अपनी पहचान से संतुष्ट हूं: नैना बलसावर
विज्ञापनों और ब्यूटी से लेकर ज्यूलरी डिजाइनिंग और राजनीति तक लंबी यात्रा कर चुकी हैं नैना बलसावर। इस रोमांचक सफर की कई यादें हैं उनके पास। उनका फलसफा है, जीवन में आज दुख है तो कल खुशी भी होगी, बस जिंदगी को देखने का नजरिया बदलना होगा। एक मुलाकात सखी की संपादक प्रगति गुप्ता के साथ।
इस इंटरव्यू के लिए कुछ देर से पहुंची, जो मेरे स्वभाव में नहीं है और यह बात मुझे परेशान कर रही थी। पहले भी दो बार इस इंटरव्यू को कुछ कारणों से स्थगित करना पडा था। लेकिन जब मैं नैना बलसावर के सैनिक फार्म स्थित बंगले में पहुंची तो उन्होंने इतनी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया कि मेरी सारी शंकाएं खत्म हो गई। प्रिंटेड साडी में वह बहुत शालीन-सुंदर दिख रही थीं। नियमित योग और डाइट दिनचर्या का कमाल भी उनके चेहरे पर नजर आ रहा था। कॉफी और नाश्ते के साथ हमने बातचीत शुरू की। वह अपनी स्थितियों में खुश और संतुष्ट हैं। देश-दुनिया घूम चुकी, स्पष्टवक्ता और अच्छे स्वभाव वाली नैना ने दुनिया देखी है और जिंदगी की जटिलताओं को समझा है।
जब आप मिस इंडिया बनी थीं, तब लडकियां इस फील्ड में कम आती थीं। माता-पिता को कन्विंस करना मुश्किल रहा?
दरअसल यह एक गलतफहमी है कि तब लडकियां इस फील्ड में नहीं आती थीं। उस समय भी फिल्म इंडस्ट्री में आने की पहली सीढी ब्यूटी ॉन्टेस्ट ही हुआ करते थे। लेकिन मैं दक्षिण भारत के सारस्वत ब्राह्माण परिवार से आती हूं, जहां शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती थी। बाकी जो करना है करो, लेकिन पहले एजुकेशन जरूरी है। मेरी ग्रैंड मदर ने मुझे मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्हें लगता था कि परिवार में एक प्यारी लडकी है तो क्यों न इस फील्ड में भेजा जाए। इससे पहले भी मेरे पास फिल्म के प्रस्ताव आए थे, लेकिन मैंने मना कर दिया। तब मेरी समझ इतनी नहीं थी। बहुत महत्वाकांक्षी भी नहीं थी। मैं तो बस अपनी किताबों-दोस्तों और अच्छे खाने में ही खुश रहती थी। कुछ देर से समझदार हुई मैं।
कहते हैं, हर चीज का एक समय होता है। ..उस समय दिल्ली में मिस इंडिया कॉन्टेस्ट हो रहा था। मैं यहां आई। हम बसंत विहार में रहते थे। तब यह एरिया बिलकुल खाली था और यहां मोर नाचा करते थे। ब्यूटी में उन दिनों फॉल्स आइलैशेज का फैशन था। हम तैयार हो रहे थे। हमने एक फॉल्स आइलैश लगाई ही थी कि लाइट चली गई और हम ऐसे ही अशोका चले गए। डॉली ठाकुर ने मुझे देखा तो बोलीं, अरे, यह लुक तो ललिता पवार जैसा लग रहा है..! वहां और भी खूबसूरत लडकियां थीं। ..तो उन लडकियों को देख कर मुझे लगता नहीं था कि मैं जीतूंगी। लेकिन मुझसे जितने सवाल पूछे गए, शायद अपनी शिक्षा और आत्मविश्वास के कारण मैं निर्णायक मंडल को सही जवाब दे सकी और जीत गई।
नैना, वह ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का दौर था, उस वक्त खुद को प्रेजेंटेबल और फोटोजनिक दिखाने के लिए किस तरह के प्रयास करने पडते थे?
अरे, मैंने तो कोई एक्स्ट्रा एफर्ट किया ही नहीं। मैं विज्ञापनों में काम कर रही थी और इस समय से रंगीन टीवी का दौर भी आने लगा था। हालांकि आज तो हम इस स्तर पर बहुत आगे बढ चुके हैं, लेकिन तब भी काफी विकास हो रहा था। अच्छे मेकअप आर्टिस्ट थे। मिकी कॉन्ट्रेक्टर उस समय युवा और उभरते हुए मेकअप आर्टिस्ट थे। वैसे प्रोफेशनल शूट्स के अलावा मुझे मेकअप कभी पसंद नहीं रहा।
आप मुंबई में पली-बढीं, दिल्ली आकर कैसे एडजस्ट किया?
मेरे पिता का यहां प्रिंटिंग प्रेस था- रेखा प्रिंटर्स, जिसका नाम मेरी बहन के नाम पर रखा गया था। यहां बसंत विहार में हमारा घर था। मेरे पिता दिल्ली आते रहते थे। हम बॉम्बे से यहां आते तो बडा फर्क दिखता था। पहला तो यही था कि यहां हिंदी बोलने वाले लोग ज्यादा थे और हम अंग्रेजी माध्यम वाले थे। मेरे बहुत दोस्त भी नहीं थे। शॉपिंग के लिए तब कुछ खास नहीं था। एक युवा लडकी के लिए यहां कुछ करने के लिए नहीं था। तो मेरे लिए दिल्ली आना सजा की तरह था। मेरे पिता अलग मिजाज के थे। वह कहते थे, दिल्ली जाओ, कुतुबमीनार देखो, हुमायूं का मकबरा देखो, उसका आर्किटेक्चर देखो, लेकिन हमें तो तब यह सब समझ में नहीं आता था। आज यह हालत है कि दिल्ली से बाहर जाने का ही मन नहीं होता। शायद एक किस्म की बॉण्डिंग होती है। हर व्यक्ति की भावनाएं किसी एक जगह से जुडी होती हैं, जहां वह घर जैसा महसूस करता है। दिल्ली मेरा घर है। जब मैं दिल्ली आई, उस समय यहां एक बदलाव आ रहा था और जब मैं मुंबई छोड रही थी तो वहां भी कुछ ऐसा बदलाव आ रहा था, जिससे मैं बहुत सहज नहीं हो पा रही थी। दिल्ली ने मुझे मान-सम्मान दिया और मेरी पहचान दी। ..और अब तो यहां भी बेहतर सडकें हैं, मॉल्स हैं, हालांकि मुझे मॉल्स जाना पसंद नहीं है।
लेकिन मुंबई से आने वाली लडकियों के लिए दिल्ली में एडजस्ट करना काफी मुश्किल होता है..
हां, मैं जानती हूं। लेकिन मेरा स्वभाव कुछ ऐसा है कि मैं जहां भी जाती हूं, वहीं घर जैसा महसूस करने लगती हूं। यूके, यूएस और भारत में गोवा, पूना..कहीं भी जाऊं, मैं कंफर्टेबल महसूस करती हूं। ..मैं दिल्ली-मुंबई के बीच तो हमेशा ही चलती रहती हूं क्योंकि दोनों ही मेरे घर हैं। मुंबई में मेरी मां हैं और अब मेरी बेटी भी वहां फिल्मों में ट्राई कर रही है।
रिश्तों को लेकर आपके कई अनुभव हैं..। शादी को लेकर क्या सोचती हैं आप? इस रिश्ते को कैसे परिभाषित करती हैं?
देखिए..(सोचते हुए) हर रिश्ता गिव एंड टेक पर टिका है। आप दोगे तो आपको मिलेगा। रिश्ते निभाने के लिए धैर्य चाहिए। जब हम माता-पिता का घर छोड कर नई जगह जाते हैं.., फिर चाहे अरेंज्ड हो या लव मैरिज, अगर हम बिना अपेक्षा रखे वहां जाएं और अपनी ओर से बेस्ट देना चाहें तो रिश्ते को निभाना आसान हो जाता है। लोग सोचते हैं कि निभाना बडा कठिन है या मां और सास में फर्क होता है। दरअसल यह सब हमारे दिमाग में होता है। किसी भी रिश्ते को सही रखने के लिए अपने मन को ठीक रखना जरूरी है। ..आखिर अपने बच्चों से भी हमारा कभी न कभी विवाद होता ही है। कई बार हम अपने विचार उन पर थोपने लगते हैं,यह गलत है। जरूरी यह है कि हम उन्हें सुनें, उनका मार्गदर्शन करें। उसी तरह हमारे माता-पिता भी हमसे बडे और अनुभवी हैं तो हमें उनकी बातें सुननी चाहिए। हम भी अपने बच्चों से ज्यादा अनुभवी हैं तो उन्हें सही मार्गदर्शन दे सकते हैं। यह कभी खत्म न होने वाली कहानी है..हमेशा चलती रहती है।
ग्लैमर की दुनिया में इतने वर्षो में क्या बडा बदलाव दिखता है?
बहुत बदलाव आया है। हमारे जमाने में लडकियां इस बात से घबराती थीं कि अगर किसी ने गलत प्रस्ताव सामने रखा तो क्या होगा! मगर अब स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। अब कोई पुरुष किसी लडकी से जोर-जबर्दस्ती नहीं कर सकता और अगर लडकी न चाहे तो उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकता। अब फिल्म इंडस्ट्री में अच्छे परिवारों की पढी-लिखी लडकियां आ रही हैं। वे ट्रेंड हैं, देश-विदेश से एक्टिंग की ट्रेनिंग ले रही हैं। स्कोप भी बहुत बढा है। पहले ऐसा नहीं था, तब हमारी ट्रेनिंग काम के दौरान होती थी, डायरेक्टर हमें गाइड करते थे। अब काफी हद तक फिल्म इंडस्ट्री में स्त्री-पुरुष कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं। फिर भी यह पुरुषों का ही क्षेत्र है और हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है..।
आपके पति राजनीतिज्ञ हैं। एक राजनेता के साथ तालमेल बिठाना कितना आसान या मुश्किल रहा आपके लिए?
(हंसते हुए).. अरे, मुझे तो लगता है मैं ही राजनीति ज्यादा जानती हूं! मैं कूटनीति जानती हूं, लोगों के बीच में रही हूं, उन्हें समझ पाती हूं, बल्कि मैं तो खुद चुनाव भी लडी हूं। नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ खडी हुई और अच्छे वोट भी मिले। हालांकि जब पहली बार मैं अपने चुनाव क्षेत्र (नैनीताल) में गई तो घबरा रही थी। छोटा सा कस्बा था। एक चारपाई लगा कर मुझे खडा कर दिया गया। मैं सोचने लगी, अगर अभी यह टूट जाए तो सब हंसेंगे। उस मुस्लिम-बहुल इलाके में जहां उर्दू में बोलना था, लेकिन (हंसते हुए) दरअसल मैं जल्दी सीखती हूं। सिर पर पल्ला लेकर हाथ जोड कर मैंने राजनीतिज्ञों की तरह बोला और वोट मांगे। मेरे पति (अकबर अहमद डंपी) ने भी कहा, मेरी बीवी को वोट देना..। मैं हमेशा दिल से बोलती हूं, कभी स्पीच तैयार करके नहीं ले गई। अब तो राजनीति बहुत अलग हो चुकी है। जाति-पाति जैसी चीजें हावी हो गई हैं..। मैं लोगों से कहती हूं, बच्चों को पढाओ-लिखाओ, काबिल बनाओ, ताकि बाद में तुम्हें यह न लगे कि उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा है। मैं धर्म, जाति जैसी बातों में विश्वास नहीं रखती। मैं खुद एक ब्राह्माण परिवार से आती हूं जबकि मुस्लिम परिवार में मैंने शादी की है..।
अकबर कैसे पिता हैं?
वे बहुत ही अच्छे और बच्चों को प्रोत्साहित करने वाले पिता हैं। मेरे बेटे को भी पॉलिटिक्स में रुचि है, वह अपने पिता की हर बात मानता है। अकबर उसका मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि यह मुश्किल राह है। मुझे लगता है कि उनका दिल बहुत बडा है। कई बार शायद लोग उनकी उदारता का फायदा भी उठा लेते हैं। वह आम नेताओं जैसे नहीं हैं, अलग हैं। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है।
हमने सुना है कि ज्यूलरी डिजाइनिंग में आने की प्रेरणा आपको अपनी मां से मिली। फिर काम कैसे शुरू किया?
हां..। मां को कलर्ड स्टोंस में बहुत रुचि थी। मेरी ग्रैंड मदर को गोल्ड से प्यार था। मेरी एक दोस्त वर्ल्ड बैंक के लिए काम करती थी। उसने कहा कि चलो एक प्रदर्शनी लगाते हैं। हमारे पास ढाई-ढाई लाख रुपये थे। हमने वाशिंगटन में ज्यूलरी एक्जिबिशन लगाई। लेकिन (हंसते हुए) जब हम पहुंचे तो वहां एक भी परिंदा नहीं था। पूरी प्रदर्शनी में मुश्किल से दो लोग आए। बुरा तो लगा..लेकिन मैं वापस आई। यहां एक स्टोर लिया किराये पर और काम शुरू किया। मेरी दोस्त ने छोटा सा पी.आर. सेट किया। काम चल निकला। हालांकि तब भी यह पुरुष वर्चस्व वाला क्षेत्र था। मैं शायद पहली स्त्री थी यहां। अब तो बहुत लडकियां आ रही हैं। अब 15-20 साल हो गए हैं इस फील्ड में।
आज आपके पास सब कुछ है। कभी पीछे मुडकर देखती हैं तो कोई पछतावा होता है? कभी कोई संघर्ष करना पडा?
नहीं.., मेरे पास पहले भी सब कुछ था। प्यार करने वाले माता-पिता और ग्रैंड पेरेंट्स थे। कोई संघर्ष नहीं करना पडा। एक और बात यह भी है कि मेरा एक कंफर्ट लेवल रहा है। टाटा-बिडला बनने के बारे में सोचती तो शायद नाखुश होती। लेकिन मैं जहां थी-वहीं खुश थी। कल मैं अपने बेटे को एक घटना के बारे में बता रही थी। एक बार मैंने अपनी कार बेच दी। फिर मुझे लगा कि अरे मेरे पास अपनी कार नहीं है, हालांकि घर में और कारें थीं। एक दिन रास्ते में मैंने टैंपो में स्कूल जाते स्मार्ट यंग टीनएजर्स को देखा। ये सब खुशमिजाज और प्यारे बच्चे थे। मुझे लगा कि मेरे पास कार है तो भी मैं कुछ और चाहती हूं और ये बच्चे ऐसे भी खुश हैं। मैं बेटे को यही समझाती हूं कि जब ऐसा लगे कि तुम्हारे पास कम है तो उसे देखो, जिसके पास तुमसे भी कम है। (सोचते हुए)..जब मैं तनाव में होती हूं, सोचती हूं-थैंक गॉड कल मैं खुश रहूंगी। ..15-16 साल के बच्चों को तनाव में देखती हूं तो अजीब लगता है। इसका मतलब है कि हमने उन्हें सही शिक्षा नहीं दी। जिंदगी बहुत कीमती है। 40 की उम्र के बाद टेंशन हो सकता है, लेकिन इतनी कम उम्र के बच्चे को टेंशन हो, यह मुझे समझ नहीं आता।
आप धार्मिक हैं?
नहीं..। धर्म की व्यवस्था लोगों को एकजुट करने के लिए बनाई गई थी.। मुझे फिल्म चक दे इंडिया का वह सीन बहुत पसंद है, जिसमें कबीर खान लडकियों से पूछता है कि वे कहां से आई हैं। कोई कहती है- महाराष्ट्र से, कोई गुजरात से, लेकिन एक का जवाब होता है- इंडिया..। यही ऐसी भावना है जिसे मैं पसंद करती हूं- एकता की भावना। जिस देश में एकता नहीं है, उसे तोडना बहुत आसान हो जाता है। मैं अपने पति के धर्म का सम्मान करती हूं, अपनी मां की गणपति पूजा का भी सम्मान करती हूं। मेरे पिता कहते थे, पूजा-पाठ में परिवार इसलिए इकट्ठा होता है ताकि वे एक-दूसरे के बारे में जान सकें कि कौन क्या कर रहा है। ईश्वर एक है, वह किसी को बांटता नहीं..। आप एक बच्चे को देखें। उसके लिए भगवान कौन है? जो उसे खाना खिलाती है-सुलाती है, उसे पालती है.. वही तो उसकी भगवान है।
आप बहुत संतुष्ट स्त्री हैं, फिर भी क्या कोई ऐसा सपना है-जो अधूरा है और जिसे आप पूरा करना चाहती हैं?
(जोर देते हुए) बिलकुल करना है..। हर कोई महसूस करता है कि उसे कुछ करना चाहिए। पहले हम अपने बच्चों की जिंदगी को बेहतर बनाते हैं। फिर जिम्मेदारियां पूरी होती हैं। हिंदू धर्म में संन्यास की व्यवस्था है। हमें रिटायर होने के बाद समाज के लिए कुछ करना चाहिए, बल्कि रिटायरमेंट का भी इंतजार क्यों करें! जब भी समय मिले- कुछ करें, बच्चों को शिक्षा दें। मेरा बहुत पुराना सपना है कि मैं बच्चों को शिक्षित करूं। मैं टीचर बनना चाहती हूं।
हमारे कॉलम का नाम है मैं हूं मेरी पहचान। एक स्त्री के लिए अपनी पहचान बनाना कितना जरूरी है?
बहुत गर्व होता है। हम दो बहनें हैं, हमारा कोई भाई नहीं है। लोग बेटा क्यों चाहते हैं? ताकि उनके बाद भी उनका नाम चलता रहे! तो मैंने अपनी एक जगह बनाई है। लोग मुझे सुधीर बलसावर की बेटी के रूप में भी जानते हैं। मैंने अपने पिता का नाम बरकरार रखा है। लडकियों को अपने पिता का नाम कायम रखना चाहिए। मैं अपनी बेटियों से भी कहती हूं कि वे पिता का नाम आगे लगाएं। मैं संतुष्ट हूं, खुश हूं, मुझे खुद पर गर्व है, लेकिन घमंड नहीं है। मुझे लगता है कि लडकियों को अपनी काबिलीयत साबित करनी चाहिए। अगर वे मेडिकल या इंजीनियरिंग में सीट्स चाहती हैं तो फिर उन्हें इस शिक्षा का उपयोग भी करना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो फिर उन्हें किसी दूसरे लडके का हक नहीं खत्म करना चाहिए। मेरे खयाल से उन्हें समझदारी के साथ समाज में अपनी अपनी जगह बनानी चाहिए।
जो लडकियां ज्यूलरी डिजाइनिंग में आना चाहती हैं, उनके लिए क्या चुनौतियां हैं?
सोने के दाम..(हंसते हुए)। कहां इन्वेस्ट करें? वैसे मुझे लगता है, ज्यूलरी में टैलेंटेड लोग कम हैं। ज्यादातर तो कारीगर को बिठा लेते हैं, कुछ फोटोज रख लेते हैं कि ऐसा कर दो-इसमें थोडा चेंज कर दो। मैं ट्रडिशनल चीजें पसंद करती हूं। मेरा घर, ज्यूलरी या परिधान.. सभी में ट्रडिशंस की झलक मिलती है। लेकिन इसमें भी आप अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करें। हालांकि जिस तरह सोने का दाम बढ रहा है, उसमें तो इन्वेस्ट करना मुश्किल ही लगता है। फन या सस्ती ज्यूलरी में इन्वेस्टमेंट कर सकती हैं लडकियां..।
सखी की संपादक प्रगति गुप्ता
प्रगति गुप्ता