बचपन की सहेली
कहानी के बारे में : हमारे आसपास ऐसे कई परिचित होते हैं, जो असाध्य बीमारी से जूझ रहे हैं। दवाओं की ही तरह दुआएं भी अपना असर दिखाती हैं। मरीज को स्नेह, प्यार और सकारात्मक माहौल मिले तो उसे ठीक होने में बहुत मदद मिलती है। लेखक के बारे में : दिल्ली यूनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन और बीएड, पेशे से अध्यापिका। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। सामाजिक विषयों और संबंधों के विविध आयामों पर लिखना पसंद है। संप्रति : हैदराबाद में रहकर लेखन।
By Edited By: Published: Thu, 17 Nov 2016 01:36 PM (IST)Updated: Thu, 17 Nov 2016 01:36 PM (IST)
अपार्टमेंट में मेरे घर के सामने वाले खाली मकान की सफाई होने लगी तो मैं समझ गई कि उसमें कोई रहने के लिए आने वाला है। यह सोच कर मुझे बेहद खुशी हो रही थी कि कोई आ जाएगा तो बेटे और पति के ऑफिस जाने के बाद जो अकेलापन महसूस होता है, वह कुछ तो भर जाएगा, लेकिन कोई नौकरी वाली हुई तो! सामने वाला बंद दरवाजा मुझे फिर से मुंह चिढाएगा। मन ही मन बुदबुदाने के बाद अपनी सोच को मैंने झटक दिया। यह अपार्टमेंट नया बना था। आसपास के मकानों में गिनती के लोग थे। ज्यादातर घरों में दंपती नौकरीपेशा थे, लिहाजा लिफ्ट में आते-जाते उनकी शक्ल भर दिख जाती थी, इससे अधिक कुछ नहीं। हम भी अपना घर छोड कर इस घर में इसलिए शिफ्ट हुए थे क्योंकि मेरे बेटे का ऑफिस यहां से नजदीक पडता था। सच यह था कि अपने घर को छोड कर एक अजनबी जगह पर आने के बाद मेरा मन यहां बिलकुल नहीं लगता था। सामने वाले घर में रहने वाला परिवार आने लगा तो मैंने खिडकी से झांक कर जायजा ले लिया कि कितने लोग हैं और किस उम्र के हैं? अपनी हमउम्र एक स्त्री को देख कर मुझे बहुत खुशी हुई, जो एक युवती का हाथ पकड कर चल रही थी। शायद वह कुछ बीमार होगी, मन ही मन मैंने सोचा। पडोसी धर्म निभाने के बहाने सोचा कि चाय बना कर उनके घर ले जाऊं और पूछूं कि किसी चीज की जरूरत तो नहीं है? यह विचार आते ही मैं झटपट किचन में घुसी और चाय बना कर सामने वाले घर की बेल बजा दी। दरवाजा उसी युवती ने खोला। मैंने चाय की ट्रे पकडाते हुए पूछा कि लंच तैयार कर दूं तो वह शुक्रिया कहते हुए बोल पडी, 'अरे नहीं आंटी, हम कहीं बाहर से नहीं आए हैं। हम तो यहीं पास में रहते रहे हैं, इसलिए कोई समस्या नहीं है। हम साथ में खाना बना कर लाए हैं, आप तकलीफ न करें। अगर किसी चीज की जरूरत होगी तो जरूर बताएंगे। मेरा उनके घर जाना शायद उनके लिए अप्रत्याशित था, इसलिए वे सभी कुछ अचंभित मुद्रा में मुझे देख रहे थे। ऐसा शायद अपार्टमेंट कल्चर के खिलाफ भी है। इसलिए स्वाभाविक था कि वे आश्चर्य से देखते। मैंने चारों ओर दृष्टि दौडाई तो वह प्रौढ सी स्त्री नहीं दिखाई दी, जिसका हाथ पकड कर युवती ला रही थी। हो सकता है, दूसरे कमरे में आराम कर रही हो। इतनी जल्दी पूछताछ करना भी ठीक नहीं। पहली मुलाकात में इतना अनौपचारिक नहीं होना चाहिए, यही सोचते हुए मैं अपने घर वापस लौट आई। दो-तीन दिन बाद वही युवती फिर से सामने दिखी तो हाथ जोड कर नमस्ते किया। मैंने पूछा, 'कैसी हो बेटी? उस दिन तो तुम्हारा नाम भी नहीं पूछ पाई थी। नाम क्या है तुम्हारा? घर व्यवस्थित कर लिया' वह मुस्कुराते हुए बोली, 'हां आंटी, मेरा नाम सुमन है...,' उसकी बात बीच में ही काटती हुई मैं बोल पडी, 'अच्छा, तो क्या वह तुम्हारी मां थीं...?' वाक्य अधूरा ही छोड कर मैं प्रश्नवाचक मुद्रा में उसके सामने खडी हो गई तो वह बोली, 'नहीं आंटी, वह मेरी सास हैं..।' 'अच्छा....क्या उनकी तबीयत खराब है? उस दिन तुम उनका हाथ थामे हुए ला रही थीं न...,' मैंने तुरंत पूछा। पूछने के साथ ही मन ही मन खुद को कोसा कि क्या जरूरत थी मुझे यह बेवकूफी भरा सवाल करने की? उसके उत्तर की प्रतीक्षा न करते हुए मैं बोली, 'ठीक है बेटा, मिलते हैं...।' उसके चेहरे के भाव भी जाहिर कर रहे थे कि मेरे इस अचानक पूछे गए सवाल से वह असहज हो गई है। इस मुलाकात को दस दिन हो गए और सामने वाले घर में वह स्त्री मुझे न दिखी तो थोडी उत्सुकता सी हुई। खुद को रोक न सकी तो झिझकते हुए एक दिन वहां चली ही गई और डोरबेल बजा दी। दरवाजा फिर से सुमन ने खोला, 'अरे आइए आंटी....।' ड्रॉइंग रूम में कोई नहीं दिख रहा था। मैंने पूछा, 'तुम्हारी मम्मी कहां हैं? मैं तो उन्हीं से मिलने आई हूं। मेरा प्रश्न सुनकर वह थोडा अचकचाई और बोली, 'आप बैठिए, मैं अभी आती हूं...।' कुछ ही देर में वह लौटी और बोली, 'चलिए आंटी, मैं आपको मम्मी के कमरे में लिए चलती हूं।' कमरे में थोडा अंधेरा सा था और उसकी सास बिस्तर पर लेटी हुई थीं। पास में ही एक कुर्सी रखी थी। उन्होंने इशारे से मुझे उस पर बैठने को कहा और थोडा अधलेटी सी हो गईं। सुमन ने आकर लाइट जला दी। कमरे में रोशनी फैलते ही वह लगभग चीखती हुई सी बोलीं, 'सुषमा तुम!' मैं भी अपना नाम सुनकर बुरी तरह चौंक गई और उसे पहचानने की कोशिश करते हुए बोली, 'अरे प्रभा! तुम....? तुमने यह क्या हालत बना ली है? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी दुबली कैसे हो गई?' मेरा इतना पूछना था कि वह सुबकते हुए मेरे गले लग गई। हम दोनों ही अपनी भावनाओं को काबू में न कर सके। मैं बचपन की इस सहेली से न जाने कितने वर्षों बाद मिल रही थी। हम दोनों काफी देर तक खामोश आंसुओं में नहाए एक-दूसरे से लिपटे रहे। इसके बाद मैंने खुद को अलग किया और बोली, 'परेशान मत हो प्रभा। मैं हूं न, हर समस्या का समाधान होता है। मैं आती रहूंगी। अब मैं तुम्हारी देखभाल करूंगी...।' आगे कुछ पूछने की मेरी हिम्मत न हुई। थोडी देर तक हम दोनों चुपचाप कुछ सोचते रहे, फिर मैंने ही पहल की, 'देखो प्रभा, क्या तुमने कभी सोचा था कि तीस साल बाद एकाएक किसी दिन हम यहां ऐसे मिल जाएंगे? यह भी सुखद संयोग है कि हम तब मिले, जब शायद हमें एक-दूसरे की सबसे ज्यादा जरूरत है। ऊपर वाले ने किसी मकसद से ही तुमसे मिलवाया है मुझे।' प्रभा ने भी मेरी बात पर सहमति भरी। मैंने उससे प्यार से कहा, 'अच्छा, अब मैं रोज सुबह-शाम तुम्हें देखने आऊंगी। देखना तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी।' मेरे इतना कहने पर उसके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान तैर गई। 'शाम को फिर मिलती हूं...,' कहते हुए मैंने उससे विदा ली। मैं घर लौटी ही थी कि सुमन मेरे पीछे-पीछे ही घर आ गई। उसे अचानक यूं आते देख मुझे थोडा आश्चर्य हुआ। वह मेरा हाथ पकड कर सोफे पर बैठते हुए बोली, 'आंटी, मुझे बहुत खुशी है कि आप मम्मी को पहले से जानती हैं। इसलिए आपको तो यह बताना ही होगा कि उन्हें कैंसर है...।' 'ओह....मैं उसकी हालत देखते ही समझ गई थी कि वह ज्यादा बीमार है।' सुमन फिर बोली, 'जब से उन्हें अपनी बीमारी के बारे में पता चला है, वह बिस्तर से हिलना ही नहीं चाहतीं। उनके मन में इच्छा-शक्ति की बेहद कमी है। डॉक्टर्स लगातार कह रहे हैं कि उन्हें खुद को मजबूत बनाना होगा, क्योंकि अभी बीमारी सेकंड स्टेज पर नहीं पहुंची है और इलाज संभव है, केवल उन्हें इसके लिए खुद को तैयार करना होगा। अब देखिए न, आजकल डॉक्टर्स मरीज से कुछ छिपाते नहीं हैं। उन्होंने जैसे ही मम्मी को उनकी बीमारी के बारे में बताया, वह घबरा गईं और उन्होंने सारे रिश्तेदारों को यह बात बता दी। इसके बाद से घर पर लोगों का तांता लग गया....कुल मिला कर यह हुआ कि जितने लोग आए, उन्होंने किसी न किसी तरह मम्मी का मनोबल तोडऩे का ही काम किया। कोई कहता कि कैंसर से कोई नहीं बच सकता तो कोई मेरे प्रति सहानुभूति जताने लगता कि मुझ बेचारी को अभी से सास की सेवा करनी पड रही है। जितने मुंह उतनी बातें। सबके पास कोई न कोई धारणा या सलाह होती उन्हें बताने के लिए। इस तरह की बातें सुन-सुन कर मां की रही-सही शक्ति भी चली गई। हमने मां को बहुत समझाया, साथ ही लोगों को किसी न किसी बहाने टालना शुरू कर दिया ताकि कोई उनसे मिले ही नहीं। फिर भी कोई न कोई तो मिलने पहुंचता ही था। इसीलिए बिना किसी को बताए हमने वह घर बदल लिया ताकि नए माहौल में मम्मी खुद को थोडा मजबूत बना सकें और अपनी बीमारी से जूझने को तैयार हो सकें। अब देखिए न, आपके आते ही वह कितनी खुश हो गईं। उन्हें यही तो चाहिए था इस वक्त...। वह आपकी बचपन की सहेली हैं, इसलिए आपकी सारी बातें समझ सकती हैं। आप ही उन्हें बेहतर ढंग से समझा सकती हैं। मुझे आपके यहां होने से बहुत सुकून मिला है। शायद ईश्वर ने आपको हमारी मदद करने ही भेजा है। प्लीज, अब आप आते-जाते रहिएगा ताकि मां का हौसला बना रहे...।' 'अरे बेटा, इसमें प्लीज कहने की क्या जरूरत है? वह मेरी दोस्त है, उसके किसी काम आ सकूं, इससे बडा और क्या सौभाग्य होगा मेरे लिए? तुम्हें पता है, मुझे उससे मिल कर कितनी खुशी हुई है....मुझे यहां बेहद अकेलापन लगता था, अब प्रभा आ गई है तो उससे बातें करके मेरा अपना अकेलापन भी कम होगा। तुम बिलकुल चिंता न करो, अब मैं पडोस में हूं, जब कहोगी, हाजिर हो जाऊंगी...।' मैंने सुमन को दिलासा दिया तो वह बेहद संतुष्ट सी नजर आई। मैं शाम को फिर प्रभा के घर पहुंच गई और हमने उस दिन ढेर सारी बातें की। बचपन की न जाने कितनी बातें मुझे और उसे याद आने लगी थीं और हम एक-एक कर उन्हें दोहरा रहे थे। उस दिन हम इतना हंसे कि पेट और चेहरा दुखने लगा था। याद आया पिछले कई वर्षों में शायद हम इतना नहीं हंसे थे। जितनी देर मैं प्रभा के साथ रही, उससे बातें करती रही, न उसने बीमारी का नाम लिया और न ही उसे कोई दर्द महसूस हुआ। परिवार वाले भी प्रभा को ऐसे प्रसन्न होते देख राहत की सांस ले रहे थे। मेरे आते ही उसकी आधी बीमारी दूर हो गई थी। मैं उससे रोज मिलने लगी। मुझे देखते ही प्रभा के चेहरे पर चमक आ जाती थी और वह मेरा इंतजार करती थी। मैं और प्रभा बचपन में पडोसी थे। दोनों ही उम्र के उस दौर में थे, जहां दोस्त ही सब कुछ नजर आने लगते हैं। हमने तो पढाई भी एक ही स्कूल और कॉलेज से की, लिहाजा हमारी दोस्ती भी पक्की होती गई मगर फिर उसके पापा का ट्रांस्फर हो गया। कुछ दिन फोन पर हमारा संपर्क बना रहा, फिर हम अपनी-अपनी जिंदगी में मसरूफ होते गए। दोनों की शादी हो गई तो संपर्क का एकमात्र सूत्र फोन नंबर भी बदलता गया। अब तीस साल बाद मैं उससे मिली तो न जाने कितनी कही-अनकही बातें याद आने लगीं। मैं रोज दिन में दो बार उससे मिलने जाती और हम खूब बातें करते, जोक्स सुनाते और कहानियां पढते। मैंने पाया, कुछ ही दिनों में उसके चेहरे पर जीवन की छाप फिर से दिखाई देने लगी थी। दवाएं अब अपना असर दिखा रही थीं। मैं हर बार उसके साथ डॉक्टर के यहां जाती। धीरे-धीरे वह बिस्तर से उठने लगी और सुबह-शाम मेरे साथ थोडी देर वॉक भी करने लगी। उसमें सेहत के लक्षण नजर आने लगे थे। ....फिर एक दिन जब दोबारा सारे टेस्ट हुए तो हम ही नहीं, डॉक्टर्स भी हैरान हो गए। सकारात्मक दृष्टिकोण और ट्रीटमेंट का असर उसकी सेहत पर साफ दिखाई दे रहा था। डॉक्टर्स को उम्मीद की किरण नजर आने लगी थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि वह कैंसर को मात देंगी। प्रभा के परिवार के सभी लोग मुझे धन्यवाद देने लगे मगर मैं तो अपनी बचपन की प्रिय दोस्त को स्वस्थ देख कर ही खुश थी। यह सब उसके परिवार की सेवा और मेरे प्यार के कारण ही नहीं, प्रभा की इच्छा-शक्ति के कारण भी संभव हो सका। यदि वह सकारात्मक न होती तो बीमारी भी उसे जकडे रहती...। वर्ष 1963 से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं अपूर्बा पाल, कई वर्ष आर्ट टीचर के रूप में कार्यरत, फिलहाल एक संस्थान में प्रधानाचार्य। कई एकल व समूह कला-प्रदर्शनियां आयोजित, देश-विदेश में कलाकृतियों का संग्रह। संप्रति : कोलकाता में निवास।
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