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आम जिंदगी से जुड़े सिनेमा

फिल्ममेकर मधुरीता आनंद इस वर्ष कन्या भ्रूण हत्या पर बनी सामाजिक फिल्म 'कजरिया' को लेकर चर्चा में हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे खूब सराहना मिली है। फिल्म के जरिये एक गंभीर सामाजिक विषय को उठाया गया है। स्त्रियों-बच्चों की स्थिति और सिनेमा में स्त्री के चित्रण पर मधुरीता आनंद

By Edited By: Published: Thu, 29 Jan 2015 12:48 AM (IST)Updated: Thu, 29 Jan 2015 12:48 AM (IST)
आम जिंदगी से जुड़े सिनेमा

फिल्ममेकर मधुरीता आनंद इस वर्ष कन्या भ्रूण हत्या पर बनी सामाजिक फिल्म 'कजरिया' को लेकर चर्चा में हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे खूब सराहना मिली है। फिल्म के जरिये एक गंभीर सामाजिक विषय को उठाया गया है। स्त्रियों-बच्चों की स्थिति और सिनेमा में स्त्री के चित्रण पर मधुरीता आनंद का नजरिया।

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पिछले एक दशक से डॉक्युमेंट्रीज और लघु फिल्मों की दुनिया में सक्रिय हैं मधुरीता आनंद। दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र पढते हुए सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी जगी। ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से फिल्ममेकिंग के गुर सीखे। कुछ समय टीवी शोज बनाए, मगर जल्दी ही मोहभंग हुआ और अपनी कंपनी बनाई। फिलहाल डायरेक्शन, प्रोडक्शन और फिल्ममेकिंग में सक्रिय हैं। वर्ष 2007 में कमर्शियल फिल्म 'मेरे ख्वाबों में जो आए' बनाई। वर्ष 2014 में कन्या भ्रूण हत्या जैसे संवेदनशील विषय पर फिल्म 'कजरिया' बनाई, जो रिलीज होने वाली है। अपने अनुभव बांट रही हैं वह।

रोज के अनुभव देते हैं प्रेरणा

मैं स्त्री हूं और रोज के अनुभवों से ही मुझे मेरे विषय मिलते हैं। लंबे समय से मेरे मन में 'कजरिया' का विषय चल रहा था। ऐसी फिल्म बनाना चाहती थी, जिसमें स्त्री-जीवन से जुडा हर पहलू छुआ जाए। मैंने ऑनर किलिंग जैसे विषय से शुुरुआत की। इसके लिए हरियाणा के गांवों में गई। वहां एक स्त्री के बेटे और उसकी प्रेमिका को मार दिया गया था। उस स्त्री से बात करने के बाद मुझे लगा कि गांवों व शहरों में रहने वाली स्त्री की पीडाएं अलग नहीं हैं। शहरों में भी बच्चियों को गर्भ में मारा जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि बडे शहरों में यह शातिर तरीके से हो रहा है। अगर हमें लगता है कि ग्रामीण स्त्रियां आवाज नहीं उठातीं तो हम गलत हैं। वे ईमानदार और स्पष्ट ढंग से अपनी बात कहती हैं। हरियाणा से जानकारियां जुटाने के बाद मैंने 'कजरिया' की कहानी लिखी। इसमें दो स्त्रियां हैं। एक जर्नलिस्ट और दूसरी गाम्रीण स्त्री। इनके संवाद के जरिये पूरी स्त्री जाति की पीडाएं उभरती हैं।

हाशिये पर हैं स्त्री और बच्चे

मुझे लगता है, हमारी सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों ही नहीं, बच्चों को भी बहुत झेलना पड रहा है। यदि हम बेहतर दुनिया चाहते हैं तो स्त्रियों-बच्चों को सुरक्षित माहौल देना होगा। 'कजरिया' में यही सवाल उठाया गया है। मैं नए लोगों के साथ फिल्म बना रही थी। मन में काफी संशय थे, मगर मुझे लगता है कि यदि फिल्मकार दर्शक से ईमानदार व सीधा संवाद करे तो वे गंभीर विषय को भी पर्दे पर देखेंगे। मुझे कई लोगों ने सलाह दी कि ऐसा विषय न उठाऊं। लेकिन मैंने यह जोखिम उठाया है।

स्त्री शो-पीस नहीं

मौजूदा कमर्शियल फिल्मों से मुझे शिकायत है। इसमें स्त्रियों को कैसे दिखाया जा रहा है? सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री स्त्रियों को लगातार पीछे धकेल रही है। वे सुंदर, रोमैंटिक, संवेदनशील और भावनाओं से भरी हैं, लेकिन क्या सिर्फ इसे बेच कर फिल्मकार के कर्तव्य पूरे हो जाते हैं? स्त्री के हक में बोलते ही हमें फेमिनिस्ट का खिताब दे दिया जाता है। गुस्सा मुझे उन अभिनेत्रियों पर भी आता है, जो फिल्म की मांग के नाम पर स्त्री की गलत छवि पर्दे पर पेश कर रही हैं। मुझे लगता है एक सशक्त माध्यम में रहने के चलते कुछ जिम्मेदारियां होती हैं, उन्हें निभाना चाहिए। स्त्री को ही दूसरी स्त्री के बारे में सोचना होगा। स्त्री फिल्ममेकर होने के नाते मैं स्त्रियों की आम जिंदगी और उनके सवालों को पर्दे पर दर्शकों के सामने रखना चाहती हूं। नए फिल्ममेकर्स के सामने कई चुनौतियां हैं, लेकिन मल्टीप्लेक्सेज के आने से छोटे बजट की फिल्में बनने लगी हैं और सफल भी हो रही हैं।


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