पति के सहयोग से दूर हुआ डिप्रेशन
रिश्तों की जटिलता का असर कई बार इतना गहरा होता है कि वह व्यक्ति को डिप्रेशन का मरीज़ बना देता है। एक ऐसी ही समस्या को कैसे सुलझाया गया, बता रही हैं मनोवैज्ञानिक सलाहकार विचित्रा दर्गन आनंद।
एक रोज मुझसे मिलने एक स्त्री आई। उसकी उम्र तकरीबन 50 वर्ष रही होगी। उसकी आंखें देख कर ऐसा लग रहा था कि वह कई रातों से सो नहीं पाई है। उसने मुझे ख्ाुद ही बताना शुरू किया, 'पिछले बीस वर्षों से मैं कई तरह की पारिवारिक परेशानियों से जूझ रही हूं। मैंने अपनी तरफ से बहुत कोशिश की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। इसीलिए मजबूरन मुझे आपके पास आना पडा।
समस्या की जडें
उसने मुझे जो कुछ भी बताया, उसका सारांश यह था कि उसके पति सरकारी सेवा में थे, वह ख्ाुद भी एक स्कूल मेें जॉब करती थी। वह पति, सास-ससुर और अपनी दो बेटियों के साथ संयुक्त परिवार में रहती थी। उसकी एक विवाहित ननद की ससुराल उसके घर से ज्य़ादा दूर नहीं थी। इसलिए हर वीकेेंड पर वह अपने पति और बच्चों के साथ मायके चली आती थी। वह अकसर अपनी मां को भाभी के ख्िालाफ भडकाने की कोशिश करती। ससुराल में उसे कोई कमी नहीं थी। पति का बिजनेस भी अच्छा चल रहा था, पर वह स्वभावत: लालची थी और उसके बच्चों में भी ऐसी ही आदत थी। वह जब भी आती तो अपनी भाभी का कोई न कोई सामान उठा कर चली जाती। काउंसलिंग के दौरान एक बार सुधा (परिवर्तित नाम) ने मुझे बताया कि जब भी उसकी ननद मायके आती तो कुछ ऐसी बातें जरूर कर जाती, जिससे पति-पत्नी या सास-बहू के बीच अनबन हो जाती। सुधा का कहना था कि उसकी दोनों बेटियां भी ननद की टीनएजर लडकियों की हमउम्र थीं। वे भी अपनी मां की तरह कजंस का कोई भी सामान उनसे पूछे बिना उठा कर ले जातीं। इसलिए लडकियों को बहुत दुख होता, पर वे अपने पिता से कुछ भी कह नहीं पाती थीं। लगातार ऐसे माहौल मे रहने की वजह से धीरे-धीरे सुधा को डिप्रेशन ने घेरना शुरू कर दिया था।
तसवीर का दूसरा रुख्ा
अब मेरे लिए यह भी जानना जरूरी था कि कहीं सुधा अपनी चीजों या रिश्तों को लेकर ज्य़ादा पजेसिव तो नहीं है। इसीलिए अगली सिटिंग में मैंने उसके पति को भी बुलाया और जब मैंने उससे बातचीत की तो ऐसा लगा कि वह भी सुधा की परेशानी समझते हैं, पर अपने माता-पिता या छोटी बहन के सामने कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। मैंने आशीष को समझाया कि माता-पिता और विवाहित बहन का ख्ायाल जरूर रखना चाहिए, पर यह न भूलें कि पत्नी और बेटियों की पूरी जिम्मेदारी आपके ऊपर है। उन्हें आपके प्यार भरे संरक्षण की जरूरत है। तब उसके पति ने मुझसे पूछा कि इसके लिए मुझे क्या करना होगा? मैंने उसे समझाया कि एक सप्ताह की छुट्टी लेकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कहीं घूमने चले जाएं। यह सुनते ही वह कहने लगे कि नहीं, अगर मम्मी-पापा और बहन को साथ नहीं ले गया तो वे नाराज हो जाएंगे। फिर मैंने उन्हें समझाया कि यह सुधा के ट्रीटमेंट का ही एक हिस्सा है। उसे यह एहसास दिलाना बहुत जरूरी है कि आप उसका ख्ायाल रखते हैं। ख्ौर, उसके पति ने मेरी बात मान ली। मैंने सुधा को भी समझाया कि वह अपनी ननद की ऐसी बातों को गंभीरता से न ले और उससे बहुत ज्य़ादा बातचीत न करे।
उम्मीद की नई किरण
एक महीने बाद जब सुधा मुझसे मिलने आई तो पहले की तुलना में वह काफी संयत लग रही थी। उसने मुझे बताया कि अब आशीष उसका पूरा ख्ायाल रखते हैं और ननद के व्यवहार में भी बदलाव आ रहा है। इस बीच मैंने उसके पति से भी बातचीत की तो उन्होंने कहा कि वाकई मैं अपनी जिम्मेदारियों को भूल रहा था। अब मैं अपने सभी रिश्तों के बीच संतुलन बना कर चलने की कोशिश करता हूं। इसलिए अब सुधा के व्यवहार में काफी बदलाव नजर आ रहा है और घर का माहौल भी सुधर गया है। लगभग छह महीने के भीतर आठ-दस सिटिंग्स में यह समस्या सुलझ गई। सबसे अच्छी बात यह थी कि इस दौरान सुधा के पति ने काफी सहयोग पूर्ण रवैया अपनाया। अगर परिवार के सदस्य साथ दें तो व्यक्ति के लिए डिप्रेशन से बाहर निकलना आसान हो जाता है।