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हिंदी चलचित्रों में नायक-नायिका

हिंदी फिल्मों के नायक की बात करें तो वह अनंत है और अनंत उसकी कथाएं हैं। 80 के दशक के एंग्री यंगमैन नायक वाले दौर को याद करते हुए नायक की क्षमताओं पर सोचें तो दंग रह जाएंगे। वह क्या नहीं कर सकता! उसका यही चरित्र भारतीय दर्शकों को पसंद

By Edited By: Published: Thu, 27 Aug 2015 02:44 PM (IST)Updated: Thu, 27 Aug 2015 02:44 PM (IST)
हिंदी चलचित्रों में नायक-नायिका

हिंदी फिल्मों के नायक की बात करें तो वह अनंत है और अनंत उसकी कथाएं हैं। 80 के दशक के एंग्री यंगमैन नायक वाले दौर को याद करते हुए नायक की क्षमताओं पर सोचें तो दंग रह जाएंगे। वह क्या नहीं कर सकता! उसका यही चरित्र भारतीय दर्शकों को पसंद भी आता है और शायद यही वजह है कि उस नायक की क्षमताओं पर तमाम लतीफे लोकप्रिय हो जाने के बावजूद आज भी प्राय: ऐसी ही फिल्में आती और हिट होती रहती हैं।

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अपने नायक-नायिका के मामले में भारतीय चलचित्र शास्त्र वही परिभाषा स्वीकार करता है जो भारतीय काव्य-शास्त्र में स्थापित की गई है। 'नीयते इति नायक: अर्थात् जो पात्र कथानक को फलागम (द एंड) तक पहुंचा दे, नायक यानी हीरो कहलाता है। पारंपरिक महाकाव्य, खंडकाव्य, नाट्य आदि की भांति आधुनिक हिंदी चलचित्रों में भी शृंगार एवं वीर रस की ही प्रधानता होती है। शेष रस हास्य, करुण, रौद्रादि सहयोगी रसों के रूप में उपस्थित रहते हैं। नायक प्राय: आधे चलचित्र में नायिका के साथ रोमैंस करता है और शेष आधे में खलनायक से ढिशुम-ढिशुम। हास्य व भयानक रसों को आधार बनाकर कॉमेडी एवं हॉरर प्रकार के चलचित्रों का भी निर्माण हुआ है, परंतु यहां भी अंतत: शृंगार एवं वीर रस ही दो शेष रसों पर आच्छादित हो

जाते हैं।

प्रत्येक चलचित्र में एक नायक और एक नायिका का किशोर या युवा होना अनिवार्य है, ताकि शृंगार रस का सांगोपांग चित्रण किया जा सके। नायक की भूमिका निभाने वाला अभिनेता भले ही पचास-पचपन वर्ष का हो, चलचित्र में उसे किशोर अथवा युवा ही माना जाता है। किंतु नायिका के संदर्भ में यह सिद्धांत लागू नहीं होता। वह वास्तव में किशोरी या युवती हो तभी स्वीकार्य होती है। साधारण परिस्थितियों में नायक-नायिका का भिन्न-भिन्न वर्गों से संबंधित होना श्रेष्ठ माना जाता है। दूसरे शब्दों में नायक धनी हो तो नायिका निर्धन और नायिका अमीर तो नायक गरीब जैसे युग्म श्रेयस्कर माने जाते हैं, ताकि प्रेम संघर्ष के साथ-साथ वर्ग संघर्ष दिखाने का अवसर भी हाथ आ सके।

नायक-नायिका भले निर्धन श्रेणी से हों, भले उनके घर में फाके चल रहे हों, भले उन्हें नौकरी आदि न मिल पा रही हो... फिर भी उनका, विशेषतया नायिका का साज-शृंगार, वस्त्र-विन्यास आदि हर दृश्य में भिन्न और उच्च कोटि का होता है ताकि सौंदर्य के प्रस्तुतीकरण में कोई बाधा न उत्पन्न हो।

परंपरा के अनुसार नायक विनम्र, मधुर, त्यागी, पवित्र, बुद्धिमान, उत्साही, प्रज्ञायुक्त, शूर एवं तेजस्वी होता है जबकि नायिका सुंदरी, दीप्तियुक्त, चरित्रवती, एकनिष्ठ, प्रेमपरायण, व्यवहारनिपुण, सलज्ज एवं माधुर्ययुक्त होती है। आदि व मध्यकालीन चलचित्रों में नायक-नायिका का प्राय: यही चरित्र निरूपित हुआ है, परंतु आधुनिक हिंदी चलचित्रों में यदा-कदा नायक-नायिका ही खलनायक-खलनायिका के स्वभावगत लक्षणों यथा लोभ, दुराग्रह, व्यसन व पापादि का प्रदर्शन करते दिखते हैं। तब उनके व्यवहार को परिस्थितिजन्य अर्थात् बुरे हालात का असर कहकर उन्हें क्लीन चिट थमानी होती है। यहां तक कि फिल्मी न्यायालय भी उनके कृत्यों को विवशता का फल एवं आत्मरक्षा हेतु उठाया गया कदम घोषित करके उन्हें बाइज्ज्ात यानी ससम्मान बरी कर देता है। अगर उन्हें जेल जाना भी पडे तो नायक या नायिका अपने प्रेमपात्र की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता या करती है और केंद्रीय कारागार के मेन गेट पर पुनर्मिलन के बाद ही चलचित्र समाप्त होता है।

हिंदी चलचित्रों में निर्देशक के निर्देशानुसार नायक-नायिका का प्रेम प्रथम मिलन में ही हो जाता है। प्राय: नायक किसी आपदा से या गुंडों से नायिका को बचाता है और नायिका तुरंत नायक को दिल दे बैठती है। आदि एवं मध्य काल के चलचित्रों में कई बार प्रेम बचपन में ही आरंभ हो जाता था जो नायक-नायिका के युवा होते-होते स्वयं भी यौवन को प्राप्त हो जाता था। कुछ चलचित्रों में पहले नफरत, इंकार, नोक-झोंक इत्यादि होती थी जो शीघ्र ही मुहब्बत में बदल जाती थी। इसे 'ना-ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे सिद्धांत कहा गया।

आम तौर पर एक नायक एक नायिका वाली स्थिति ही उत्तम स्वीकार की जाती है, परंतु कई चलचित्रों में एक नायक दो नायिकाएं या एक नायिका दो नायकों का प्रावधान करके तिकोने प्रेम की परिस्थितियां उत्पन्न की जाती हैं। ऐसे चलचित्रों के अंत में अतिरिक्त नायक या नायिका को मृत्यु का वरण करना पडता है। कुछ चलचित्रों में तो एकाधिक नायक एवं नायिकाएं होती हैं। ऐसे चलचित्र बहुनक्षत्रीय कहलाते हैं। यहां जितने नायक हों उतनी ही नायिकाओं का प्रबंध भी किया जाता है, परंतु यदि नायक-नायिकाओं की संख्या समान न हो तो यहां भी अतिरिक्त नायक या नायिका को येन केन प्रकारेण मृत्यु का वरण करवा दिया जाता है। यदा-कदा अतिरिक्त नायक एवं नायिका को संन्यास ग्रहण करवा के समाजसेवा के लिए भी भेज दिया जाता है। हिंदी चलचित्रों में नायक-नायिका के परिवार को लघु से लघुतर रखने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। अधिकांशत: नायक या नायिका कहते मिलते हैं- 'मेरा इस दुनिया में कोई नहीं या 'मैं इस दुनिया में अकेला या अकेली हंू। अधिक आवश्यक हो तो नायक की मां एवं नायिका के पिता के रूप में दो वृद्ध कलाकारों को अनुबंधित कर लेते हैं। शेष बचे माता-पिता का काम तस्वीरों पर हार डालकर चलाया जाता है। यह इकलौती मां या पिता नायक/नायिका से कम से कम एक बार अवश्य कहते हैं कि मैंने तुम्हें मां और बाप दोनों का प्यार दिया है। परिवार छोटा रखने से राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का पालन तो होता ही है, बजट भी बच जाता है।

नायक या नायिका का पूरा परिवार केवल तभी दिखाया जाता है, जब चलचित्र पारिवारिक श्रेणी का हो। ऐसे में चलचित्र की समस्त नटमंडली अर्थात कास्ट एक ही परिवार में होती है। प्राय: छोटा भाई नायक, पारिवारिक मित्र की पुत्री नायिका, बडा या मंझला भाई खलनायक, भाभी खलनायिका, छोटे भतीजे-भतीजी, नौकर-नौकरानी आदि विदूषक होते हैं। अनेक चलचित्रों में यह परिवार भूकंप, बाढ, मेला या खलनायक के षड्यंत्र के चलते बिछड जाता है और चलचित्र के अंत में किसी गीत, लॉकेट, चैन या पुराने सामूहिक चित्र यानी ग्रुप फोटोग्राफ आदि के कारण पुन: मिल जाता है।

नायक को अपनी वीरता प्रदर्शित करने का अवसर खलनायक एवं उसके सहयोगी प्रदान करते हैं। खलनायक ने चलचित्र के आरंभ में नायक के परिवार माता-पिता, बहन-भाई आदि पर अत्याचार आदि किया होता है, जिसका बदला नायक को लेना होता है। अनेक चलचित्रों के अंतिम प्रकरणों में तो खलनायक नायिका को घोडे या कार आदि से ले उडता है। ऐसे में नायक की द्रुत गति का प्रदर्शन होता है और वह चाहे साइकिल, बैलगाडी, तांगे आदि पर हो या मात्र दौडे... तब भी खलनायक को पकड लेता है।

नायक और खलनायक एवं उसके सहयोगियों के बीच द्वंद्व प्राय: गोदामों में होता है जहां ड्रमों, डिब्बों या बोतलों आदि के ढेर लगे होते हैं। इन सबका प्रयोग अस्त्र-शस्त्रों के रूप में किया जाता है। द्वंद्व के अंतर्गत खलनायक का कोई वार निशाने पर नहीं लगता। भले ही वह और उसके सखा इस कार्य में दक्ष हों और दूसरी ओर एकदम नौसिखिये नायक का कोई वार ख्ााली नहीं जाता। वह खलनायक के सखाओं को एक-एक प्रहार में ही मृत्यु के घाट उतारता जाता है। यदि नायक की नायिका या मां जैसा कोई निकटवर्ती खलनायक के कब्जे में हो तो उसे उच्चकोटि की मार भी खानी पडती है। ऐसे युद्धों में नायक या उसका निकटवर्ती यदि घायल हो जाए और उसे बचाना हो तो अगले ही दृश्य में उसे ऑपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया जाता है। सफल ऑपरेशन की घोषणा के बाद वह वहां से माथे पर क्रॉस रूप में टेप वाली पट्टी लगाकर बाहर निकल आता है। अगर उसे मारना हो तो अस्पताल लाने का प्रयास नहीं किया जाता, बल्कि गोद में लेटाकर संवाद पूरे करने का अवसर प्रदान किया जाता है।

सामान्य चलचित्र नायक-नायिका के विवाह अथवा पुनर्मिलन के साथ समाप्त हो जाता है। जहां नायक/नायिका की मृत्यु अनिवार्य हो वहां पीछे बचने वाले को भी शीघ्रता से मारकर आत्माओं का मिलन करा दिया जाता है। कई चलचित्रों में यह पुनर्मिलन पुनर्जन्म के बाद भी होता दिखाया जाता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हिंदी चलचित्रों के नायक एवं नायिका आदर्श एवं संपूर्ण व्यक्तित्व होते हैं। इनके महासागर रूपी चरित्र में अनुसंधान की असीम संभावनाएं हैं। अत: यह गुरु कार्य किसी अन्य अनुसंधानकर्ता के लिए छोडकर मैं अपनी लेखनी को विराम देता हंू...इतिकृतम्।

डॉ. राजेंद्र साहिल


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