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पहचाने अंतर्मन की शक्ति

अगर हम अच्छी सोच के साथ जीना सीख जाएं तो बुरी स्थितियां अपने आप ख्त्म हो जाएंगी।

By Edited By: Published: Sat, 10 Sep 2016 11:03 AM (IST)Updated: Sat, 10 Sep 2016 11:03 AM (IST)
पहचाने अंतर्मन की शक्ति
हमारे जीवन में आने वाले उतार-चढाव भी उतने ही स्वाभाविक हैं, जितना कि मौसम का बदलना, पेड-पौधों का मुरझाना और दोबारा उन पर नई कोपलें फूटना। जो व्यक्ति इस प्रक्रिया को सहजता से स्वीकारता है, वह सुख-दुख दोनों ही स्थितियों में संतुलित और समभाव रहता है पर कुछ लोग ऐसी मुश्किलों से बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। उनका आत्मबल कमजोर पडऩे लगता है। विधाता ने हम सभी को विपरीत परिस्थितियों से जूझने की शक्ति समान रूप से दी है पर कुछ लोग अपने अंतर्मन की इस ताकत को पहचान नहीं पाते और ऐसे ही लोग राह में आने वाली छोटी-छोटी बाधाओं से बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। अपने अंतर्मन की ताकत को पहचानने वाले लोग हर हाल में शांत और संयमित रहते हैं। अपने मन को हर हाल में संयमित रखना मनुष्य के लिए सबसे बडी चुनौती है। यह सच है कि मानव मन बेहद चंचल है। इसकी गति बिजली से भी तेज है। तभी तो श्रीमद्भगवदगीता जी में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-'इंद्रियां बलवान हैं, इंद्रियों से बलवान मन है और मन से भी ज्य़ादा शक्तिशाली है बुद्धि।' आम बोलचाल की भाषा में जब हम मनोबल बढाने की बात करते हैं तो हमें उसके शाब्दिक अर्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। मनोबल बढाने का वास्तविक अर्थ अपनी बुद्धि-विवेक को बलवान बनाने से है। मन को अगर कोई काबू कर सकता है तो वह है बुद्धि। मन में अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं। कुछ अच्छे तो कुछ खराब। भय, क्रोध, चिंता इत्यादि बुरे भाव हैं। प्रेम, सेवा, भक्ति, दान और निर्भयता अच्छे भाव हैं, जो हमेशा सद्बुद्धि से ही आते हैं। इसके लिए सबसे पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि मन के अवगुणों को दूर कर अच्छे गुणों को कैसे उत्पन्न किया जाए। घर-गृहस्थी, व्यापार, कार्यालय में कई बार मनुष्य का मनोबल कमजोर पड जाता है। डर के कारण वह अपने जीवन के उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता, जहां पहुंचना उसका उद्देश्य था। यहां हम मुख्यत: चार बिंदुओं पर बात करेंगे, जिससे मन के अवगुणों को दूर कर सद्गुणों को बढाया जा सके। जैसे ही आपके सद्गुणों की वृद्धि होगी, आप बडे से बडे संकटों से जूझने में सक्षम हो जाएंगे पर इसके लिए व्यक्ति के मन में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। ज्ञान एक साधना है, जिसे जीवन भर ऐसे ही अंगीकार करना पडता है जैसे कि स्वस्थ शरीर पाने के लिए हम नियमित व्यायाम और योगाभ्यास को अपनाते हैं। ठीक उसी तरह मानसिक शांति के लिए हमें अध्यात्म को भी अपनी जीवनशैली में प्रमुखता से शामिल करना चाहिए। वैराग्य है मार्गदर्शक आत्मबल बढाने के लिए सबसे जरूरी है-वैराग्य। यहां वैराग्य का तात्पर्य गृहस्थ जीवन को त्यागने से नहीं है, बल्कि परिवार में रहते हुए भी संतों जैसा आचरण अपनाने से है लेकिन हम दूसरों की सेवा और सहायता भी तभी कर सकते हैं, जब हमारे भीतर यह सब करने की शक्ति और योग्यता हो। इसलिए सबसे जरूरी है कि हम पहले स्वयं को समर्थ बनाएं। विमान यात्रा के दौरान आपने भी देखा होगा कि सुरक्षा सूचना के समय यह बताया जाता है कि आकस्मिक स्थिति में जब हवा का दबाव कम हो तो सबसे पहले आप अपना ऑक्सीजन मास्क पहनें। उसके बाद ही दूसरे की सहायता के बारे में सोचें। आपने भी कुछ ऐसे लोगों को देखा होगा, जो दुर्घटना या किसी भी प्रतिकूल स्थिति में दूसरों को देखकर बहुत ज्य़ादा दुखी होते हैं पर खुद उनकी मदद नहीं कर पाते। ऐसा तभी होता है, जब व्यक्ति के मन में वैराग्य न हो। अतीत से सीखें सच तो यह है कि कमजोर मनोबल बाहरी मुश्किलों से भी ज्य़ादा नुकसानदेह होता है। जरा अपने अतीत में झांक कर देखें कि इससे पहले भी जब कभी आपके जीवन में कोई परेशानी आई तो क्या आप उस समस्या से बाहर नहीं निकले? पिछले कुछ वर्षों में आने वाले दुखों को तो आप याद रखते हैं पर अनगिनत सुखों को भुला देते हैं। आज हमारे जीवन में जो भी हो रहा है, वह कुछ दिनों के बाद अतीत का हिस्सा हो जाएगा। इसलिए मुश्किल हालात में भी हमें यही सोचना चाहिए कि आज हमारे साथ जो भी हो रहा है उसमें भी भविष्य के लिए कोई न कोई अच्छाई ही छिपी होगी। करें खुद का सम्मान आत्मसम्मान के साथ जीने की कला हमारी बुद्धि को प्रबल बनाती है। बुरे से बुरे वक्त में भी आप दूसरों से दया पाने की उम्मीद कभी न रखें। हम सब एक ही परमेश्वर की संतान हैं। हम अंश हैं उस अमृत के, जो पूरी सृष्टि का आधार है। अमृत का अंश भी अमृत ही हुआ लेकिन इस बात को पूरी तरह अपने अंतर्मन में उतारने से पहले ईमानदारी के साथ विचारों और ज्ञान का गहन आत्ममंथन करना अति आवश्यक है। जिस तरह किसी भी वस्तु का मंथन करने पर उसमें मौजूद नुकसानदेह तत्व विष की तरह बाहर निकल आते हैं, ठीक उसी तरह अपने मन में मौजूद भावनाओं का मंथन करने के बाद उनमें से कुछ नकारात्मक बातें भी बाहर निकल आती हैं, जो व्यक्ति का मनोबल कमजोर कर सकती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि हमें अपने सभी अवगुण प्रभु को अर्पित कर देने चाहिए। इसी से बाद हमारी बुद्धि विकसित होगी। चाहे घर-परिवार हो या दफ्तर, हर जगह अपनी जिम्मेदारियों और संबंधों का निर्वाह करते हुए हमारे मन में हमेशा यही भाव होना चाहिए कि यह मैं स्वयं नहीं कर रहा, प्रकृति ने मुझे इस कार्य के निमित्त बनाया है। कर्म जब प्रभु के लिए किया जाएगा तो मनोबल कैसे कम होगा? इसके विपरीत जब केवल निजी स्वार्थ के लिए ही कर्म किया जाएगा तो मनोबल कैसे बढेगा? कुरुक्षेत्र है जीवन यह जीवन एक ऐसी रणभूमि है, जहां प्रतिदिन युद्ध हो रहा है। बाहरी युद्ध में तो हमें अपने शत्रुओं का पता होता है लेकिन इस युद्ध में तो असली शत्रु हमारा मन ही है। वास्तव में हम धर्म-क्षेत्र में थे परंतु मोह के कारण ही वह कुरुक्षेत्र बन गया। अब सवाल यह उठता है कि ऐसे युद्ध में हम जीतें कैसे? अंत:करण में भी वैसा ही बर्ताव करना पडेगा जैसे कि बाहरी युद्ध के लिए हम खुद को हथियारों से लैस करते हैं। उसी तरह मन के भीतर चलने वाले युद्ध में हमें वैराग्य का कवच पहनना पडेगा। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी कोई रणनीति बनानी होगी। हम सब अभिमन्यु की तरह हैं। हम इस संसार के चक्रव्यूह के भीतर तो घुस आते हैं पर उससे बाहर निकलने का रास्ता हमें नहीं मालूम। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही हमें इससे बाहर निकाल सकता है। शास्त्र ही वो शस्त्र हैं, जो मन के अवगुणों को निर्मूल करके हमारा मनोबल बढा सकते हैं। आज के जीवन में ऑफिस और घर-परिवार ही हमारा कर्म क्षेत्र है। अगर हम अपने कर्म क्षेत्र में निर्भय होकर दायित्वों का निर्वाह करें तो इससे न केवल हमारा आत्मबल बढेगा बल्कि हमारे जीवन से अज्ञान का अंधकार हमेशा के लिए दूर हो जाएगा। बात एक बार की प्राचीनकाल में किसी दानशील राजा की मृत्यु के बाद जब उसका बेटा राज सिंहासन पर बैठा तो उसने मंत्री से पूछा कि मेरे पिता जी किन लोगों को इतना दान देते थे? मंत्री ने कहा, 'महाराज आपके राज्य में बहुत से वैरागी व्यक्ति हैं, उनकीजरूरतें पूरी करने के लिए आपके पिता उन्हें दान देते थे।' उसकी बात सुनकर राजा ने किसी वैरागी व्यक्ति से मिलने की इच्छा व्यक्त की पर मंत्री को पूरे राज्य में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसके मन में कोई लोभ न हो। ऐसे में मंत्री ने एक नवयुवक से आग्रह किया कि वह राजा के सामने परम वैरागी होने का अभिनय करे। मंत्री ने बदले में उसे स्वर्ण मुद्राएं देने की भी पेशकश की और कहा कि अगर राजा तुम्हें दान में कुछ भी दें तो तुम लेने से मना कर देना। अगले दिन वही नवयुवक साधु के वेश में राजमहल के बाहर बैठ गया। राजा उस त्यागी व्यक्ति के दर्शन के लिए आए। उन्होंने उसे ढेर सारा धन देने की कोशिश की। यहां तक कि उसे राजगद्दी का भी प्रलोभन दिया परंतु उस नकली साधु ने कुछ भी लेने से साफ इंकार कर दिया। अंत में उसका आशीर्वाद लेकर राजा वापस चले गए। थोडी देर बाद मंत्री आया। उसने साधु के सामने स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली पेश की पर बार-बार इंकार करके उसके मन को इतना सुकून मिला कि वह वास्तव में वैरागी बन गया और उसने मंत्री के प्रलोभन को ठुकरा कर उसे वैराग्य की महिमा बताई। उसने कहा कि अगर वैराग्य के नाटक से इतना मनोबल बढता है तो असली वैराग्य कितना सुखद होगा? सच, ज्ञान और वैराग्य से ही हम जीवन का वास्तविक सुख हासिल कर सकते हैं।

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