बेटी के हक पर फिर से बहस
पैतृक संपत्ति में बेटी के हक को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ी हुई है। हाल-िफलहाल सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अधिकार बेटी को वर्ष 2005 में कानून में हुए संशोधन से पहले के मामलों में नहीं मिलेगा। ऐसा क्यों कहा गया और इसके निहितार्थ क्या हैं, बता रही
पैतृक संपत्ति में बेटी के हक को लेकर एक बार फिर बहस छिडी हुई है। हाल-िफलहाल सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अधिकार बेटी को वर्ष 2005 में कानून में हुए संशोधन से पहले के मामलों में नहीं मिलेगा। ऐसा क्यों कहा गया और इसके निहितार्थ क्या हैं, बता रही हैं सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता कमलेश जैन।
हाल-िफलहाल पैतृक संपत्ति में बेटी के हक को लेकर बहस का माहौल बना है। हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 की धारा 6 में वर्ष 2005 में हुए संशोधन द्वारा बेटी को पैतृृक संपति में बेटे के बराबर अधिकार प्राप्त हुआ है। प्रकाश तथा अन्य बनाम फूलवती तथा अन्य 2015 (11) स्केल-643 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले द्वारा यह बात साफ कर दी है कि अधिकार बेटी को तब प्राप्त होगा, जब संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर 2004 के बाद हुआ हो। इस तारीख्ा से पहले हुए बंटवारे में संपत्ति का यह अधिकार बेटी को नहीं मिलेगा। इसका कारण यह है कि यह कानून भविष्यगामी है। इसका पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं हो सकता।
संशोधन का अर्थ
यानी किसी भी बेटी को यह अधिकार संशोधन की तारीख्ा के बाद से मिलेगा, उसके पहले नहीं। इस तरह के संशोधन हमेशा भावी होते हैं। यदि बेटी और पिता दोनों ही 1 जनवरी 2005 को जीवित हैं, तभी 20 दिसंबर 2004 के बाद हुए संपत्ति के बंटवारे में यह अधिकार बेटी को मिलेगा, अन्यथा नहीं।
(इसी फैसले में कुछ और याचिकाओं में मुसलिम स्त्रियों के प्रति स्त्री-पुरुष में भेदभाव का सवाल भी उठाया गया। इसके लिए अदालत ने अलग से जनहित याचिका दायर करने की सलाह दी।)
क्या था मामला
उपरोक्त मामले में बेटी ने अपने पिता (मृत) येशवनाथ चंद्रकांत उपाध्याय से वह संपत्ति प्राप्त की जोकि उसके पिता ने ख्ाुद को गोद लेने वाली मां सुनंदा बाई से प्राप्त की थी। मामला यह था कि बेटी सिर्फ उस संपत्ति को प्राप्त कर सकती थी, जो उसके पिता द्वारा स्वयं अर्जित की गई हो। पैतृक संपत्ति में उसे संपत्ति का अधिकार नहीं है, जब हिंदू उत्तराधिकार कानून में वर्ष 2005 में संशोधन हुआ तो उसने पिता की पुश्तैनी जायदाद में भी हिस्सा मांगा। प्रतिपक्ष ने अपना मत रखते हुए कहा कि बेटी को यह अधिकार नहीं मिल सकता।
यह मुकदमा पिता की मृृृत्यु के चार साल बाद वर्ष 1992 में दाखिल किया गया। एक अदालत से दूसरी अदालत तक आते-आते इसमें एक दशक से ज्य़ादा का वक्त लग गया। यानी सितंबर 2005 में पैतृक संपत्ति में पुत्री को अधिकार देने संबंधी संशोधन भी पास हो गया। मामले में एक और बात जोड कर पुश्तैनी जायदाद में हिस्सा मांगा गया। प्रतिपक्ष ने कहा कि पिता की मौत वर्ष 2005 से पहले ही हो चुकी थी, इसलिए पैतृृृक संपत्ति में हिस्सा मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
कानून पूर्ववर्ती नहीं
कोर्ट का कहना था कि उत्तराधिकार तभी खुलता है जब व्यक्ति की मृृृत्यु हो जाती है। इसके अलावा कानून भावी है, पूर्ववर्ती नहीं। हालांकि बेटी के उत्तराधिकारियों ने कहा कि यह एक सामाजिक कानून है, इसलिए इसे स्त्रियों के प्रति भेदभाव वाला न होकर उनके हक में होना चाहिए। कारण यह है कि लॉ कमीशन की 17 वीं रिपोर्ट कहती है कि मौज्ाूदा कानून को भावी नहीं, पूर्ववर्ती समझा जाना चाहिए। बेटी को जन्म से यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए, भले ही उसके पिता की मृृृत्यु संशोधन आने से पहले हो गई हो। बंटवारे की संपत्ति को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए और दोबारा बंटवारा होना चाहिए। 20 दिसंबर 2004 से पहले हुए बंटवारे को नहीं माना जाना चाहिए, यदि उसका रजिस्ट्रेशन न हुआ हो। ऐसे में बेटी का हिस्सा कानून में संशोधन के बाद बढ जाएगा, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने कमीशन की राय को ठुकराते हुए कहा कि कानून की मंशा केवल भावी अधिकार देने की है, पूर्ववर्ती नहीं।
जीवित होना ज्ारूरी
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सामाजिक कानून होते हुए भी इस कानून का पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं हो सकता। इसकी वजह यह है कि इस कानून के प्रभावी होने के लिए 9 सितंबर 2005 को पैतृक संपति में हकदार पुत्री और पिता दोनों का जीवित होना आवश्यक है। पुत्री की मृत्यु यदि इस तारीख्ा से पहले हो जाती है, तो भी उसके उत्तराधिकारियों को पुत्री की पैतृक जायदाद से कुछ नहीं मिलेगा।
कमलेश जैन