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कितने आज़ाद हैं हम ?

नियम-कानून जि़ंदगी को व्यवस्थित तो बनाते हैं, पर उनकी इंतेहा किसी बंधन से कम नहीं होती है। आज़ाद होकर भी हम किसी न किसी तरह की कैद में हैं। कभी हम दकियानूसी विचारों के बंधन में जकड़े होते हैं तो कभी समाज की कुरीतियां हमें असंख्य बंधनों में बांध देती

By Edited By: Published: Fri, 25 Dec 2015 12:51 PM (IST)Updated: Fri, 25 Dec 2015 12:51 PM (IST)
कितने आज़ाद हैं हम ?

नियम-कानून जिंदगी को व्यवस्थित तो बनाते हैं, पर उनकी इंतेहा किसी बंधन से कम नहीं होती है। आजाद होकर भी हम किसी न किसी तरह की कैद में हैं। कभी हम दकियानूसी विचारों के बंधन में जकडे होते हैं तो कभी समाज की कुरीतियां हमें असंख्य बंधनों में बांध देती हैं। आइ.एम.एस. नोएडा के युवा विद्यार्थियों से हमने जाना कि इस खुले माहौल में वे कितना आजाद महसूस करते हैं।

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नियम-कानून जीवन व समाज में स्थिरता और व्यवस्था के लिए बनाए जाते हैं। उनका पालन भी हर किसी को करना चाहिए। पर, बच्चे हों या बडे, आजादी की चाह हर किसी को होती है। आज के दौर में कोई भी किसी भी तरह के बंधनों को स्वीकार नहीं कर पाता है। बंधन चाहे स्कूल-कॉलेज में हों या जॉब में, रिश्तों में हों या समाज में, किसी के लिए भी उनमें बंधना बेहद मुश्किल होता है। व्यक्ति ही क्यों, अगर किसी जानवर या पक्षी को भी कहीं बांध कर रखा जाता है तो वह विद्रोह करने लगता है। बंधन व नियमों के बीच के अंतर को समझते हुए ही उन्हें लागू करना चाहिए। ऐसा करने से नियमों की आंच भी रह जाती है और व्यक्ति का स्वाभिमान भी। स्ट्रिक्ट होना अच्छी बात है, पर उसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं वह किसी के निजी अधिकारों को ख्ात्म तो नहीं कर रही। यदि ऐसा हो तो उनमें बदलाव करना चाहिए।

मिलें समान अवसर

आजादी इतनी होनी चाहिए कि बच्चे उसका गलत फायदा न उठा पाएं। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारे घरवाले हमें बाहर निकलने तो देना चाहते हैं पर समाज के डर से वे चुप रह जाते हैं। एक ही घर में रहते हुए अकसर बेटी व बेटे के लिए अलग-अलग नियम होते हैं, जो कि बहुत ही गलत है। इससे पता चलता है कि बंधनों की कोई लिमिट ही नहीं है। हर स्तर पर जबर्दस्ती के नियम भी लगाए गए हैं। मेरे ख्ायाल से सबको समान रूप से अपनी जिंदगी जीने का अवसर मिलना चाहिए। प्रोफेशन चुनने की आजादी और पर्सनल लाइफ जीने का हक हर किसी को मिलना चाहिए। किसी की लाइफ से जुडे जरूरी फैसले लेने का हक उस व्यक्ति का ही होना चाहिए। अगर कोई गलत निर्णय ले रहा हो तो फिर उसे सही तरीके से समझाना चाहिए।

ज्यादा बंधन ठीक नहीं

बात अगर कॉलेज लेवल की हो तो मुझे ऐसा लगता है कि डिसिप्लिन यूनिफॉर्म से नहीं, बल्कि संस्कारों से आता है। पेरेंट्स हमारी िफक्र करते हैं, इसलिए रोकते-टोकते हैं। मुझे इतनी आजादी मिली हुई है कि अपनी लाइफ के जरूरी फैसले ख्ाुद ही ले सकूं। मैं अपनी फेमिली के साथ बहुत ही फ्रैंक हूं। उनसे आसानी से अपने फ्रेंड्स की बातें शेयर कर पाता हूं। उसके अलावा भी मुझे उनसे कुछ कहने के लिए ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं होती है। मेरे ख्ायाल से यूथ को बिना मतलब के बंधनों में नहीं बांधना चाहिए।

बंदिशें समाज की हैं

मुझे लगता है कि लाइफ में हमेशा ही रूल्स बहुत जरूरी होते हैं। मैं बहुत ज्यादा सोशल नहीं हूं। इसलिए मेरे घरवालों को तो मुझ पर किसी भी तरह की नजर नहीं रखनी पडती है। हॉस्टल्स में भी बंदिशें हमें बेहतर बनाने के लिए ही होती हैं। दुख इस बात का है कि समाज की जो हालत है, उसकी वजह से हम चाह कर भी आजादी से जी नहीं पाते हैं। बाकी चीजों के लिए क्या कहूं, हमारे बेसिक राइट्स तक से हमें वंचित रखा जाता है। न बोलने की आजादी सही तरीके से मिलती है, न ही मनमुताबिक कुछ पहनने-ओढऩे की। एक आजाद आसमां की चाह में हम अपने कदम बाहरी दुनिया में निकालते तो हैं पर बेडिय़ां हमें वहां भी जकड ही लेती हैं। उसकी वजह से हमारा आत्मविश्वास भी डगमगाने लगता है।

आजादी है अहम

मेरे घरवालों ने मेरे लिए अपनी तरफ से कोई रूल्स नहीं बनाए हैं, पर मैं ख्ाुद ही हर बात का ख्ायाल रखती हूं। मेरे फेमिली मेंबर्स बहुत फ्रैंक हैं। वे मेरी पढाई और करियर से जुडी हर बात का बहुत ध्यान रखते हैं। मैं अपनी आजादी का गलत फायदा भी नहीं उठाती हूं। हर चीज की लिमिट मैंने ख्ाुद ही तय कर रखी है। इसका फायदा यह होता है कि अपनी गलतियों से मुझे सीखने का मौका मिलता है। सही-गलत का फर्क भी समझाती है आजादी। इससे एक स्टूडेंट का बेहतर विकास होता है।

जी सकती हूं जिंदगी

बात किसी भी क्षेत्र की हो, आजादी हर जगह बहुत जरूरी होती है। पर उसके साथ ही एक लिमिट भी तय होनी चाहिए जिससे कि व्यक्ति को सही दिशा मिल सके। मुझे अपनी लाइफ से जुडे अहम फैसले लेने की आजादी है। कभी-कभी घर में कुछ बातों को लेकर हेल्दी डिस्कशन भी होता रहता है। इससे किसी टॉपिक को लेकर घर के हर सदस्य की राय सामने आ जाती है। मेरे फ्रेंड्स भी मेरे पेरेंट्स से परिचित हैं, सबका घर में आना-जाना रहता है। कोई ख्ाास वजह हो तो मैं 8:30-9 बजे तक घर के बाहर भी रह सकती हूं। लेट होने पर घरवालों को कॉल करना मैं अपना दायित्व समझती हूं, न कि कोई बंधन।

आती है जिम्मेदारी

सबसे पहली बात तो यही है कि इंडिया में लडकियों और लडकों को बराबर की फ्रीडम नहीं दी जाती है। माना कि माहौल असुरक्षित है, पर उसे ऐसा बनाने वाले भी तो यहीं के लोग हैं। मुझे ऐसा लगता है कि सबको समान आजादी मिलनी चाहिए। जब आप अपने फैसले लेने के लिए आजाद होते हैं तो जिम्मेदारी का भाव भी आ जाता है। जब मैं सही होती हूं तो अपनी बात शालीनता से सबके सामने रखती हूं। इससे दूसरों का मुझ पर विश्वास बना रहता है। मुझे कहीं से आने में देर हो जाती है तो घर पर बता देती हूं। अपने पर्सनल स्पेस और टाइम को मैं बख्ाूबी एंजॉय करती हूं।

प्रस्तुति : दीपाली पोरवाल


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