मरीज की मुस्कान ही मेरा रिवॉर्ड है: डॉ. सावित्री श्रीवास्तव
दिल्ली स्थित फोर्टिस एस्कॉर्ट हार्ट इंस्टीट्यूट में पीडियाट्रिक कार्डियोलॉजी की डायरेक्टर एवं हेड डॉ. सावित्री श्रीवास्तव की एक अलग पहचान है। उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा दो बार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बार लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला है। वह भारत में बलून मिट्रल टेक्नीक की चैंपियन हैं। सखी की संपादक प्रगति गुप्ता ने उनसे की एक खास मुलाकात।
कभी डॉक्टर बनने का सपना देखा था एक दुबली-पतली बच्ची ने। इस राह में कई मुश्किलें आई, मगर हर बाधा व भेदभाव से जूझ कर मेहनत एवं समर्पण के साथ उसने अपनी पहचान बनाई। आज उम्र के सत्तरवें पडाव पर भी डॉ. सावित्री श्रीवास्तव मुस्तैदी से अपने काम में जुटी हैं। उनका पूरा जीवन बच्चों में जन्मजात कार्डिएक प्रॉब्लम्स को दूर करने के लिए समर्पित है। सहज-सरल व विनम्र स्वभाव की डॉ. सावित्री मानती हैं कि मरीज के चेहरे पर मुस्कान से ही उन्हें सच्ची खुशी मिलती है। मिलते हैं उनसे।
डॉ. सावित्री, एक ऐसे दौर में जब लडकियां प्रोफेशनल फील्ड में बहुत कम थीं, आप मेडिकल प्रोफेशन में कैसे आई? क्या आप बचपन से डॉक्टर बनना चाहती थीं?
हां, छह-सात साल की उम्र से ही सोचती थी कि डॉक्टर बनूंगी। पिता आई स्पेशलिस्ट थे। मैंने घर में छोटा सा फर्स्ट एड किट बनाया था, ताकि किसी को चोट लगे तो दवा दे सकूं। पिता डायबिटिक थे। मैं उनसे कहती थी कि मुझे इंसुलिन देना सिखा दें..।
हमने सुना है कि आपके भाई आपको चिढाते थे कि मेडिकल की मोटी-मोटी किताबें तुम कैसे पढोगी?
(हंसते हुए) मैं दुबली-पतली थी, इसलिए वे चिढाते थे कि मेडिकल की भारी-भरकम किताबों का बोझ तुम उठा नहीं पाओगी। मेरे बडे भाई और एक कजन मेडिकल फील्ड में थे। उन्हें लगता था कि मेरे लिए यह पढाई मुश्किल होगी। पिता कहते थे कि अगर वह करना चाहती है तो उसे करने दो। मां हमेशा सपोर्टिव रहीं। हालांकि ख्ाुद उन्हें यह मौका नहीं मिला, लेकिन मुझे उन्होंने पूरा सहयोग दिया।
उन दिनों स्त्रियों का इस फील्ड में आना मुश्किल रहा होगा..
मेडिकल में तो पहले भी लडकियां थीं। लेकिन मैं अपने कॉलेज की अकेली लडकी थी, जिसने मेडिसिन में एमडी किया। पैथोलॉजी और गायनी में तो लडकियां थीं, लेकिन जनरल मेडिसिन में मैं अकेली थी। मेरे प्रोफेसर ने कहा कि तुम श्योर हो कि तुम्हें यही करना है? मैंने कहां-हां। दुर्भाग्य से कॉलेज में एक ही साल बीता था कि पिता का निधन हो गया। घर में आर्थिक दिक्कतें शुरू हो गई। तब लगा कि मुझे जॉब करने की जरूरत है। मेरे कॉलेज में कैजुअलिटी मेडिकल ऑफिसर की जॉब थी। मैं अच्छी स्टूडेंट थी तो मुझे जॉब मिल गई। लेकिन मेडिकल सुपरिंटेंडेंट ने कहा, तुम कर पाओगी इसे? रात भर कैजुअलिटी में रहना.. कई बार लोग नशे की हालत में भी आते हैं, ऐसे लोगों से डील करना मुश्किल होगा..। मैंने कहा कि जब दूसरे कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकती! खैर, मैंने यह जॉब की..।
आपके सिब्लिंग्स भी मेडिकल फील्ड में हैं?
मेरे एक बडे भाई और चचेरे भाई मेडिकल में थे, बाकी इंजीनियरिंग में आए। मैंने वर्ष 1952 में मेडिकल जॉइन किया था और 1957 में मैंने कंप्लीट कर लिया। फिर एमडी मेडिसिन किया। इसके बाद भारतीय सैन्य सेवा जॉइन की। तीन साल के बाद मैं इसे छोडना चाहती थी, लेकिन वह चीन-पाकिस्तान से युद्ध का दौर था।
इमरजेंसी लागू थी। शॉर्ट सर्विस कमिशंड ऑफिसर होने के नाते इसे मैं केवल एक ही स्थिति में छोड सकती थी, यदि मुझे कोई मानसिक समस्या हो गई हो। वह सब मैं नहीं करना चाहती थी, तो जब इमरजेंसी खत्म हुई, यानी सात साल के बाद मैं सैन्य सेवा से बाहर निकली..।
आपने एम्स में इकोकार्डिलॉजी डिपार्टमेंट की शुरुआत की?
जी, मैंने एम्स में इसे शुरू किया। एम्स से डॉक्टरेट ऑफ मेडिसिन कार्डियोलॉजी यानी डीएम (कार्डियोलॉजी) किया, फिर कॉलेज में ही पढाने लगी। इसके बाद मैं पूरी तरह पीडियाट्रिक कार्डियोलॉजी में आ गई। मैं पहली डॉक्टर थी, जिसने इकोकार्डियोलॉजी शुरू की। कई अन्य काम भी किए, जैसे बलून डायलेशन टेक्नीक..।
हम जानना चाहते हैं कि इस टेक्नीक में क्या होता है और अभी इस क्षेत्र में कितना काम हुआ है?
हमने 1984 में एक अमेरिकी डॉक्टर की मदद से इसे शुरू किया। इसे बलून मिट्रल वाल्वोटोमी कहा गया। इसके बाद भी कई चीजें शुरू कीं। धीरे-धीरे इसे आगे बढाया। आम भाषा में जिसे दिल में छेद होना कहते हैं, यह उसी का नॉन-सर्जिकल इलाज है। पिछले साल जनवरी में मियामी, फ्लोरिडा (यूएस) में मुझे लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला। मैं पीडियाट्रिक इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी सोसाइटी की मीटिंग में गई थी, जहां घोषणा हुई कि मुझे अवॉर्ड दिया जाएगा। यह सुखद अनुभव था। मैं पहली एशियन महिला हूं, जिसे यह अवॉर्ड मिला। यह बच्चे में जन्मजात हार्ट डिजीज और हार्ट की फंक्शनल एब्नॉर्मलिटी के लिए महत्वपूर्ण काम करने वाले को दिया जाता है।
आप देश-विदेश में जाती हैं। अन्य देशों के मुकाबले भारत में हेल्थ सेक्टर की क्या स्थिति है? कितना विकास हुआ है यहां?
विकास के कई स्तर हैं। भारत बडा देश है, लेकिन यहां आधुनिक सुविधाओं वाले हॉस्पिटल्स कम हैं। महानगरों को छोड दें तो बडे अस्पताल नहीं हैं। मेट्रो सिटीज में भी कम ही हैं। सरकारी अस्पतालों में नॉर्थ इंडिया में केवल एम्स है। चंडीगढ में पीजीआई है। बडे हॉस्पिटल्स प्राइवेट सेक्टर में हैं, जो आम जनता की पहुंच से दूर हैं।
आपके फील्ड में अभी किस तरह की चुनौतियां हैं?
यह फील्ड बहुत चैलेंजिंग है। डॉक्टर्स के सामने संसाधनों-इक्विप्मेंट्स की कमी आती है। हमारे देश में कोई नया विकास नहीं हुआ इस फील्ड में, जबकि यूएस इसमें पहले नंबर पर है। यह क्षेत्र बहुत समय और संसाधन की मांग करता है। बलून डायलेशन टेक्नीक खर्चीली है, इसमें समय ज्यादा लगता है। बच्चे के कई परीक्षण होते हैं, जो पीडादायक होते हैं। एडल्ट कार्डियोलॉजी में तो विकास हुआ है, लेकिन पीडियाट्रिक कार्डियोलॉजी में अभी हमें बहुत दूर जाना है।
माता-पिता बच्चों की हेल्थ को लेकर कितने जागरूक हैं?
जागरूकता तो आई है। टीवी, अखबारों के जरिये जानकारी मिल रही है। मगर अभी भी आम लोगों के दिमाग में यह बात है कि अरे बच्चे को दिल की बीमारी कैसे हो सकती है? उन्हें लगता है कि यह तो एडल्ट को ही हो सकती है। जबकि कई प्रॉब्लम्स जन्मजात होती हैं।
सर्वाइवल के कितने चांसेज हैं?
सही समय पर इलाज हो तो सर्वाइवल रेट बढ जाता है। देखिए, बच्चे का दिल बहुत छोटा होता है। यह काम बहुत सावधानी और विशेषज्ञता की मांग करता है, क्योंकि यह काम बहुत जटिल है। कुछ बच्चों को हमने बलून टेक्नीक से ठीक किया है, लेकिन ज्यादातर में हमें ओपन सर्जरी करनी पडती है।
बलून टेक्नीक महंगी है?
आम लोगों के लिए महंगी है। बर्थ डिफेक्ट्स के लिए इंश्योरेंस कवर्ड नहीं है। हमारे पास ज्यादातर यंग कपल्स आते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे इलाज करा सकें। सामाजिक पहलू भी जुडे हैं। घर के कमाऊ सदस्य या मुखिया को समस्या हो तो उसे तुरंत डॉक्टर को दिखाएंगे, लेकिन बच्चे पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। कई देशों में सरकार की ओर से इंश्योरेंस कवरेज कराया जाता है..। हालांकि बच्चे में हार्ट डिजीज को पहचानने के लिए हमारे देश में अब अच्छी मेथडोलॉजी विकसित हो चुकी है। हाई रिस्क प्रेग्नेंसी कवर्ड होती है। लेकिन दुर्भाग्य से लोग समय पर नहीं आते। समय पर समस्या पता चले तो इलाज संभव है। हमारे देश में किसी असामान्यता के लिए कानूनन अबॉर्शन 20 हफ्ते के भीतर ही किया जा सकता है। लेकिन लोगों में जागरूकता की कमी है। वे समय पर डॉक्टर तक नहीं पहुंच पाते। प्रेग्नेंसी में पूरा ध्यान रखना जरूरी होता है।
आपको दो-दो बार राष्ट्रपति से लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला। इंटरनेशनल लेवल पर भी आपके काम को सराहा गया। कैसा लगता है जब आपके काम को सराहना मिलती है?
(हंसते हुए) ..सराहना मिले तो अच्छा ही लगता है। पीडियाट्रिक इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी सोसाइटी की ओर से लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला तो यह बहुत सुखद अनुभूति थी मेरे लिए। लेकिन मुझे लगता है कि अगर मेरी जगह कोई पुरुष होता तो उसे नेशनल अवॉर्ड भी मिलता। शायद मेरी पर्सनैलिटी उतनी अच्छी न हो..(हंसते हुए)।
स्त्री होने के नाते किसी तरह का भेदभाव सहन करना पडा?
भारत और पूरी दुनिया में ऐसा है। हमें खुद को साबित करना पडता है। मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे सफलता मिली। इसके बावजूद कई बार मुझे स्त्री होने के कारण सहन करना पडा। मैं कई स्त्रियों से मिलती हूं, जो अच्छी पॉजिशंस में हैं, मगर वे मानती हैं कि जेंडर लेवल पर उनके साथ गैर-बराबरी होती है। सैलरीज में भी यह असमानता दिखती है।
जीवन में कभी कोई रिग्रेट्स..
रिग्रेट्स? नहीं। सौभाग्य से मेरा जीवन अच्छा और संपूर्ण रहा है। मैं लाइफ एंजॉय करती हूं। यात्राएं करती हूं..। मैं संतुष्ट हूं जिंदगी से।
इतनी डिमांडिंग लाइफ में अपने शौक पूरे कर पाती हैं?
मैं यात्राएं करती हूं, संगीत सुनती हूं। क्रूज पर जाती हूं, जिससे मुझे सुकून मिलता है। मेरे कुछ फेमिली फ्रें ड्स हैं, उनके साथ कभी-कभी मूवीज देखती हूं।
भारत में स्त्रियां अपनी हेल्थ को लेकर बहुत जागरूक नहीं हैं। इसके क्या कारण हैं?
यहां पितृसत्ता रही है। पुरुषों को महत्व दिया जाता है। स्त्रियों को हेल्थ प्रॉब्लम हो तो जल्दी डॉक्टर के पास नहीं जातीं। अच्छे आर्थिक स्तर वाले परिवारों में भी यह स्थिति है। आम परिवारों में अच्छे भोजन पर पहले पुरुष का ही अधिकार होता है। बेटा-बेटी में भेद किया जाता है।
..लेकिन अब लोग बदल भी तो रहे हैं?
बदलाव हुआ है। मेट्रो सिटीज में पढे-लिखे और अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों में बदलाव दिख रहा है। छोटे परिवारों में जहां एक बेटा-एक बेटी है, वहां भी बदलाव दिखा है। मगर छोटे शहरों-गांवों में बडे परिवारों में अभी भी भेदभाव होता है। स्त्रियों में भी यह भावना है कि घर का पुरुष महत्वपूर्ण है, वह कमाता है-इसलिए उसकी सेहत व खानपान ज्यादा जरूरी है..।
आप अध्यात्म पर भरोसा करती हैं?
(सोचती हुई)..हां। मैं मानती हूं कि कोई सुपरनैचरल पावर है। मैं रोज गीता पढती हूं। आस्था से मजबूती मिलती है। मेरे प्रोफेशनल जीवन में कुछ विपरीत स्थितियां आई। मुझे भी दुख हुआ। हालांकि मुझे लगता है कि धीरे-धीरे काम की पहचान होती है।
मैं 1995 में रिटायर हुई थी। पर इसके बाद से लगातार काम कर रही हूं। मैंने अकेले इस हॉस्पिटल में पीडियाट्रिक कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट शुरू किया। ईश्वर ने मुझे ताकत दी कि मैं इस जिम्मेदारी को निभा सकूं। आज यह विभाग अच्छा काम कर रहा है तो अच्छा लगता है
तो यह छोटी लडकी का समर्पण ही था जो यहां तक पहुंचीं?
(हंसते हुए) ..बिलकुल। समर्पण के बिना तो सफलता मिल ही नहीं सकती। इसी से यह भावना आती है कि हां, हमने यह किया।
जब एक पेशेंट हॉस्पिटल में आता है तो वह डॉक्टर को भगवान मानता है। ऐसे में कोई केस सफल नहीं हो तो कैसा लगता है?
मैं कई बार मरीजों से कहती हूं कि हम पर इतना विश्वास न करें। हम अपना बेस्ट करने की कोशिश करते हैं। लेकिन कई बार सफलता नहीं मिलती। हमारे पेशेंट्स बहुत छोटे व मासूम होते हैं। उनसे अटैचमेंट हो जाता है। हम भी तो मनुष्य हैं, हमारे भीतर भी मानवीय भावनाएं हैं। जब केस बिगडता है तो हमें भी गहरी पीडा पहुंचती है।
जो लडकियां मेडिकल में आना चाहती हैं, उनसे क्या कहेंगी?
समर्पण व गंभीरता से काम करें। ये दोनों चीजें किसी भी प्रोफेशन में जरूरी हैं। मेडिकल प्रोफेशन में ज्यादा जरूरी है। जिन्हें पैसा चाहिए, उन्हें यह फील्ड नहीं चुनना चाहिए। आइटी या इंजीनियरिंग में जाएं, ज्यादा पैसा कमाएं। डॉक्टर हैं तो मरीज से जुडाव जरूरी है। किसी भी फील्ड में लोगों की इतनी दुआएं नहीं मिलतीं, जितनी हमें मिलती हैं। पैसा महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन जब कोई ठीक होकर मुसकराते हुए जाता है तो वह हमारे लिए सबसे बडा संतोष का क्षण होता है।
सखी की संपादक प्रगति गुप्ता