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हेल्थ वॉच

अधिक वसायुक्त भोजन न केवल मोटापा बढ़ाता है, बल्कि इससे डिप्रेशन भी हो सकता है। फ्रेंच शोधकर्ताओं के अनुसार वसायुक्त भोजन व्यक्ति के मस्तिष्क में कई बदलाव ला सकता है, जिससे उसे डिप्रेशन जैसे मनोरोग हो सकते हैं। यह अध्ययन चूहों पर किया गया था, जिसमें यह पाया गया कि

By Edited By: Published: Tue, 24 Nov 2015 03:55 PM (IST)Updated: Tue, 24 Nov 2015 03:55 PM (IST)
हेल्थ वॉच

डिप्रेशन बढाती हैं वसायुक्त चीजें

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अधिक वसायुक्त भोजन न केवल मोटापा बढाता है, बल्कि इससे डिप्रेशन भी हो सकता है। फ्रेंच शोधकर्ताओं के अनुसार वसायुक्त भोजन व्यक्ति के मस्तिष्क में कई बदलाव ला सकता है, जिससे उसे डिप्रेशन जैसे मनोरोग हो सकते हैं। यह अध्ययन चूहों पर किया गया था, जिसमें यह पाया गया कि अधिक वसायुक्त चीजें खाने से चूहों में अवसाद का स्तर बढ गया। शोधकर्ताओं के अनुसार अधिक वसायुक्त भोजन डिप्रेशन दूर करने वाली दवाओं के असर को भी कम कर देता है। पेरिस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रूनो ग्यूयार्ड के अनुसार फैट की अधिक मात्रा मेटाबॉलिज्म की प्रक्रिया को असंतुलित कर देती है, जो कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं के लिए भी जिम्मेदार होती है। यह शोध वैसे मरीजों के इलाज में काफी मददगार साबित होगा, जिन्हें डायबिटीज के साथ डिप्रेशन की भी समस्या होती है।

ब्रेक लें कार्यक्षमता बढाएं

अगर आप लगातार घंटों बैठकर काम करते हैं तो यह आपकी सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। हाल ही में किए गए एक शोध के अनुसार इससे ब्लड शुगर का लेवल बढ सकता है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या से बचने के लिए लोगों को हर दो-तीन घंटे के अंतराल पर कुछ मिनटों का ब्रेक लेकर थोडी चहलकदमी करने की सलाह दी है। यह तरीका विद्यार्थियों के लिए भी फायदेमंद साबित होता है। अमेरिकी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के प्रमुख शोधकर्ता जैक यानुवॉस्की का कहना है कि कुछ देर की शारीरिक सक्रियता से शरीर का मेटाबॉलिज्म बेहतर ढंग से काम करता है। ख्ाास तौर पर आबेसिटी के शिकार बच्चों के लिए यह तरीका बेहद कारगर साबित होता है। शोध के दौरान 7-11 आयु वर्ग के 28 सामान्य वजन वाले बच्चों को तीन घंटे तक बैठे रहने को कहा गया। एक अन्य चरण में उन्हें हर आधे घंटे में तीन मिनट का ब्रेक दिया गया या टे्रडमिल पर चलने को कहा गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि जब बच्चों को चहलकदमी या टे्रडमिल कराई गई तो उनका ब्लड शुगर सामान्य था और इंसुलिन का स्तर कम था। शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि काम के बीच में हलका सा ब्रेक लेने से न केवल व्यक्ति की सेहत ठीक रहती है, बल्कि इससे कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है।

दृष्टि-बाधितों के लिए नया चश्मा

देखने में असमर्थ लोगों के लिए एक अच्छी ख्ाबर यह है कि अब जल्द ही उनकी इस समस्या का समाधान हो जाएगा। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने एक ऐसा चश्मा तैयार किया है, जो पहनने वाले को यह बताएगा कि वे क्या देख रहे हैं। इस ख्ाास चश्मे को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों ने बताया कि इसमें एक सूक्ष्म कैमरा लगा हुआ है, जो हर चीज को पहचान सकता है। मसलन दुकानों के दरवाजे, फ्रिज के भीतर रखी सामग्री आदि। यह कैमरा एक बार चीजों की पहचान करने के बाद उसे ध्वनि संकेत में बदल देता है, जिसे चश्मा पहनने वाला व्यक्ति मोबाइल एप्लीकेशन और इयरपीस की मदद से सुन सकता है। उन्होंने बताया कि यह चश्मा इतना कारगर है कि व्यक्ति इसकी मदद से सामान्य किताबें भी पढ सकता है। लिखावट छोटी होने पर इसके कैमरे को जूम-इन भी किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने कहा कि चश्मे में चेहरे को पहचानने वाला सॉफ्टवेयर लगा होगा। यह सामने आने वाले व्यक्ति की न केवल पहचान करता है, बल्कि पिछली मुलाकात की तारीख्ा और अन्य जानकारियां भी चश्मा पहनने वाले को देता है। दृष्टि-बाधितों के लिए यह खोज वरदान साबित होगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लगभग एक साल के बाद यह चश्मा बाजार में उपलब्ध होगा।

वाई-फाई के ख्ातरे से सावधान

सूचना और प्रौद्योगिकी के इस युग में लोग पूरी तरह मशीनों पर निर्भर हैं। इंटरनेट और मोबाइल फोन जैसी चीजें लोगों की जीवनशैली का जरूरी हिस्सा बन चुकी हैं। चाहे ऑफिस हो या घर, हर जगह लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। यह सच है कि इस टेक्नोलॉजी ने लोगों के जीवन को काफी आसान बना दिया है, पर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि वाई-फाई के रेडिएशन की वजह से लोगों को कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड रहा है। एक ब्रिटिश हेल्थ एजेंसी द्वारा किए गए शोध के मुताबिक वाई-फाई का रेडिएशन साइलेंट किलर की तरह काम करता है। यह केवल इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि पेड-पौधों के लिए भी नुकसानदेह साबित होता है। इसके प्रभाव से अत्यधिक थकान, आंख-कान और सिर में तेज दर्द, एकाग्रता में कमी, नींद पूरी न होना जैसी समस्याएं परेशान करती हैं। ऐसी दिक्कतों से बचने के लिए रात को सोने से एक-दो घंटे पहले वाई-फाई को डिस्कनेक्ट कर दीजिए, ताकि इंटरनेट और मोबाइल का सीमित प्रयोग हो सके। वायरलेस के बजाय केबल का ज्य़ादा इस्तेमाल करें। रात को सोते समय मोबाइल पर विडियो न देखें क्योंकि ऐसा करते समय व्यक्ति की गर्दन देर तक झुकी रहती है और स्पॉण्डिलाइटिस की समस्या हो सकती है। अत: जहां तक संभव हो इंटरनेट का सीमित इस्तेमाल करें।

तैयार होंगे बैटरी फ्री पेसमेकर

चौंकिए मत। अब वैज्ञानिक बिना बैटरी वाला ऐसा आधुनिक पेसमेकर विकसित करने की कोशिश में जुटे हैं, जिसे इस्तेमाल करने वाले मरीज का दिल अपने आप चार्ज हो सकेगा। दरअसल यह डिवाइस ख्ाास तरह के िफजियोइलेक्ट्रिकल सिस्टम पर आधारित है, जो मनुष्य के दिल की हर धडकन पर पैदा होने वाले कंपन को ऊर्जा में बदलने की क्षमता रखता है। इस तरह पेसमेकर को जरूरी ऊर्जा उपलब्ध करवाई जा सकती है। अमेरिका स्थित बफेलो यूनिवर्सिटी के प्रमुख शोधकर्ता प्रो. एम. अमीन करामी एक ऐसी तकनीक विकसित कर रहे हैं, जिसके जरिये पेसमेकर को उसी दिल से ऊर्जा मिल जाएगी, जिसे वह नियंत्रित कर रहा है। शोधकर्ताओं ने कहा कि यह तकनीक उन चिकित्सकीय जोखिमों और असुविधाओं को ख्ात्म कर सकती है, जो विश्व भर के लाखों लोगों को हर 5 से 12 साल पर बैटरी बदलने के लिए उठानी पडती हैं। जेब घडी के आकार वाले ऐसे उपकरण को छाती पर चीरा लगाकर त्वचा के नीचे लगाया जाता है। लीड कहलाने वाली तारें इस उपकरण को दिल से जोडकर उसे विद्युत सिग्नल भेजती हैं। इससे दिल की गतिविधियां नियंत्रित रखी जाती हैं, लेकिन बिना तार वाले इस नए पेसमेकर में लीड की जरूरत नहीं होती क्योंकि यह दिल के अंदर होता है, जो इसके ख्ाराब होने की आशंका को भी ख्ात्म करता है। हालांकि, यह उपकरण अब भी बैटरी से ही चलता है, जिसे उन्हीं बैट्रीज की तरह बदलना पडता है, जिनका इस्तेमाल पारंपरिक पेसमेकर्स में होता है। प्रो. करामी को दिल की धडकन से पैदा होने वाली ऊर्जा पर आधारित पेसमेकर बनाने का ख्ायाल तब आया, जब वह मानवरहित वायुयानों एवं पुलों को लिए िफजियोइलेक्ट्रिक अनुप्रयोगों पर शोध कर रहे थे। वह इस जानकारी को मानव शरीर पर इस्तेमाल करना चाहते थे। उन्होंने पारंपरिक पेसमेकर में लगाने के लिए एक चपटा फिजियोइलेक्ट्रिक नमूना बनाया है, जो पेसमेकर को चालू रखने के लिए पर्याप्त ऊर्जा पैदा कर लेता है। वैज्ञानिक इस खोज को लेकर बेहद आाशान्वित हैं। उन्हें उम्मीद है कि आगामी दो वर्षों में पशुओं पर इस उपकरण का परीक्षण संभव हो पाएगा। फिर इंसानों पर भी इसका परीक्षण किया जा सकेगा। उन्हें पूरा विश्वास है कि यह खोज दिल के मरीजों का जीवन आसान बना देगी और उन्हें पेसमेकर की बैटरी बदलने से छुटकारा मिल जाएगा।

बच्चों में ओबेसिटी के लिए जिम्मेदार हैं एंटीबायोटिक्स

आजकल ज्य़ादातर लोग सर्दी-जुकाम और हलके बुख्ाार जैसी मामूली समस्याओं से घबराकर बच्चों को भी एंटीबायोटिक्स देना शुरू कर देते हैं, पर उन्हें यह मालूम नहीं होता कि इन दवाओं के सेवन से बच्चों में ओबेसिटी की समस्या हो सकती है। एक नए अध्ययन में वैज्ञानिकों द्वारा यह चेतावनी दी गई है कि ज्य़ादा एंटीबायोटिक लेने वाले बच्चे अपने हमउम्र दोस्तों के मुकाबले ज्य़ादा तेज्ाी से मोटे होते हैं। इस अध्ययन के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं के प्रभाव से बच्चों का बीएमआइ हमेशा बदलता रहता है। अमेरिका स्थित जॉन हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ रिसर्च के प्रोफेसर ब्रॉयन स्वाट्र्ज ने अपने अध्ययन में यह पाया कि बच्चों को हर बार दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवा उनका वजन बढाती हैं। प्रो. ब्रॉयन और उनकी टीम ने अध्ययन के लिए जनवरी 2001 से फरवरी 2012 तक 3-18 वर्ष आयु वर्ग के 1,63, ,820 बच्चों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया, जिसके दौरान शोधकर्ताओं ने बच्चों के कद, वजन और पहले ली गई एंटीबायोटिक दवाओं की जांच की। उन्होंने देखा कि जिन बच्चों ने बचपन में सात से ज्य़ादा बार एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन किया, 15 साल की उम्र में उनका वजन, दवाएं न लेने वाले बच्चों से करीब डेढ किलो तक ज्य़ादा था। यह अध्ययन इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ओबेसिटी में प्रकाशित हुआ है ।

इतना ही नहीं, शोधकर्ताओं का कहना है कि एंटीबायोटिक्स का असर बच्चों के वयस्क होने तक रहता है। इससे युवावस्था में भी उनका वजन लगातार बढ सकता है। इसलिए शोधकर्ताओं ने लोगों से कहा है कि वे अपने मन से इन दवाओं का सेवन न करें। इसके अलावा जब तक बहुत जरूरी न हो, डॉक्टर्स भी बच्चों को एंटीबायोटिक्स न दें।

लंग्स कैंसर की रोकथाम संभव

विश्व में कैंसर की वजह से होने वाली एक तिहाई मौतों का कारण फेफडों का कैंसर है। अब अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस बीमारी की रोकथाम का नया तरीका खोज निकाला है। हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसारसामान्य कोशिकाओं की तुलना में कैंसरयुक्त कोशिकाएं दस से सौ गुना ज्य़ादा ग्लूकोज ग्रहण करती हैं। इस अध्ययन के दौरान यह देखा गया कि कैंसर युक्त कोशिकाएं एक ख्ाास तरह के एंजाइम का इस्तेमाल अतिरिक्त ग्लूकोज बनाने के लिए करती हैं। इसलिए अगर इस एंजाइम का स्रोत ही बंद कर दिया जाए तो कैंसरयुक्त कोशिकाओं की वृद्धि को आसानी से रोका जा सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह खोज लंग्स कैंसर के इलाज में बहुत मददगार साबित होगी।

याददाश्त बढाने वाले प्रोटीन की खोज

लोगों की कमजोर होती याददाश्त अब वैज्ञानिकों के लिए भी चिंता का विषय बन चुकी है। इसी समस्या के समाधान के लिए अमेरिकी शोधकर्ताओं ने मानव शरीर के नर्व सेल्स में एक ऐसा प्रोटीन खोजा है, जो सीखने और याददाश्त को बढाने में मददगार होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोधकर्ता जॉन एम. शिलिंग के अनुसार जब कै व-1 नामक विशेष प्रोटीन की झिल्ली को ब्रेन के हिपोकैंप्स नामक क्षेत्र में डाला जाता है तो इसमें न्यूरोन की वृद्धि सही ढंग से होती है। नतीजतन व्यक्ति की याददाश्त और सीखने की क्षमता बढती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह नई खोज कई न्यूरो डिजेनरेटिव बीमारियों के इलाज में बहुत कारगर साबित होगी।


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