जिंदगी गुलजार है...संजय-किरण
जिंदगी तब और भी हसीन हो जाती है, जब ऐसा हमसफर मिलता है, जो आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। कहीं लडख़ड़ाएं तो वह सहारा दे, गिरें तो संभाल ले और हर परेशानी को साझा करे। शादी के इसी अर्थ को सार्थक करते हैं संजय और किरण मिश्रा।
जिंदगी तब और भी हसीन हो जाती है, जब ऐसा हमसफर मिलता है, जो आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। कहीं लडख़डाएं तो वह सहारा दे, गिरें तो संभाल ले और हर परेशानी को साझा करे। शादी के इसी अर्थ को सार्थक करते हैं संजय और किरण मिश्रा।
अभिनेता संजय मिश्रा मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय कॉमेडियन हैं। 'दिल वाले', 'अतिथि तुम कब जाओगे', 'ऑल द बेस्ट' जैसी हिट फिल्मों में काम करने वाले संजय की जिंदगी का एक बडा हिस्सा ख्ाानाबदोश की तरह बीता। शादी में उनका यकीन नहीं था, पर शादी ने उनकी जिंदगी व्यवस्थित की। अब वह दो फूल सी बच्चियों के पिता हैं।
ख्ाुशियों से भर गई जिंदगी
संजय मिश्रा : शादी एक परंपरा है, जो इंसानियत को बढाती है। आप एक से दो और दो से चार होते हैं। दो परिवार मिलकर एक होते हैं। तकदीर मिलती है। बहुत सारी अच्छी चीजें भी होती हैं। अगर इस रिश्ते के प्रति सकारात्मक सोच है तो मेरा मानना है कि यहां दो लोग मिलकर एक या दो-तीन नहीं ग्यारह की ताकत के बराबर हो जाते हैं।
किरण मिश्रा : शादी इंसान की जिंदगी में घटने वाला सबसे हसीन वाकया है। उसे एक ऐसा भरोसेमंद साथी मिलता है, जो किसी और रिश्ते में मिलने से रहा। वह मर्द या औरत दोनों को पूर्ण बनाता है। दोनों कंपैनियन की तरह रहते हैं तो जिंदगी खुशियों से भर जाती है। बडे बुनियादी स्तर पर एक कम्युनिटी का सृजन होता है।
जरूरी है शादी का बंधन
संजय मिश्रा : आजादी और पर्सनल स्पेस के नाम पर हम अपनी मनमर्जी की जुगत में रहा करते हैं। हकीकत से भागते रहते हैं। परिवार हमें पलायनवादी बनाने से रोकता है। यहां की बॉण्डिंग हमें अनुशासित और व्यवस्थित बनाती है। मैंने काफी देर से शादी की, पर इसकी अहमियत अब मुझे समझ आ रही है। इसने मुझे परिवार से नवाजा है। अब समय से घर आने की एक ठोस वजह होती है।
किरण मिश्रा : मैं इनकी बातों से इत्तेफाक रखती हूं। आवारगी और बंजारेपन में आप हमेशा नहीं रह सकते। अकेलापन आपको नकारात्मक बना सकता है। एक अदद साथी चाहिए ही हर किसी को, जो जिंदगी के मायने सार्थक करे।
जिम्मेदारी से न डरें
संजय मिश्रा : आज की पीढी शादी से पहले काफी जांच-परख करती है। वह सुनिश्चित करना चाहती है कि शादी के बाद किसी िकस्म की समस्याएं न हों। लिहाजा लिव-इन में रहती है। पहले इसका स्वरूप अलग था। शादी करने वाले प्रत्यक्ष नहीं, अप्रत्यक्ष तौर पर कॉमन फ्रेंड या किसी और के जरिये एक-दूसरे को जानने-समझने की कोशिश किया करते थे। इसका अलग मजा है। असल में यह समझने की जरूरत है कि साथ रहने पर तू-तू, मैं-मैं अपरिहार्य है। आज की पीढी उसका दूसरा मतलब ले लेती है। शादी के बाद भी सृजन-क्रम जारी रहता है।
किरण मिश्रा : हिंदुस्तान अब भी उतना पश्चिमीकृत नहीं हुआ है कि कोई बाप शादी से पहले अपनी बेटी को किसी के साथ रहने दे। अच्छा यही है कि शादी करके साथ रहकर एक-दूसरे के बारे में सोचें-समझें। कई बार लडकियों के मुंह से यह भी सुनने को मिलता है कि उन्हें उनकी जिंदगी में किसी मर्द की जरूरत नहीं। अरे भई कैसे जरूरत नहीं? यह तो प्रकृति के नियम के ख्िालाफ है। शिव को नाम दिया गया है अद्र्धनारीश्वर। आधा नारी, आधा पुरुष। ऊपरवाले ने कुछ सोच-समझकर ही दो नस्लें बनाईं होंगी। हम कौन होते हैं उसे न मानने वाले?
रिश्तों में एडजस्टमेंट जरूरी
संजय मिश्रा : इस रिश्ते की ख्ाूबसूरती है कि चारों ओर प्यार और आदर के भाव होते हैं। सास-ससुर के संग रिश्ता एज पर चलता है। उनकी उम्र हो चुकी होती है। ऐसे में उन्हें हठ का हक होता है। यह जरूरी नहीं कि उनका हठ सही हो, पर ग्ालत भी हो तो उसे नजरअंदाज करना चाहिए। सलीके से उसे हैंडल करना चाहिए।
किरण मिश्रा : लडके का घर तो चेंज नहीं होता, लडकी का होता है। ऐसे में उसे थोडा वक्त लग जाता है अपनी ससुराल के संग तालमेल बिठाने में। उस बात को नेगेटिव नहीं लेना चाहिए। यह स्वाभाविक है। आप कैसे यह एक्स्पेक्ट कर सकते हैं कि बहू ससुराल में आते ही सब कुछ समझ जाए। बल्कि सास-ससुर को चाहिए कि वह अपनी बहू को इतना प्यार दें कि बहू बदले में उनका आदर करने लगे।
बेवजह दख्ालअंदाजी न हो
किरण मिश्रा : यह सवाल जरा टेढा है क्योंकि हम लोगों की जिंदगी में ऐसा कुछ हुआ नहीं। न मेरे माता-पिता, न इनके माता-पिता ने हमारी शादीशुदा जिंदगी में किसी भी िकस्म की दख्ालअंदाजी की। यह बातें पहले के दशक में होती थी, अब ऐसा नहीं है। युवा पीढी ख्ाुद ही बडी मच्योर है।
संजय : हम लोग प्रोटेक्टिव नजरिये को दख्ालअंदाजी समझ लेते हैं। हमारे माता-पिता का बुढापा कहां जाएगा? वह हक है उनका। कई बार मां-बाप भी अपने बेटे-बहुओं का दिल रखने के लिए चीजें करते हैं। मिसाल के तौर पर हम लोगों के यहां बहू के हाथ का खाना सास-ससुर को अच्छा नहीं लगता, फिर भी वे बहू के सामने खाने में मीन-मेख नहीं निकालते। भले ही बाद में आधी रात को छिपकर अपना बनाया खाना खाते हैं। कहने का मतलब यही है कि एडजस्ट करके चलते रहें तो आपकी जिंदगी हंसी-ख्ाुशी बीतेगी। मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। हम कभी-कभार ही उनकी बातें कर पाते हैं, पर मेरी मां की जुबान पर हमेशा उनकी चर्चा रहती है। मतलब यह कि जवानी में हम भले अकड में यह कह दें कि हम तो अकेले भी जी सकते हैं, मगर बुढापे में अकेले नहीं जिया
जा सकता।
आर्थिक सुरक्षा जरूरी
किरण : आज की चुनौतियों को देखते हुए फाइनेंशियल सिक्योरिटी जरूरी है। मेरा मानना है कि अगर आप आर्थिक रूप से स्थापित नहीं हैं तो शादी नहीं करनी चाहिए। दोनों में से एक का आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना जरूरी है।
संजय : मैं भी यही मानता हूं। विवाह एक पडाव है, उसमें कदम रखने से पहले पूरी मानसिक-भावनात्मक तैयारियां कर
लेनी चाहिए। जल्दबाजी में कोई ग्ालत निर्णय नहीं लेना चाहिए।
एक-दूजे के लिए
किरण : मेरे छोटे भाई-बहनों की शादी हो चुकी थी, मगर मैं शादी को हां नहीं कर रही थी। मेरे परिजन बहुत चिंतित थे। उनका तो कहीं आना-जाना दुश्वार हो गया था। मेरी मां ने हेमंत पांडे (कोई मिल गया फेम) से लडका ढूंढने को कहा था। उन्होंने इनका नाम सुझा दिया।
संजय : मेरी एक शादी सफल नहीं हुई थी। मैंने तय कर लिया था कि अब शादी नहीं करनी, पर पिताजी की मौत के बाद मैंने अपनी राय बदली। मैं मां को मुंबई ले आया था, मगर मेरी जिंदगी बंजारे की तरह थी। आखिरकार हेमंत पांडे के कहने पर किरण और उनके परिवार से मिला और फिर अब तक हम साथ हैं। 28 सितंबर 2009 को हमारी शादी हुई। आज दो बच्चों का बाप हूं। जिंदगी में सब ऑल इज वेल है।
अमित कर्ण