Move to Jagran APP

जाड़ों की नर्म धूप और....

सर्दियों के साथ कई खुशनुमा यादें जुड़ी होती हैं, जिन्हें हम किसी न किसी बहाने दोबारा जीना चाहते हैं। यहां सखी की पाठिकाएं इस सुहाने मौसम से जुड़ी कुछ ऐसी यादें बांट रही हैं आपके साथ।

By Edited By: Published: Wed, 09 Nov 2016 12:05 PM (IST)Updated: Wed, 09 Nov 2016 12:05 PM (IST)
जाड़ों की नर्म धूप और....
एक मौसम के रंग हजार, लोगों के अपने चश्मे, अपनी नजर और हर मौसम की अलग तासीर। थोडा सा आलस्य देती गर्मियों की दुपहरी, रिमझिम फुहारों से तन-मन को सुकून देती बारिश और सर्दियों का मौसम...। बदलाव प्रकृति का नियम है। हर मौसम की अपनी खूबियां हैं। सर्दियों में धूप में बैठकर बुनाई, चाय की चुस्कियों के साथ गपशप और शाम ढलने पर अलाव के आसपास बैठकर आग तापते हुए दिलचस्प किस्से-कहानियों की साझेदारी अब बीते जमाने की बात हो गई। वक्त बदल रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अब न तो वैसी कडाके की ठंड पडती है और न ही लोगों के पास इतनी फुर्सत है कि वे इस मौसम का लुत्फ उठा सकें। सुहानी सर्दियां अब केवल यादों में सिमटकर रह गई हैं। आइए रूबरू होते हैं कुछ ऐसे ही खूबसूरत लमहों से...। वे भी क्या दिन थे( आनंदमयी नोएडा) आज के जमाने में लोगों के पास अत्याधुनिक सुख-सुविधाएं मौजूद हैं। इसलिए अब हमारे जीवन पर पहले की तरह मौसम का असर दिखाई नहीं देता। उन दिनों ज्य़ादातर संयुक्त परिवार होते थे और घरों में मेहमानों का आना-जाना लगा रहता था। सर्दियों के दिन वैसे भी छोटे होते हैं। लिहाजा सुबह से शाम तक लगातार चूल्हा जलता रहता था क्योंकि नाश्ता-खाना बनाने के साथ नहाने का पानी भी चूल्हे पर गरम होता था। एक छोटे चूल्हे पर चाय की केतली हमेशा चढी रहती थी क्योंकि पहले ऐसा माना जाता था कि केतली में चाय की खुशबू सुरक्षित रहती है। धूप में बैठकर बातें करते हुए मटर छीलना, गोंद और तिल के लड्डू बनाना जैसे कार्य तब स्त्रियों के रूटीन वर्क में शामिल थे। इसमें भले ही ज्य़ादा मेहनत लगती हो पर इनका भी अलग ही सुख था। पहले हाथों से स्वेटर बुनने का चलन था। इसलिए उस जमाने में स्त्रियां जहां भी जातीं, उनका निटिंग बैग हमेशा उनके साथ होता था। अब समय बदल गया है। तब सुविधाएं सीमित थीं, लोगों के पास जो भी था, वे उसी में खुश रहते थे। अब बाजार में जरूरत की सारी चीजें उपलब्ध हैं। आज की लडकियां जॉब करती हैं। व्यस्तता की वजह से उनके पास ऐसे कार्यों के लिए वक्त नहीं होता। समय के साथ यह बदलाव भी स्वाभाविक है और पुरानी पीढी को इन्से सहजता से स्वीकारना चाहिए। नहीं भूलती वो सुहानी सुबह( जोयिता रॉय, मैसूर) मुझे हमेशा से ही सर्दियों का मौसम बहुत पसंद है। वैसे तो मैं बंगाली हूं लेकिन मेरा होमटाउन कानपुर है। नौ साल पहले मेरे पति का ट्रांस्फर मैसूर हो गया, तब से मैं यहीं हूं। यहां साल भर एक ही जैसा संतुलित मौसम रहता है, जिससे कई बार हमें बोरियत होने लगती है। मैं कानपुर की सर्दी को बहुत मिस करती हूं। इस मौसम में वहां सुबह के वक्त ताजा मक्खन-मलाई खाने का चलन है, जिसका स्वाद लाजवाब होता है। उसे खाने के लिए दुकान पर ही जाना पडता है क्योंकि कुछ घंटे के बाद इसका स्वाद बिगडऩे लगता है। हमारे घर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर शिवालय मार्केट में मक्खन-मलाई की एक दुकान थी। कडाके की ठंड में हर संडे सुबह सात बजे मैं अपने पति के साथ वहां जाती थी। सच, सर्दियों की धुंध भरी सुबह में बाइक की उस राइड की बात ही कुछ और थी। हमारे घर के सामने वाले हिस्से में बहुत सुंदर गार्डन था, सर्दियों में अकसर वहां पिकनिक का आयोजन होता था। आंगन में खाट बिछी होती थी,ए जब बच्चे स्कूल से लौटते तो मैं वहीं धूप में बैठकर उनका होमवर्क करवाती थी। कई बार वहां तापमान शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता था। ऐसे मौसम में शाम के वक्त अंगीठी जला कर हम उसमें शकरकंद, आलू और मटर की फलियां भूनते। आग के पास बैठकर गपशप करते हुए हम इस देसी स्वाद का लुत्फ उठाते थे । मिट्टी की वह सोंधी खुशबू (रजनी वालिया कपूरथला) मेरा बचपन कपूरथला जिले के कालासंघ्या गांव में बीता है। मेरे जेहन में अपने गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू आज भी रची-बसी है। तब लोगों के पास फुर्सत होती थी। इसलिए सर्दियों का लुत्फ भी कुछ और ही था। सुबह खेतों से ताजा सरसों का साग आता और स्त्रियां चारपाई पर बैठकर साग काटने-बीनने में जुट जातीं। फिर उसे धीमी आंच पर तीन-चार घंटे तक पकने के लिए छोड दिया जाता। उसके साथ मक्के की रोटियां बनतीं और कुछ रोटियों को घी में डुबाने के बाद उन्हें हाथों से मसलकर बारीक चूरमा बनाया जाता और उसमें गुड की शक्कर मिलाकर उसे छोटे-छोटे लड्डुओं का आकार दिया जाता। तब हमारा सारा समय चूल्हे के आसपास बीतता। उन दिनों हमारे गांव में गाजर से खास तरह की स्वीट डिश बनती थी, जिसे गजरेला कहा जाता था। उसका मजा गर्मागर्म खाने में ही आता था। हमारे गांव में मकई के दाने भुनने वाली कई भट्टियां थीं, जहां बैठी स्त्री उन्हें भुनने का काम करती थी। शाम के वक्त जब भी कुछ नमकीन खाने का मन होता तो हम उसकी दुकान पर मकई के दाने ले जाते। अपने काम के बदले में वह स्त्री उन्हीं दानों का एक हिस्सा रख लेती। उसे पूरे गांव की खबरें मालूम होती थीं। तब गांव में टीवी और अखबार की पहुंच नहीं थी। इसलिए जब लोगों को इधर-उधर की बातें करने का मन होता, वे दाने भुनाने के बहाने बीजी की दुकान पर चले जाते। पहले हम फुर्सत में बैठकर धूप सेंकते थे पर आजकल टीवी और इंटरनेट की वजह से लोग घरों से बाहर नहीं निकलते। आजकल मैं एक बडा बदलाव यह भी देख रही हूं कि पहले लोग ठंड से बचने के लिए सिर और कान ढक कर रखते थे पर अब इसे ओल्ड फैशन माना जाता है। बचपन के सुहाने दिन (गायत्री ठाकुर छिंदवाडा) सर्दियों में मुझे अपने बचपन की बहुत याद आती है। मेरे पिता फॉरेस्ट रेंजर थे। तब उनकी पोस्टिंग मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के बिरसा गांव में थी। वहां घर के सामने ढेर सारी खुली जगह थी, जिसे जंगली फूलों के फेंस से घेर दिया गया था। उसी कैंपस के एक हिस्से में एक चबूतरे पर मिट्टी का चूल्हा था। उसे बारिश से बचाने के लिए उसके ऊपर फूस की छप्पर भी डाली गई थी। वहां कई घरेलू सहायक थे। तब सर्दियों की रात में चूल्हे के पास बैठकर बैंगन के भुरते के साथ गरमागरम रोटियां खाने में जो आनंद था, वह फाइव स्टार होटल की महंगी डिशेज में भी नहीं मिलता। सर्दियों में हरा धनिया भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जिसे वहां संभार कहा जाता है। तब वहां इससे संभार वडा नामक नमकीन व्यंजन बनाया जाता था। इसके लिए बेसन और आटे को एक साथ गूंध कर उसके भीतर भुना प्याज, घिसा नारियल, पोस्ता दाना, नमक-मिर्च और बारीक कटा हरा धनिया मिला कर भरावन तैयार किया जाता है और उसे आटे की लोई के बीच में भरकर स्टीम देने के बाद डीप फ्राई किया जाता है। तब आज की तरह सुख-सुविधाएं नहीं थीं। बचपन में मां को देखकर जब हम भी बुनाई सीखने की जिद करते तो वह हमें साइकिल के स्पोक (पहियों के बीच लगी पतली तारें) पर पुराने ऊन के फंदे डालकर स्वेटर बुनना सिखाती थीं। अब न तो वैसी फुर्सत है न ही लोगों में उतनी सरलता। सर्दियों का वह सुहाना मौसम मुझे आज भी बहुत याद आता है। सुकून से बुनाई का सुख (अंजना वाही देहरादून) लगभग चालीस साल पहले की बात है, तब मेरे पति की पोस्टिंग बद्रीनाथ के पास स्थित घोलतीर नामक गांव में थी। हमारे घर के सामने अलकनंदा नदी बहती थी। जंगल से घिरे उस छोटे से गांव का प्राकृतिक सौंदर्य बेमिसाल था। दोपहर के वक्त पास-पडोस की सारी स्त्रियां कुर्सियां निकालकर धूप में बैठ जाती थीं। सभी के हाथों में ऊन और सलाइयां होतीं और एक-दूसरे से बुनाई के नए पैटर्न सीखने की होड सी लगी रहती। वहां हमारे सरकारी बंगले के कैंपस में चकोतरे (ग्रेप फ्रूट) का पेड था, जो सर्दियों में फलों से लदा रहता था। मूली और कच्चे पपीते को घिस कर खट्टे-मीठे चकोतरे के साथ बडी स्वादिष्ट चटनी तैयार की जाती। आलू-मटर की सब्जी के साथ लकडी के चूल्हे पर सिंके गरम फुल्कों में जो स्वाद होता था, उसे याद करके आज भी मुंह में पानी आ जाता है। प्रस्तुति : विनीता

Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.