सुबह के ये सेहतबाज
जॉगर्स पार्क यानी सेहत का पार्क। यहां फिटनेस फ्रीक्स ही नहीं आते, फूल-पौधे-पर्यावरण प्रेमी, कीर्तन-भजन और राजनीतिक चर्चाएं करने वाले लोग भी आते हैं। कुछ प्रेमी जोड़ों के लिए यह आदर्श मीटिंग पॉइंट भी होता है। सेहत बनानी हो तो अलस्सुबह उठ कर जॉगर्स पार्क जाएं।
सुबह-सुबह जब पंछी चहचहाते हैं, ओस की बूंदें पत्तियों पर इठलाया करती हैं, बादलों से आंख मिचौली खेलता सूरज क्षितिज के पार से झांकने लगता है और कायनात गहरी नींद से जाग कर नए दिन का आगाज करती है, जॉगर्स पार्क में चहल-पहल शुरू हो जाती है। कुछ लोग ट्रैक पर दौडते-हांफते दिखते हैं, कुछ योग में तो कुछ योगनिद्रा में लीन नजर आते हैं। बच्चों को छुपम-छुपाई खेलने में मजा आता है तो स्त्रियां गपशप के साथ पूजा के फूल भी तोड लाती हैं...।
जॉगर्स पार्क का मुआयना हमारी दुस्साहसी नजरों ने लिया तो कुछ भीषण नजारे भी देखने को मिले-
फूल आहिस्ता तोडो
रंग-बिरंगे बेशुमार मौसमी फूल पार्कों की शोभा बढाते हैं। यूं तो यहां एक बोर्ड भी लगा होता है-'फूल तोडऩा मना है', मगर निषिद्ध को सिद्ध कर दिखाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। फूल दिखे नहीं कि आंटियों की आंखों में अजब चमक आ जाती है। चुन-चुन कर एक-एक फूल पूजा की टोकरी में यूं समाने लगते हैं, मानो आज के बाद प्रलय हो जाएगी और फूलों का नामोनिशान तक धरती से मिट जाएगा। किसी देवता को लाल फूल पसंद हैं तो किसी को सफेद और कुछ भक्त द्वारा पीले फूल चढाने पर प्रसन्न होते हैं। हालांकि मासूम और बेजुबान फूलों को कुर्बान होते देख कुछ प्रकृतिप्रेमी नाक-भौं सिकोडते हैं, मगर प्रत्यक्ष में कुछ बोल नहीं पाते। पार्क पर सबका बराबर अधिकार जो है और फिर मुफ्त में फूल मिल रहे हैं तो पूजा के लिए फूल बाजार से भला क्यों ख्ारीदे जाएं!
तुझसे मिलने आई पार्क के बहाने
'हां-हां डार्लिंग शाम के ठीक पांच बजे, वहीं मिलेंगे.....अरे उसी जॉगर्स पार्क में। ' प्रेमी ने मोबाइल घनघना दिया और सज-धज कर प्रेमिका जी आ गईं। एकांत में मिलने के बजाय पार्क की भीडभाड में मिलने के कई फायदे हैं। लोग सोचते हैं कि सेहत बनाने आए हैं। यह बात सही भी है। आख्िार प्रेम की सेहत भी तो मिलने-जुलने से ही सही रहती है। कुछ ख्ातरे भी हैं यहां मिलने के। कौन जाने, कब संस्कृति के रखवालों की नजर इन प्रेमी जोडों पर पड जाए और प्रेमगाह प्रेम की कत्लगाह बन जाए। चंद बुजुर्गवार भी इस मेल-मिलाप पर घोर आपत्ति दर्ज करते हैं, 'शर्म-लिहाज तो बेच ही खाई है इस पीढी ने।' यह अलग बात है कि वे अपने जमाने के बडे इश्कजादे रहे हों, मगर अपने दिन तो सभी भूल जाते हैं।
लाफ्टर क्लब
हर जॉगर्स पार्क में एक लाफ्टर क्लब होता ही है। दिन भर बॉस की झिडकियां झेलते और घर में बीवी की गर्जना से भयभीत ये लोग जॉगर्स पार्क में सारी कसर निकालते हैं। इनका अट्टहास और भीषण हंसी सुन आते-जाते लोग हंसना भूल जाते हैं। इस क्लब के सदस्यों की समवेत हंसी गूंजती है तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो कई शेर एक साथ दहाड रहे हों। नन्हे बच्चे इन्हें देख मां के आंचल में दुबक जाते हैं, आवारा कुत्ते भौंकने लगते हैं, गाडिय़ों पर झटके से ब्रेक लग जाते हैं, चहचहाते पंछी कुछ पल ख्ाामोश हो जाते हैं। इस रौद्र हंसी को देख कर कमजोर दिल वाले अपने दिल पर हाथ रख लेते हैं।
असंभव आसन-प्रेमी
योग क्रांति भारत में जनांदोलन का रूप ले चुकी है। लोग योग के आकर्षण में कुछ इस तरह बंध चुके हैं कि 'बिन योग सब सून' है इनके लिए। जॉगर्स पार्क में हरी-भरी घास पर बैठे इन योग-प्रेमियों को कई बार असंभव आसन करते देखा जा सकता है। यूं तो इनके तोंद का व्यास कभी कम नहीं होता, सांस फूलती है और जरा सी देर में हांफने लगते हैं, मगर अपने पैरों को पीछे की ओर से आगे लाने और हाथों को सिर के पीछे ले जाकर पैर पकडऩे की योग-कला में ये इतने उलझ जाते हैं कि ख्ाुद से ही गुत्थमगुत्था हो जाते हैं। इन असंभव आसन-प्रेमियों को देख कर बेसाख्ता मुंह से निकलता है- हे ऊपर वाले, इन्हें माफ करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आजकल जॉगर्स पार्क के आसपास िफजियोथेरेपिस्ट की कई दुकानें भी सजने लगी हैं, जो इन्हीं फिटनेस के दीवानों की बदौलत फल-फूल रही हैं।
राजनीति और भजन
पार्क में कुछ बुजुर्ग भगवद्-भजन में लीन दिखाई देते हैं। ये आमतौर पर घर-परिवार से उपेक्षित, अनुपयोगी मान लिए गए बूढे होते हैं। हालांकि ये सिर्फ कीर्तन ही नहीं करते, कई बार राजनीतिक बहसें करते भी दिखते हैं। अचानक किसी दिन शांत-शालीन दिखने वाले अंकल जी तेज स्वर से चिल्लाने लगते हैं, 'भाईसाहब इस बार तो ए ही जीतेगा....', 'अरे नहीं-नहीं जी, इस बार तो बी जीतेंगे..', दूसरे सज्जन भविष्यवाणी करते हैं। नजारा कुछ-कुछ पार्लियामेंट जैसा ही हो जाता है। कई बार तो बहस इतनी बढती है कि दोस्तों को बीच-बचाव करना होता है और बीपी मशीन लाकर ब्लडप्रेशर चेक करना पडता है। गर्मागर्म बहसों के बाद आख्िार शांति का प्रस्ताव पारित होता है, 'जाने दीजिए भाईसाहब हम ख्ाामखां क्यों बहस करें। ए आएं या बी, हम बुजुर्गों के लिए सोचने वाला कोई नहीं है।' मगर अगले दिन फिर कोई नया मुद्दा तैयार हो जाता है। क्रिकेट और बॉलीवुड इनके प्रिय विषय होते हैं। धोनी के टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेने पर इतने निराश होते हैं कि क्रिकेट देखने से ही संन्यास ले लेते हैं।
डंबल्स परेड
स्कूल्स में पीटी क्लास या जिम में डंबल्स से एक्सरसाइज सभी ने की है। मगर पार्क में बडी-बडी लाठियों के साथ एक्सरसाइज करते कुछ लोग भी अकसर दिखाई देता है। ये डंडे से ख्ाूब कलाबाजियां दिखाते हैं। इस क्रम में कई बार पीछे वाले के सिर पर डंडा बज जाता है और वह बेचारा सिर पकड कर बैठ जाता है। लेकिन तभी सीटी सुनाई देती है और वह बेचारा सिर का दर्द भूल कर उठ खडा होता है। डंडे के साथ जुबान की चाबुक भी चलती रहती है। डंडा व्यायाम के बाद अकसर गोल घेरे में बैठ कर चाय का दौर चलता है। जोश थोडा ज्य़ादा बढता है तो भजन-कीर्तन या फिल्मी गीतों का दौर शुरू हो जाता है। नख-शिख व्यायाम यानी फुल बॉडी एक्सरसाइज इसी को कहते हैं।
प्रकृति के दुश्मन
ता-उम्र इन्होंने शायद कभी एक पौधा भी न लगाया हो, मगर दातुन तो जी नीम की ही करेंगे। वैद्य जी ने कह जो दिया है कि विदेशी टूथपेस्ट के बजाय दातुन करें। नीम का पेड दिखा नहीं कि ये उसे गंजा करने पर तुल जाते हैं। एक दातुन के लिए पूरी एक शाख्ा को बेदर्दी से तोडते हैं। इनकी देखा-देखी कुछ और दातुन-प्रेमी भी वहां आ जाते हैं और एक हफ्ते में ही हरा-भरा हंसता हुआ नीम ठूंठ बन कर रह जाता है अपनी किस्मत पर रोता हुआ सा। प्रकृति के ये दुश्मन फिर कोई दूसरा नीम तलाशते हैं ताकि उसे भी बर्बाद कर सकेें। ऐसे लोगों की दांतों की रक्षा के लिए शहर भर के नीम शहीद हो रहे हैं।
इंदिरा राठौर
इलस्ट्रेशंस : श्याम जगोता