जिंदगी इम्तिहान लेती है
कई बार सीधी-शांत राह पर चलते-चलते एकाएक कोई अप्रत्याशित मोड़ आ जाता है। कुछ लोग घबरा जाते हैं, कुछ इसे पार कर जाते हैं। ऐसे समय में ही धैर्य और रिश्तों की परख होती है। ऐसी स्थितियों में कैसे संभालें खुद को और कैसे बचाएं रिश्तों को, बता रही हैं दिल्ली की रिलेशनशिप एक्सपर्ट डॉ. वसंता आर. पत्रे।
रिश्तों में कई बार ऐसे मोड आते हैं, जब धैर्य की परीक्षा होती है। विपरीत स्थितियों में व्यक्ति कैसे प्रतिक्रिया करता है, कैसे अपना भावनात्मक संतुलन बनाता है और कैसे आपसी रिश्तों को सहज बनाए रखता है, इसी से रिश्तों की असल परख होती है। परिस्थितियां अनुकूल होती हैं तो संबंध सहज रहते हैं और जीवन अपनी गति से चलता है। लेकिन व्यवस्थित जीवन में एकाएक अनचाहा-अप्रत्याशित मोड आ जाए तो थोडा झटका लगता है और कुछ पल के लिए जीवन थम सा जाता है। कुछ लोग धैर्य का परिचय देते हुए इस मोड से गुजर जाते हैं, मगर कुछ का संतुलन डगमगाने लगता है। ऐसी स्थिति सामने आए तो क्या करें, बता रही हैं एक्सपर्ट।
स्थिति 1
जब घर में आए नन्हा मेहमान
प्रभाव : नींद पूरी न होना, समय की कमी, चिडचिडाहट, खीझ, थकान, संबंधों पर असर।
एक्सपर्ट सलाह : यूं तो बच्चा ढेर सारी खुशियां लाता है, लेकिन बच्चे के आने के बाद स्थितियां बहुत बदल जाती हैं। बच्चे के साथ जिम्मेदारियां बढती हैं, पत्नी जो अब मां भी है-उसके लिए यह बडा संक्रमण-काल होता है। शोर होता है, नींद पूरी नहीं होती। मां का सारा समय बच्चे के लिए निर्धारित हो जाता है। ऐसी स्थिति में पत्नी से पहले जैसी अपेक्षाएं रखना नासमझी होगी। ऐसे में इस पहलू पर ध्यान देना होगा कि क्या बच्चे के आगमन की पूरी मानसिक तैयारी की है? अगर हां, तो उसकी स्वीकार्यता होगी और जिम्मेदारी लेने के लिए दंपती तैयार भी होगा। यह सच है कि बच्चे का जन्म दंपती के जीवन का बडा बदलाव है। इस स्थिति से बचने का कोई विकल्प नहीं है। बच्चे के लिए स्पेस चाहिए, वक्त और सबका सहयोग चाहिए। जब कभी चिडचिडाहट, ग्ाुस्सा या थकान महसूस हो, बच्चे का चेहरा देखें, उसका मुस्कराता चेहरा सारा स्ट्रेस दूर कर देगा। बच्चा जीवन में सकारात्मकता लाता है, जिम्मेदारी का एहसास कराता है। जीवन में हुए इन सकारात्मक बदलावों पर ध्यान केंद्रित करें तो समस्याएं कम हो जाएंगी।
स्थिति 2
जब बुजुर्ग हो बीमार
प्रभाव : अत्यधिक खर्च, करियर पर ध्यान न दे पाना, थकान, चिंता, दबाव।
एक्सपर्ट सलाह : ऐसी स्थिति में अपने दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। यह ऐसी परेशानी है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हर व्यक्ति एक दिन वृद्ध होता है और वृद्धावस्था के साथ कई बीमारियां भी घेरती हैं। जिम्मेदारी है तो निभानी ही होगी, बुजुर्गो के साथ सेहत संबंधी समस्याएं लगी रहती हैं, इसलिए अपने मासिक बजट का एक हिस्सा बुजुर्गो के लिए बचा कर रखें, ताकि इमरजेंसी में आर्थिक परेशानी न हो। उनकी मेडिक्लेम पॉलिसीज चालू रखें और उनकी स्वास्थ्य जांच भी नियमित कराते रहें। एक टाइम-टेबल बनाएं। घर के हर सदस्य की जिम्मेदारी तय करें और जरूरत पडने पर रिश्तेदारों-संबंधियों की भी मदद लें। यह सच है कि बीमारी हर संसाधन पर प्रभाव डालती है। इसमें काफी पैसे, समय, ऊर्जा और श्रम की खपत होगी। लेकिन भारतीय संस्कार कई परेशानी से उबारते भी हैं, जिनमें बुजुर्गो की सेवा को परम धर्म माना गया है।
स्थिति 3
जब कोई नौकरी खो दे
प्रभाव : असुरक्षा, मनोबल कम होना, पैसे की कमी, ख्ालीपन, सामाजिक उपेक्षा और पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह की चिंता।
एक्सपर्ट सलाह : यह एक अप्रत्याशित परिस्थिति है, जिसमें व्यक्ति बुरी तरह हिल जाता है। आर्थिक मंदी के दौर में जब पूरे संसार में संबंध टूटने के कगार पर पहुंच रहे थे, भारतीय परिवार सिर्फ अपनी बचत की आदत और संस्कारों के कारण एक-दूसरे से जुडे रहे। सबसे पहली बात यह समझने की है कि यह किसी की ग्ालती नहीं है कि उसकी नौकरी चली गई। इसलिए रिश्तों में कोई ब्लेम-गेम न खेलें। शांत रहें, बैठ कर सलाह-मशविरा करें। पूरे परिवार को एकजुट करें, जिसमें बच्चे भी शामिल हों। सोचें कि एक की तनख्वाह कम आने से घर के बजट पर कहां-कहां प्रभाव पडेगा और जिस व्यक्ति ने जॉब खोई है, उसे कैसे सहयोग-सुविधा दे सकते हैं। माता-पिता से भी मदद लेने के बारे में सोच सकते हैं। घर-ख्ार्च में कटौती करें, बच्चों से भी पूछें कि उनके कौन से ख्ार्च कम किए जा सकते हैं। पेट्रोल, मनोरंजन, घरेलू हेल्पर के ख्ार्च कम किए जा सकते हैं। यह एक रुटीन ब्रेक है। कई बार दूसरी राहें तभी खोजी जाती हैं, जब सामने कंफर्ट जोन नहीं होता। यह एक सकारात्मक बात है। अचानक आने वाली स्थितियां व्यक्ति को दूसरी दिशा में सोचने का मौका देती हैं। सोच सकारात्मक हो तो हर कार्य किया जा सकता है। थोडी तकलीफ होती है, धीरे-धीरे जीवन सामान्य हो जाता है।
स्थिति 4
जब दूसरे शहर में हो तबादला
प्रभाव: नई स्थितियों में सामंजस्य बिठाने की चिंता, बच्चों के स्कूल-कॉलेज या फ्रेंड-सर्कल की चिंता, पारिवारिक व्यवस्था का अस्तव्यस्त होना, थकान, बेचैनी।
एक्सपर्ट सलाह : नई स्थितियां, नया मौका, नया परिवेश और नया माहौल..। लेकिन गिलास आधा भरा है या आधा खाली है, यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। कुछ लोग कंफर्ट जोन के ख्ात्म होने पर परेशान और चिंतित होते हैं, कुछ इसे चुनौती मान कर इसका सामना करते हैं। नए शहर में जाने पर नया माहौल मिलता है और नए रिश्ते बनते हैं। नई स्थितियों को लेकर चिंता स्वाभाविक है, लेकिन दूसरे शहर में जाने से पहले उसके बारे में सभी जरूरी जानकारियां ले लें। जिस तरह किसी यात्रा पर जाने से पहले लोग उस जगह के बारे में तमाम जानकारियां हासिल करते हैं। इसी तरह दूसरे शहर में जाने से पहले भी वहां की जलवायु, लोगों, भाषा और संस्कृति के बारे में जानकारी एकत्र करें। ख्ाुद को मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार रखें कि वहां की भाषा सीखनी है, लोगों से मेलजोल बढाना है, वहां की लाइफस्टाइल के बारे में जानकारी हासिल करनी है। इस योजना के साथ दूसरे शहर या देश में जाएंगे तो मुश्किल नहीं होगी।
स्थिति 5
सास-ससुर साथ रहने आएं
प्रभाव : दबाव, प्राइवेसी ख्ात्म होने का डर, जिम्मेदारी बढना, एडजस्टमेंट की चिंता, आजादी में बाधा महसूस करना।
एक्सपर्ट सलाह : हर जिम्मेदारी शुरू में थोडी तकलीफदेह महसूस होती है, धीरे-धीरे इसकी आदत पड जाती है। सबसे पहली चीज है एडजस्टमेंट। बुजुर्ग माता-पिता साथ रहने आए हैं तो उन्हें उनका स्पेस दें और ख्ाुद के लिए भी स्पेस लें। शुरू में ही जो व्यवस्था बनाएंगे, वही हमेशा लागू रहेगी। पति-पत्नी मिल कर विचार-विमर्श करें कि माता-पिता के आने से जो जिम्मेदारियां बढेंगी, उनका निर्वाह दोनों कैसे करेंगे। घरेलू काम बांटें। किसी भी तरह का दिखावा न करें। अगर माता-पिता परंपरागत सोच वाले हैं और बहू नौकरीपेशा तो कई बार पहनावे और रहन-सहन को लेकर नोकझोंक होने लगती है। ऐसे में स्पष्ट करें कि माता-पिता के प्रति आपके मन में पूरा सम्मान है, लेकिन आधुनिक पहनावा सुविधा और समय बचाने के लिहाज से सही है। कुछ प्रॉब्लम्स को नजरअंदाज करना सीखें। अपनी हिचक कम करें, माता-पिता का पूरा ख्ायाल रखें, ताकि वे भी आपकी आजादी का सम्मान करें।
स्थिति 6
जब बच्चे जाएं बाहर
प्रभाव : खालीपन, तनाव-अवसाद, अकेलापन, सुरक्षा की चिंता।
एक्सपर्ट सलाह : बच्चों के बाहर जाते ही सबसे पहले एक एंप्टीनेस सिंड्रोम घेरता है। इस स्थिति से केवल यही सोच उबार सकती है कि बच्चे हमेशा साथ नहीं रहेंगे। उनकी चिंता अच्छी बात है, लेकिन अत्यधिक चिंता न सिर्फ आपका मानसिक दबाव बढाएगी, बल्कि बच्चों की परेशानी भी बढाएगी। अपने शौक जगाएं, दोस्तों से मिलें-जुलें। समाज-सेवा करें, घर पर रहते हैं तो जरूरतमंद बच्चों को पढाना शुरू कर दें। कोई स्किल है तो उसका इस्तेमाल करें। सोचें कि कौन से ऐसे शौक या काम हैं, जिन्हें जीवन भर व्यस्तता के कारण नहीं कर सके, अब उन्हें पूरा करने का भरपूर समय है। गाना सीखें, पेंटिंग करें, किताबें पढें, नियमित वॉक पर जाएं, व्यायाम करें, ध्यान करें, घूमें और मनचाहे काम करें।
माता-पिता हमेशा बच्चों के साथ नहीं रह सकते, इस विचार को मन से स्वीकारना जरूरी है, तभी अकेलापन कम होगा।