होती है। लेकिन वह उनकी मजबूरी है। चाहती हैं कि मेरी खुशी का खयाल रखें। पत्नी के बाद किताबें मेरी सच्ची दोस्त हैं। मेरी निजी लाइब्रेरी में दस से बारह हजार किताबें हैं।

लेट मैरिज के ट्रेंड पर क्या कहेंगे?

कांति : सेहत के लिहाज से यह सही नहीं है। हालांकि महंगाई के दौर में लेट मैरिज की बात एक हद तक सही भी है। लेकिन बीच का रास्ता निकालना जरूरी है। लोग लिव-इन में विकल्प तलाश रहे हैं, मगर इसमें भी खतरे हैं। भविष्य में अनबन हुई तो साथ छोडकर निकल लेंगे। शादी में अलगाव होता है तो स्त्रियों के पक्ष में बहुत से लोग आ जाते हैं, लेकिन लिव-इन में अलगाव की स्थिति में कोई साथ नहीं देता।

कमलेश : मेरे लिए यह नैतिकता का सवाल नहीं है। यदि आप जिम्मेदार हैं, जोखिम लेने को तैयार हैं तो ऐसे रह सकते हैं। सुनने में भले ही यह अच्छा लगे कि इसमें आजादी है। लेकिन सच्चाई अलग है। हम सभी कहीं-न-कहीं बंधे रहना चाहते हैं। चाहे देश हो या परिवार। आजादी की बात अच्छी है, मगर यह अप्राकृतिक है। जिन लोगों ने आजादी के नाम पर एकल परिवार बनाए, अब वे बडे परिवार को मिस कर रहे हैं। कमिटमेंट जरूरी है, वरना तो साथ सफर करने वाले यात्रियों की तरह ही हैं आप। जब एक-दूसरे का सहारा न बन पाए तो साथ रहने का मतलब क्या है?

अमित कर्ण


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