सखी सरोकार
निर्भया कांड के तीन साल पूरे होने के बाद भी स्त्री सुरक्षा के तमाम सवाल अनसुलझे हैं। लड़कियां महफूज़्ा नहीं हैं। समस्या आख़्िार कहां और किन स्तरों पर है, कैसे इनका हल निकाला जा सकता है, जानें सखी से।
देश-दुनिया को हिला देने वाले दिल्ली के निर्भया कांड को बीती 16 दिसंबर को तीन साल हो गए। दुनिया भर में इस पाशविक कृत्य की भत्र्सना की गई। जुलूस निकाले गए, मोमबत्तियां जलाई गईं। इस घटना ने देश को दुनिया के आगे शर्मसार कर दिया। इसका दुखद पहलू यह है कि इतनी बडी घटना के बाद भी स्त्री-सुरक्षा के सवाल अनुत्तरित हैं।
समस्याएं कई स्तरों पर
आख्िार क्या कारण है कि देश की राजधानी में आए दिन दुष्कर्म जैसी घटनाएं होती हैं और पुलिस-प्रशासन सोता रहता है? सार्वजनिक स्थलों, पार्कों, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट और सडकों पर छेडख़ानी, दुव्र्यवहार या रेप की घटनाएं होती हैं और कोई विरोध को आगे नहीं आता? लडकियां विरोध करें तो बदनामी का भय दिखा कर रोका जाता है, रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती और कई बार लडकी को ही पचडों में न पडऩे की नेक सलाह दे दी जाती है।
विरोध तो करना होगा
दिल्ली यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन कर रही शिल्पी मानती हैं ग्ालत का विरोध होना चाहिए। वह बताती हैं, 'मेरी सहेली को कुछ लडके परेशान कर रहे थे। वे बस स्टॉप पर खडे रहते। उसने पहले किसी को नहीं बताया, मगर ऐसा लगातार होने लगा तो उसने मुझे बताया। तब हम तीन-चार लडकियां एक साथ बस स्टॉप तक गए। लडकों ने कमेंट्स करने शुरू किए तो हमने उन्हें घेर लिया और पुलिस में शिकायत करने की धमकी दी। हमारे चिल्लाने से वहां लोग जमा हो गए। इसके बाद उन्होंने कान पकड कर माफी मांगी और आयंदा ऐसा न करने का वादा किया।
शिकायत नहीं सुनी जाती
दूसरी ओर दिल्ली के एक कॉल सेंटर में काम करने वाली मेधा बताती हैं, 'उनके फोन पर अलग-अलग नंबरों से अश्लील मेसेज्ा आते थे। वह एरिया के पुलिस थाने में शिकायत कराने गईं। वहां तैनात महिला पुलिसकर्मियों ने उन्हें ही समझाया कि इग्नोर करो, ऐसे लोगों के मुंह लगना बेकार है....।
जागरूकता की ज्ारूरत
दिल्ली की एक नाट्य संस्था से जुडी रिद्धि बताती हैं, 'लोगों में जागरूकता ज्ारूरी है। हम नाटकों के माध्यम से स्त्री सुरक्षा के सवाल उठाते हैं। यही वजह है कि अब हमारे साथ कई लडकियां भी जुड गई हैं।
चुप रहने से समस्याएं नहीं सुलझतीं, इसलिए ग्ालत का विरोध करना चाहिए। स्त्री सुरक्षित रहेगी-तभी समाज भी ख्ाुशहाल होगा।
सुरक्षित हो ज्िांदगी
पीडित को दोषी न बनाएं
यह विडंबना ही है कि हमारे समाज में कई बार पीडित को दोषी समझ लिया जाता है, जबकि अपराधी खुले घूमते हैं। ऐसी मानसिकता से बाहर निकलना ज्ारूरी है। आख्िार पीडिता को ही मुंह छिपाने की ज्ारूरत क्यों होती है? इस सवाल को लेकर बीते दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर में अवलोकन मंच की तरफ से नाटक 'कलंकित मैं नहीं का मंचन किया गया। कार्यक्रम में जागरण सखी ने मीडिया पार्टनर की भूमिका निभाई। नाटक में संदेश देने की कोशिश की गई कि तिरस्कार अपराधी का होना चाहिए-पीडिता का नहीं। समाज को अपना नज्ारिया बदलना चाहिए, ताकि पीडित सहज ज्िांदगी जी सके।
ग्ाौरतलब है कि हाल में निर्भया की मां ने भी अपनी बेटी का नाम उजागर करते हुए कहा कि उसका नाम ज्योति था और उन्हें यह छिपाने की कोई जरूरत नहीं है।
इंदिरा राठौर