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न छोड़ें उम्मीदों का साथ

दिन-रात की तरह आशा और निराशा भी हमारे जीवन का अटूट हिस्सा है लेकिन कुछ लोग प्रतिकूल स्थितियों से बहुत जल्दी निराश हो जाते हैं। ऐसे में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रात चाहे कितनी ही अंधेरी क्यों न हो पर उसके बाद सवेरा होता ही है...और यही उम्मीद हमें निराशा जैसी नकारात्मक भावना से बचाए रखती है।

By Edited By: Published: Wed, 16 Nov 2016 12:24 PM (IST)Updated: Wed, 16 Nov 2016 12:24 PM (IST)
न छोड़ें उम्मीदों का साथ
जीने की इच्छा ही व्यक्ति को उसके लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है। अगर मन में उम्मीदें न हों तो लक्ष्य दूर नजर आने लगता है, जिससे धीरे-धीरे निराशा की भावना पैदा होने लगती है। सबहिं नचावत राम गोसाईं असफलता से उपजी निराशा व्यक्ति में कुंठा पैदा करती है। इसलिए जब भी हमारे सामने कोई ऐसी स्थिति आए तो हमें उससे उबरने का प्रयास करना चाहिए। हमारे जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसमें मनुष्य की भूमिका पहले से ही तय है। वह तो केवल कर्ता मात्र है और नियति पर उसका कोई वश नहीं। कारण और कारक दोनों ही वह सर्वशक्तिमान सत्ता है, जो इस पूरी व्यवस्था का संचालन कर रही है। इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है, 'सबहिं नचावत राम गोसाईं।' हालांकि हमें इसके शाब्दिक अर्थ के बजाय इसकी गूढ अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसका आशय यह नहीं है कि मनुष्य अपना कर्म छोड कर भाग्य भरोसे बैठा रहे। उसे कर्म के विधान का पालन करते हुए नियति पर भी विश्वास करना चाहिए, तभी वह एक सफल जीवन जी सकता है। निष्काम कर्म योग गीता में भी स्पष्ट कहा गया है कि कर्म पर हमारा अधिकार है, फल पर नहीं। इससे यह बात सुनिश्चित हो जाती है कि हमें निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। अध्यात्म में निष्काम साधना को अहम बताया गया है। सकाम साधना में उपलब्धि का लक्ष्य सीमित हो जाता है, जबकि निष्काम साधना में इसकी अनंत संभावनाएं हैं। कर्म में रत होते हुए, जब कभी व्यक्ति को निराशा से दो-चार होना पडे तो उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए, जो वाकई हमारे प्रेरणास्रोत हैं। इससे हमें निराशापूर्ण मन: स्थिति से उबरने में मदद मिलती है। कुरुक्षेत्र में अपने परिजनों को सामने देखकर जब अर्जुन को मोह हुआ तो उनको इस स्थिति से उबारने के लिए लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण को विराट रूप धारण करना पडा। प्रेम जब मोह का रूप धारण कर लेता है तो वह संस्कारों, परंपराओं, मर्यादाओं, सिद्धांतों, नीतियों और आदर्शों के क्षरण का कारण बनता है। ऐसे में व्यक्ति के लिए आत्मचिंतन अति आवश्यक है। आत्मा के बारे में गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि न तो इसे शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है, न पानी भिगो सकता है और न ही हवा सुखा सकती है। इसलिए व्यक्ति को मृत्यु के भय से मुक्त कर पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। गुरु का मार्गदर्शन निराशा दो प्रकार की होती है। पहली सांसारिक तथा दूसरी पारलौकिक। व्यक्ति जब कुछ पाने की लालसा के साथ कर्म करता है तो उसमें उसका स्वार्थ जुडा होता है। किसी कारणवश जब वह स्वार्थ पूरा नहीं होता तो निराशा होती है। जहां तक पारलौकिक निराशा की बात है तो वह साधना में एकाग्रता की कमी का संकेत है। जिस दिन यह एकाग्रता पूर्ण आकार ले लेती है, साधक की निराशा समाप्त हो जाती है। इस स्थिति से बचने के लिए व्यक्ति को गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। गुरु ही शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में सक्षम है। इसलिए व्यक्ति को किसी भी निराशा की स्थिति में गुरु की शरण में जाना चाहिए। हमारे सभी धर्मग्रंथ, वेद-पुराण और श्रुतियों में गुरु की श्रेष्ठता को स्वीकारा गया है। जीवन में सदाचारी होने की बात सभी मतों व पंथों में की गई है। इसलिए हमें सदाचरण का अनुगामी होना चाहिए। ऐसे में जब हम निष्काम कर्म के कर्मयोगी बन जाते हैं तो लाभ-हानि और सुख-दुख जैसी भावनाएं हमारे जीवन को प्रभावित नहीं कर पातीं। आत्म-चिंतन है आवश्यक नैराश्य की स्थिति से बचाव अथवा उससे मुक्ति में अध्यात्म का अहम योगदान है। अध्यात्म अधि तथा आत्म दो शब्दों के संयोग से बना है। इसका अर्थ है-आत्मा का अध्ययन और चिंतन। दुनिया की नजरों से देखें तो मनुष्य को अध्यात्म ही नैराश्य की स्थिति से बचाने में सहायक है। जबकि इस दर्शन का दूसरा पहलू यह भी है कि नैराश्य किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान का कारण भी बन सकता है। कुछ संतों का तो यह भी कहना है कि दुनियादारी के प्रति नैराश्य ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है पर यह साधना का अत्यंत जटिल पक्ष माना जाता है। आम आदमी का जीवन इससे पूरी तरह से अलग होता है। उसे अपनी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए सकारात्मक सोच के साथ जीवन में आगे बढऩा चाहिए। इसी क्रम में वह योग मार्ग का भी आश्रय लेकर लौकिक और आध्यात्मिक उत्थान का अनुगामी हो सकता है। समता योग का दर्शन गीता में अर्जुन को संबोधित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम जय और पराजय की भावना से परे होकर अपने निर्धारित कर्म करो। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में कर्म पूर्व निर्धारित है। हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह पहले से ही ईश्वर ने हमारे लिए तय कर रखा है। गीता के दर्शन में यही भावना समता योग कहलाती है। व्यक्ति जब इसके अनुसार कर्म करेगा तो निश्चित रूप से वह नैराश्य से दूर रहेगा। हमें सुख-दुख को सम भाव से देखना चाहिए। यदि हम ऐसा करने में सक्षम हो जाएं तो हर हाल में प्रसन्न और संतुष्ट रहेंगे। इससे हमारी आधी से भी ज्य़ादा परेशानियां अपने आप दूर हो जाएंगी। स्वार्थ की बेडिय़ां जीवन का एक अहम पक्ष यह भी है कि आखिर हम निराश क्यों होते हैं? दरअसल आज इंसान स्वार्थ की बेडिय़ों में जकडा हुआ है, जिसकी वजह से कई बार वह अपने परिवार और समाज को नजरअंदाज करने लगता है। रिश्तों के प्रति यह गैर जिम्मेदारी भी एक सीमा के बाद व्यक्ति में निराशा पैदा करती है, जो आगे चलकर हताशा और कुंठा का कारण बनती है। जहां तक संभव हो, हमें ऐसी वजहों से दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए। हम सभी के लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि आज हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा है। ...तो फिर हमारे निराश होने का कोई मतलब नहीं रह जाता लेकिन मनुष्य माया के प्रपंच में इस तरह खो गया है कि वह जीवन के मूल उद्देश्य से ही भटक गया है। इसी वजह से संत कबीरदास ने माया को महाठगिनी भी कहा है। मूल तथ्य यह है कि जब हम दूसरों से बहुत ज्य़ादा पाने की आशा रखते हैं और वह पूरी नहीं हो पाती तो ऐसे में निराशा स्वाभाविक है लेकिन इसके लिए दूसरों को दोषी ठहराना अनुचित है। मनुष्य हमेशा अत्यधिक लालसा से ही निराश होता है। अगर हम अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखें तो निराशा हमारे पास कभी नहीं फटकेगी। समाज के प्रति हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए, तभी हम अपने मूल लक्ष्य को पा सकते हैं। छोटी-छोटी विफलताओं के बारे में बहुत ज्य़ादा सोचने की आदत हमारे व्यक्तिगत और अध्यात्मिक विकास में सबसे बडी बाधक है। आज हर व्यक्ति केवल अपने बारे में सोचता है और वह परमार्थ की भावना को भूलता जा रहा है लेकिन यह इस समस्या का केवल एक पक्ष है। ऐसा कतई नहीं है कि हम इस समस्या से उबर नहीं सकते। अपनी दृढ इच्छाशक्ति, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था और आत्मविश्वास के बल पर हम बहुत आसानी से इस नैराश्य का प्रतिकार कर सकते हैं। बात एक बार की बहुत पुरानी बात है। किसी गांव में एक साधु रहता था। उसमें कोई ऐसी अलौकिक शक्ति मौजूद थी कि वह जब भी नाचता तो बारिश होने लगती। इसलिए जब भी वहां सूखा पडता, लोग उससे नृत्य करने का अनुरोध करते और उसके बाद सचमुच पानी बरसने लगता। एक बार किसी दूसरे नगर से कुछ युवक उस गांव में घूमने आए और उन्होंने अहंकार में आकर उस साधु को चुनौती दे दी कि हम भी नाचकर देखते हैं कि क्या ऐसा करने से सचमुच बारिश होती है? अगर हमारे नाचने से बारिश नहीं हुई तो इसका यही मतलब होगा कि साधु के नाचने से भी नहीं होगी। फिर अगले दिन गांव वाले उन लडकों को लेकर साधु के पास गए और अपनी शर्त के अनुसार उन लडकों ने नाचना शुरू कर दिया। वे थकने लगे और घंटे भर में ही तीनों पसीने से सराबोर हो गए, उनकी सांस फूलने लगी और कदम लडख़डाने लगे। फिर एक-एक करके वे जमीन पर गिर पडे। फिर भी बारिश नहीं हुई। अब साधु की बारी थी, उसने नाचना शुरू किया। वह दो घंटे तक लगातार अपनी ही धुन में नाचता रहा पर बारिश का कहीं भी नामोनिशान नहीं था। इस पर भी साधु रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। धीरे-धीरे शाम ढलने लगी। एकाएक तभी चमत्कार हुआ, बादलों की गडग़डाहट सुनाई देने लगी। कुछ ही पलों बाद मूसलाधार बारिश होने लगी। यह देखकर लडके दंग रह गए। उन्होंने साधु से क्षमा मांगते हुए पूछा कि यह कैसे संभव हुआ तो उसने कहा कि मैं न तो चमत्कार करता हूं और न ही मेरे पास कोई अलौकिक शक्ति है। मैं जब भी नाचता हूं तो केवल दो बातों का ध्यान रखता हूं, पहली बात- मैं यह सोचता हूं कि अगर मैं नाचूंगा तो बादलों को बरसना ही पडेगा और दूसरी बात यह है कि मैं तब तक नाचूंगा, जब तक कि बारिश न आ जाए। इस कथा का मूल संदेश यही है कि अगर हम सकारात्मक सोच के साथ प्रयास करें तो हम कभी भी विफल नहीं होंगे। आभार : achhikhabar.com

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