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शक्ति आराधना का महापर्व

आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक की अवधि को नवरात्र कहा जाता है। मां दुर्गा ही संपूर्ण विश्व को शक्ति, स्फूर्ति एवं सरसता प्रदान करती हैं।

By Edited By: Published: Wed, 05 Oct 2016 01:27 PM (IST)Updated: Wed, 05 Oct 2016 01:27 PM (IST)
शक्ति आराधना का महापर्व
आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक की अवधि को नवरात्र कहा जाता है। मां दुर्गा ही संपूर्ण विश्व को शक्ति, स्फूर्ति एवं सरसता प्रदान करती हैं। देवताओं की सहायता के लिए मां जगदंबा अनेक रूपों में प्रकट हुईं। धूम्राक्ष, शुंभ-निशुंभ, चंड-मुंड, मधु-कैटभ, रक्तबीज और महिषासुर जैसे असुरों का संहार करके ही वह महिषासुर-मर्दिनी कहलाईं। जगत जननी मां को प्रकृति भी कहा गया है। इस शब्द के तीनों अक्षर सत्व, रज और तम गुणों के प्रतीक हैं। दुर्गतिनाशिनी होने के कारण मां भगवती को दुर्गा भी कहा जाता है। दिव्य ऊर्जा से परिपूर्ण होने के कारण नवरात्र के नौ दिन शक्ति की आराधना का विशेष फल देते हैं। अंकों में भी नौ अंक को सर्वाधिक ऊर्जावान माना गया है। देवी मां की त्रिगुणात्मक शक्ति ही नौ दुर्गा स्वरूपा है। इसीलिए पूरे भारत में नवरात्र का उत्सव बडे उल्लास के साथ मनाया जाता है। शक्ति संगम तंत्र नामक प्राचीन ग्रंथ में इस बात का उल्लेख है कि मां दुर्गा की नौ शक्तियों से संयुक्त दिन और रात्रि को ही नवरात्र कहा जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों का पूजन करने से नौ ग्रहों की पीडाओं का भी शमन हो जाता है। नवरात्र व्रत अनुष्ठान नवरात्र के व्रत और अनुष्ठान में व्यक्ति को अपने परिवार और गुरु परंपरा का ही अनुसरण करना चाहिए। व्रत का मूल उद्देश्य है-संयम की प्राप्ति। संयमी ही शक्ति का संचय कर सकता है। यह व्रत आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक किया जाता है। कुछ समुदायों में केवल प्रतिपदा और अष्टमी को ही व्रत रखा जाता है। भक्तों को व्रत का वही विधान अपनाना चाहिए, जिससे उनकी सेहत को कोई नुकसान न पहुंचे। नवरात्र व्रत के अनुष्ठान का प्रारंभ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के शुभ मुहूर्त में कलश-स्थापना के साथ किया जाता है। इस दौरान अखंड ज्योति प्रज्वलित करने का भी विधान है ताकि देवी मां इन नौ दिनों तक हमारे घरों में विराजमान रहें। पूजन की विधि नवरात्र के नौ दिन देवी भगवती के नौ स्वरूपों को समर्पित हैं और हर दिन देवी मां के किसी एक खास रूप की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। आइए देखें इस भव्य पूजा की एक झलक : शैलपुत्री : मां दुर्गा अपने प्रथम रूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। वृषभ पर विराजमान इन देवी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें में कमल-पुष्प सुशोभित है। पूर्व जन्म में यही देवी दक्ष प्रजापति की कन्या सती थीं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी उपासना की जाती है। यह देवी भक्तों को निरोग रहने का वरदान देती हैं। पूजन एवं भोग : सबसे पहले चावल को कलश में भरकर उस पर घी का दीपक जलाएं, फिर धूप-दीप, कपूर, कुमकुम और सुहाग की सामग्री अर्पित करके उन्हें लाल रंग की चुनरी ओढाएं और वाद्य यंत्रों की ध्वनि से देवी मां का आह्वन करें। यदि आप बिना किसी पुरोहित की सहायता के स्वयं कलश स्थापना करना चाहते हैं तो पीतल के कलश में गंगाजल, जौ, तिल और अक्षत डालें। फिर उसके चारों ओर लाल कलावा बांधकर उस पर स्वस्तिक का चिह्न बनाएं। कलश के बीच आम के पांच, सात या नौ पल्लव लगाएं। सूखे नारियल को लाल कपडे में लपेट कर देवी मां का ध्यान करते हुए उसे कलश के ऊपर स्थापित करें। कलश स्थापना से पहले श्रीगणेश एवं शिवजी का ध्यान करते हुए उनका पूजन भी अवश्य करें। चमेली का पुष्प शैलपुत्री माता को अत्यधिक प्रिय है। इसके अभाव में गुडहल का फूल भी चढाया जा सकता है। प्रथम दिन माता को देसी घी अर्पित किया जाता है। इसके अलावा दूध से निर्मित पकवान, नारियल की बर्फी, पोस्ते का हलवा, लौंग-इलायची और पान के बीडे (कत्था, चूना और सुपारीयुक्त पान) से माता अत्यंत प्रसन्न होती हैं। ब्रह्मचारिणी : मां दुर्गा का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है, जो तप का आचरण करने वाली हैं। इनका स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय है। इनके दाहिने हाथ में जपमाला और बाएं में कमंडल रहता है। पिछले जन्म में यह पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती थीं और अपने तप के बल से इन्होंने शिवजी को प्राप्त किया था। यह देवी अपने भक्तों को संयम, त्याग और सदाचार का वरदान देती हैं। पूजन एवं भोग : कपूर और लौंग द्वारा माता की आरती करें। इन्हें गुलाबी रंग की चुनरी ओढाएं और इसी रंग के गुडहल पुष्प की माला या सफेद फूल चढाएं। इन्हें मालपुए और केले का भोग लगाएं। चंद्रघंटा : सिंह पर विराजमान दस भुजाओं वाली इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है। इनका शरीर स्वर्ण के समान दमकता है। इनकी भयानक घंटा ध्वनि से असुर भयभीत रहते हैं। मां अपने भक्तों को सांसारिक कष्टों से मुक्ति प्रदान करती हैं। पूजन एवं भोग : तीसरे दिन माता का पूजन सुगंधित धूप, इत्र और कपूर से करना चाहिए। इन्हें केसरिया रंग की चुनरी ओढाकर, चूडिय़ों सहित सुहाग की सारी सामग्री अर्पित करें, गेंदे या गुडहल के फूलों की माला पहनाएं। मां चंद्रघंटा को खोये से बने मिष्ठान, खीर और अनार का भोग लगाएं। कूष्मांडा : जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था और चारों ओर अंधकार व्याप्त था तब इन्होंने अपने हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। अत: यही सृष्टि की आदि स्वरूपा और आदि शक्ति हैं। इन्हीं के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं देदीप्यमान हो रही हैं। इनकी आठ भुजाएं हैं। अत: ये अष्टभुजी देवी के नाम से भी विख्यात हैं। संस्कृत में कुम्हडे या सीताफल को कूष्मांडा कहा जाता है, जो इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इसकी बलि से मां शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। इनकी पूजा से आयु, यश और बल की वृद्धि होती है। पूजन एवं भोग : चौथे दिन की पूजा में माता को पीले कनेर का पुष्प चढाएं और इसी रंग की चुनरी ओढाएं। कपूर-लौंग से आरती करें। सुहाग सामग्री में बिंदी और सिंदूर अर्पित करें। नारियल की जगह कुम्हडे, केले और संतरे का भोग लगाएं। इस दिन माता को केसरिया खीर या पुलाव भी चढाया जाता है। स्कंदमाता : मां दुर्गा अपने पांचवें स्वरूप में स्कंदमाता के नाम से जानी जाती हैं। नवरात्र के पांचवें दिन इनकी ही उपासना की जाती है। इनका स्वरूप वात्सल्यमय है और यह अपने भक्तों पर सदैव कृपा दृष्टि बनाए रखती हैं। संतान की इच्छा रखने वाले दंपतियों को इनकी आराधना से संतान सुख की प्राप्ति होती है। कमल के फूल पर विराजमान स्कंदमाता शुभ्र वर्ण की हैं। इसलिए इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। इनकी उपासना से बालरूप स्कंद भगवान (कार्तिकेय) की भी पूजा हो जाती है। कुमार कार्तिकेय के नाम से जाने वाले स्कंद जी प्रसिद्ध देवासुर-संग्राम में देवताओं के सेनापति थे और इनका वाहन मोर है। पूजन एवं भोग : इस दिन मां को हरे रंग के वस्त्रों से सजाया जाता है। लाल गुलाबों की माला चढाने से यह देवी अत्यंत प्रसन्न होती हैं। इस दिन माता को सोने या चांदी के आभूषण चढाने की भी परंपरा है। धूप-दीप और कपूर द्वारा इनकी स्तुति की जाती है। इन्हें ठंडी खीर, सेब-नाशपाती और खीरे का भोग लगाया जाता है। कात्यायनी : नवरात्र के छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा की जाती है। इनका अवतरण महर्षि कात्यायन की घोर तपस्या से हुआ था। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी, इन तीनों दिनों में कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण करने के बाद दशमी को माता कात्यायनी ने महिषासुर का वध किया था। इसलिए ये महिषासुरमर्दनी भी कहलाती हैं। ब्रजमंडल में यह अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। पूजन एवं भोग : इनकी पूजा में समस्त सुहाग की सामग्री अर्पित की जाती है। धूप-दीप, कपूर, लौंग-पान और सुपारी से मां का पूजन करने पर यह अति शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। मां कात्यायनी की पूजा में नारियल की बलि अवश्य दी जाती है। इस छठे स्वरूप में मां को लाल रंग की चुनरी ओढाएं। उन्हें लाल रंग के गुलाब या गुडहल की माला पहनाएं। सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए कुंआरी कन्याओं को इनकी पूजा करनी चाहिए। पूरे साल मां कात्यायनी के अमोघ मंत्र का जप करने से अविवाहित कन्याओं को इच्छित वर की प्राप्ति होती है। इनके पूजन से विवाह संबंधी दोषों का भी निवारण होता है। कात्यायनी माता को समस्त मीठे पकवानों सहित, पंचामृत, माखन-मिश्री, शहद, अनार, सेब और केले का भोग लगाएं। कालरात्रि : मां दुर्गा की सातवीं शक्ति हैं, कालरात्रि। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह काला और बाल बिखरे हुए हैं। इनके गले में विद्युत जैसी चमकने वाली माला है। तीन नेत्रों वाली इन माता की नासिका से भयंकर ज्वाला निकलती है और इनका वाहन गर्दभ (गधा) है। भयंकर स्वरूप में दिखाई देने वाली यह मां सदैव शुभ फल देती हैं। इसी कारण यह शुभंकरी नाम से भी जानी जाती हैं। इनकी पूजा से ग्रह बाधा और शत्रु भय का नाश होता है। पूजन एवं भोग : गहरे लाल रंग की ओढऩी से मां का शृंगार करें, रातरानी या नीले रंग का कोई भी फूल मां को अर्पित करें। लौंग, कपूर, पान-सुपारी, इलायची और धूप-दीप से स्तुति करें। मां कालरात्रि को खिचडी, काले चने और गुड से निर्मित व्यंजनों के अलावा गुड और आटे से बने हलवे और मौसम के अनुकूल फल अर्पित करें। नारियल की बलि से मां कालरात्रि शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं। महागौरी : मां दुर्गा की आठवीं शक्ति महागौरी हैं, इनका वर्ण पूर्णत: गौर है। इनकी गौरवर्ण की उपमा शंख, चंद्र और श्वेत कमल के पुष्प से की गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है। इनका वाहन वृषभ है। यह अत्यंत शांत मुद्रा में रहती हैं। पार्वती रूप में शिवजी को प्राप्त करने के लिए इन्होंने कठोर तप किया था। इससे इनका वर्ण काला हो गया था। इनके तप से प्रसन्न होकर शिव जी ने गंगाजल से इन्हें स्नान करवाया तो इनका रंग बेहद गोरा हो गया और तभी से यह महागौरी कहलाने लगीं। पूजन एवं भोग : गुलाबी रंग के वस्त्रों से मां का शृंगार कर, कपूर और धूप-दीप से इनकी पूजा-अर्चना करें। श्वेत पुष्प अर्पित करने से मां गौरी प्रसन्न होकर अपने भक्तों को समस्त दुखों और पापों से बचाती हैं। इन्हें सूखे नारियल से बनी मिठाइयां, चावल और मखाने की खीर, केला, सेब, संतरा या नाशपाती का भोग लगाएं। सिद्धिदात्री : मां दुर्गा की नवीं शक्ति सिद्धिदात्री के नाम से जानी जाती है। यह देवी सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। चार भुजाओं वाली यह देवी कमल पुष्प पर विराजमान हैं। सभी प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त यह देवी दिव्य स्वरूपा हैं। पूजन एवं भोग : दीप प्रज्वलित कर कपूर, लौंग, तिल और पान-सुपारी अर्पित करने के बाद हवन करके इनका पूजन संपन्न किया जाता है। हवन में जौ, तिल, चावल, पंचमेवे, घी और आम की लकडी का प्रयोग किया जाता है। माता को समस्त शृंगार की सामग्री चढा कर लाल रंग के वस्त्रों से सजाया जाता है। गुडहल, कमल और गुलाब का फूल मां को प्रसन्नता देता है। इस दिन माता को पूडी, हलवा, चना, खीर, जलेबी और पांच फलों का भोग चढाया जाता है। इस तरह कन्या पूजन के साथ नवरात्र का व्रत संपन्न होता है। नवमी के दिन हवन के बाद कलश के पवित्र जल को अपने घर के सभी कमरों में छिडकें। जौ की हरियाली को मां के आशीर्वाद स्वरूप ग्रहण करें और अपने धन के साथ किसी सुरक्षित स्थान पर रखें। इससे परिवार में सुख-समृद्धि आती है। नवरात्र उत्सव के विविध रंग उत्तर-भारत के अलावा देश के अन्य प्रांतों में भी नवरात्र का उत्सव बडे उल्लास से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर दो घडों को एक-दूसरे पर रखने के बाद उस पर महालक्ष्मी का मुखौटा लगाया जाता है, जिसे चावल के उबले आटे की लोई से तैयार किया जाता है। फिर उन घडों को साडी से ऐसे सजाया जाता है कि वह देखने में दिव्य स्वरूपा महालक्ष्मी की मूर्ति प्रतीत होती है। इस रोज विधि-विधान से सौभाग्यवती स्त्रियों-कुमारियों को भोजन परोसा जाता है और उसके उपरांत उन्हें कुछ उपहार देने की भी परंपरा है। गुजराती समुदाय में पहले दिन कलश स्थापना के साथ ही डांडिया और गरबा नृत्य आयोजन शुरू हो जाता है। वहां कलश को आकर्षक ढंग से सजाकर उस पर ज्योति प्रज्वलित की जाती है। फिर स्त्रियां अंबे मां की महिमा का गुणगान करते हुए उस ज्योति के चारों ओर गरबा नृत्य करती हैं। वहां घरों को अत्यंत सुंदर ढंग से सजाकर द्वार पर भी ज्योति जलाई जाती है। दक्षिण भारतीय प्रांतों, जैसे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में देवी मां को सिंहासन पर बिठाया जाता है। वहां सीढीनुमा मंच बनाकर उस पर खिलौने सजाने की भी परंपरा है, जिसे 'कोलू' कहा जाता है। ऐसी सीढिय़ां 5, 7 या 9 की संख्या में बनाई जाती हैं। इन्हें लकडी या लोहे से तैयार किया जाता है। प्रतिपदा के दिन सबसे ऊपर वाली सीढी पर चावल भरे कलश और आम के पत्तों के गुच्छों के बीच नारियल रखकर मां का आह्वान किया जाता है। रंगोली बना कर मां का स्वागत करना यहां की प्राचीन परंपरा है। बंगाल की दुर्गा पूजा के बारे में क्या कहना, वह तो विश्व प्रसिद्ध है ही। वहां देवी मां के पूजन के साथ पारंपरिक नृत्य-संगीत का भी बहुत सुंदर प्रस्तुतीकरण किया जाता है। संध्या टंडन

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