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मैंने खुद को पा लिया

एक स्त्री जब अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बूते ऐसे मकाम तक पहुंच जाती है, जहां दूसरे उसे रोल मॉडल मानने लगते हैं तो यह उपलब्धि अनूठी होती है। सखी ऐसी शख़्सीयतों को सलूट कर रही है। इस नए स्तंभ में संपादक प्रगति गुप्ता के साथ चलते हैं ़खास पहचान बना चुकी स्त्रियों से मुला़कात के स़फर पर। पहली कड़ी में मिलें सुष्मिता सेन से। उन्होंने हमें पहली भारतीय मिस यूनिवर्स होने का गौरव दिलाया ही, अपनी शर्तो पर जीकर भी दिखाया। उनसे सहमति या असहमति हो सकती है, पर वह जिस रास्ते पर चल रही हैं, वह उनका अपना बनाया हुआ है।

By Edited By: Published: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)Updated: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)
मैंने खुद को पा लिया

सुष्मिता से मिलने पर जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वह थी उनकी प्यारी मुसकान। उस वक्त डेढ बज रहे थे और यह लंच का समय था। मैं इस बात को लेकर बहुत असमंजस में थी कि पता नहीं हमें कितना समय मिल सकेगा। पर उनकी मुसकान ने ही सारे संशय मिटा दिए। तय हो गया कि चिंता की कोई बात नहीं है। बात चली तो मैंने कहा कि आप तीन भाषाओं में से किसी में भी बात कर सकती हैं- अंग्रेजी, हिंदी या फिर बांग्ला। हालांकि मैं अच्छी बांग्ला नहीं बोल सकती, पर समझ सकती हूं। अच्छा हुआ कि उन्होंने बातचीत बांग्ला में नहीं की, वरना आप सभी को सखी के बांग्ला संस्करण के लिए इंतजार करना पडता।

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जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो मैं अवाक् रह गई। वह दिल से बोल रही थीं, दिमाग पर पूरा नियंत्रण रखते हुए। किसी भी जगह अटके और कहीं कोई चूक किए बगैर। मैं सोच रही थी कि यह तो काफी आगे निकल चुकी हैं। एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी और हिंदी माध्यम से पढी-लिखी यह लडकी 18 साल की उम्र में भारत से पहली मिस यूनिवर्स बन चुकी है, दो अडॉप्टेड डॉटर्स की सिंगल मदर है और आइ एम शी मिस यूनिवर्स द ब्यूटी पेजेंट की संस्थापक भी। उन्होंने अपनी पहचान तो बनाई ही, देश को भी अपूर्व गौरव दिया है।

शोहरत और सफलता के उनके इस सफर में संघर्ष की बडी भूमिका रही है। उनकी मजबूत इच्छाशक्ति, कभी हार न मानने की जिद, ईश्वर में विश्वास और परिवार-बच्चों एवं काम के प्रति उनकी दीवानगी ने ही उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में विजेता बनाया है। मैं हूं मेरी पहचान की पहली कडी में सखी आपको दे रही है बुद्धि और सुंदरता का पर्याय मानी जाने वाली सुष्मिता सेन का यह साक्षात्कार।

आज आप जहां खडी हैं, वहां से पीछे देखती हैं तो क्या महसूस करती हैं? क्या आपने सोचा था कि इस मुकाम तक पहुंच पाएंगी?

अगर मैं 18 साल की लडकी बन कर सोचती हूं तो उस वक्त मैंने जो सपने देखे थे, जहां मैं होना चाहती थी, वहां से बहुत दूर निकल आई हूं। लेकिन आज जहां हूं, वहां खडे होकर देखती हूं, तो मुझे हमेशा लगता है कि ऊपर वाले ने मुझ पर बहुत मेहरबानियां की हैं। मुझे खासा वक्त दिया है अपनी पहचान बनाने के लिए। समान विचार वाले लोगों का सहारा मिला, अच्छे लोगों से मिलने का मौका मिला, इनसे बहुत कुछ सीखा है मैंने। हारने का मौका भी मिला है मुझे, ताकि जीतने की अहमियत समझ आ सके। लेकिन जिंदगी में अभी बहुत कुछ सीखना है। बहुत लंबा सफर बाकी है अभी। वो मध्यवर्गीय परिवार की हिंदी माध्यम में पढने वाली, वसंत कुंज के दो बेडरूम के घर में रहने वाली 18 साल की लडकी तो बहुत दूर निकल आई है, पर सुष्मिता सेन को बहुत आगे जाना है। ऊपर वाला जब आपको इतने तोहफे देता है तो आपके लिए उसने कुछ बडा सोचा भी होता है। मुझे उम्मीद है कि मैं वो सब हासिल करूंगी।

सफलता के इस सफर में आपको संघर्ष भी काफी करना पडा होगा?

जी, काफी संघर्ष किए हैं मैंने। चूंकि आप सुष्मिता सेन बन गए हैं, 18 साल की उम्र में मिस यूनिवर्स बन गए हैं, इसलिए लोगों को लगता है कि बहुत आसान रहा होगा सब। लेकिन ऐसा नहीं है। मुझे हर मोड पर संघर्ष करना पडा। कई बार यकीन नहीं होता कि इंसान में इतनी ताकत होती है! वो हार न माने तो कोई संघर्ष उसे तोड नहीं सकता।

कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है। क्या आपको इस मुकाम तक आने के लिए कुछ खोना पडा?

खोना वो होता है जो इंसान को बहुत तकलीफ देता है। मुझे सैक्रफाइस, कंप्रोमाइज जैसे शब्द बिलकुल पसंद नहीं हैं। जो आप दिल से करते हैं, उसमें एडजस्टमेंट होता है। आप अपने बच्चों के लिए जो करते हैं, वह सैक्रफाइस नहीं, एडजस्टमेंट होता है। इसमें खोने का अहसास नहीं होता, क्योंकि थोडे से एडजस्टमेंट से आपने बहुत कुछ पाया होता है।

पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज में खुद को साबित करने के लिए आपको क्या-क्या करना पडा? स्त्री होने के नाते कभी किसी भेदभाव का सामना करना पडा?

मुझे स्त्री होना पसंद है। हम जिस समाज में रह रहे हैं, उसमें निश्चित रूप से पुरुषों का वर्चस्व है। कॉर्पोरेट व‌र्ल्ड, फिल्म इंडस्ट्री, ऐक्टिंग, प्रोडक्शन सभी क्षेत्रों में मेल डॉमिनेशन है। बस एक ब्यूटी इंडस्ट्री में ही स्त्री की चलती है। लेकिन अगर मैं सोचती हूं कि मुझे कंपीट करना है तो मैं क्वॉलिटीज के साथ कंपीट करती हूं, जेंडर के साथ नहीं। कुछ बुरा लगता है तो उसे अनदेखा कर जाती हूं, लेकिन मुझे इस बात को लेकर चिंता होती है कि हम इतनी जल्दी हार क्यों मान लेते हैं। कहते हैं कि दुनिया ऐसे ही चलेगी। यह पुरुषों की दुनिया है, अब कर ही क्या सकते हैं! ऐसा कहना सही नहीं है। जब लोग कहते हैं कि यह नहीं हो सकता तो इसका मतलब है कि वे करना ही नहीं चाहते हैं। आप कोशिश करते रहिए। एक दिन लोग समझने लगेंगे कि आप कुछ अलग कर रहे हैं।

आप घर संभालते हैं, बच्चों को पढाते हैं, काम कर रहे हैं, आत्मनिर्भर हैं, आपका अलग बैंक बैलेंस है। तो फिर जेंडर के साथ कैसा कंपिटीशन? मेरा मानना है कि बाई नेचर पुरुष कमाने वाला है और स्त्री पालने वाली। ऐसे में अगर स्त्री कमाती है तो भी पालन-पोषण करना उसकी प्रकृति है। कुछ बातें मुझे परेशान जरूर करती हैं, लेकिन उनमें मैं अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करती। अब मैं बोर्ड रूम में बैठती हूं, पुरुषों के साथ तो वहां कोई फर्क नहीं होता, लेकिन यहां तक पहुंचना एक बहुत बडा काम रहा है। इस सोच से उबरना मुश्किल है, पर हमें ऐसा करना ही होगा। आपका माइंडसेट और एटीट्यूड ही वह चीजें हैं, जो यह फैसला करेंगी।

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि सफल स्त्रियों में अधिकतर सिंगल हैं? क्या घर-परिवार के बीच स्त्री को पनपने का मौका कम मिल पाता है? क्या आप मानती हैं कि सिंगल होने से कुछ सुविधा होती है?

स्त्री का जिम्मेदार होना सफलता की पहली शर्त है। चाहे वह परिवार में हो या सिंगल, कोई फर्क नहीं पडता। जो जिम्मेदार हैं, वही सफल हैं। हमारे यहां दो विचार हैं, जो स्त्रियां विदेशों में हैं वे सोचती हैं कि हम भारत में होते तो परिवार की मदद मिलती। दूसरा विचार है कि अरे आप सिंगल हैं, आपकी तो कोई जिम्मेदारी है ही नहीं। आप काम अच्छा कर सकते हैं। लेकिन सबसे जरूरी है कि आप जिम्मेदार कितने हैं? मैं सिंगल हूं। अपने काम के लिए ऑफिस जाती हूं और अपने बच्चों के लिए चिंता भी करती हूं। मुझे खयाल रहता है कि होमवर्क हो रहा है या नहीं? बेबी ने कुछ खाया या नहीं? वे अनुशासन में हैं या नहीं? छोटी बेबी की पॉटी ट्रेनिंग शुरू हुई है तो वो ध्यान दे रही है या नहीं? चार बज गए, बच्चों को कैल्शियम मिला या नहीं। आप एक बोर्ड मीटिंग में हैं, लेकिन आपका दिमाग वहां भी है। क्योंकि आप एक सिंगल पेरेंट हैं। लेकिन अगर मैं अपने परिवार के साथ होती तो वे बच्चों का खयाल रख लेते। पर अगर आप जिम्मेदार होते हैं और अपनी सीमाओं को विस्तार देते हैं, तो ही सब कुछ कर पाते हैं। घर-दफ्तर निबटाते-निबटाते रात 9.30 बजे तक तो मैं बुरी तरह थक जाती हूं। दस बजे सो जाती हूं। मैं सबके समय का खयाल रखती हूं। मैं मां हूं, सुष्मिता सेन हूं और बेटी भी हूं।

अपनी सबसे बडी ताकत किसे मानती हैं?

भगवान पर विश्वास मेरी सबसे बडी ताकत है और आत्मविश्वास को मैं भगवान मानती हूं। मेरे दोनों माता-पिता, एक तो वे जिन्होंने मुझे जन्म दिया और दूसरे वे जिन्होंने गोद लिया, मेरी शोभा मां, दोनों ही मेरी ताकत हैं। मेरा स्टाफ, मेरे मित्र, मेरी छोटी बेटी की दाई मां मेरा सपोर्ट है। सपोर्ट सिस्टम केवल घर वालों की तरफ से नहीं बनता। परिवार वह होता है जो आप बनाते हैं। अगर आप अपने बच्चों के मामले में उन पर भरोसा कर सकते हैं, तो यह वाकई एक वरदान है।

भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति कितनी बदली है? अपनी मां के समय से तुलना करें तो क्या कहना चाहेंगी?

मां के जमाने से क्या, मैं अपने जमाने यानी 1994 की बात करूं, तो बहुत कुछ बदल गया है। दो ही टीवी चैनल थे, कंप्यूटर का भी इतना इस्तेमाल नहीं था। सोशल नेटवर्क, जो आज हिंदी में भी है, नहीं था। तब दुनिया बहुत बडी थी। गांवों में बच्चियों को मार दिया जाता था। उन्हें पढाया नहीं जाता था। परिवार में ही प्रताडित किया जाता था और किसी को पता भी नहीं चलता था। अब हालात बदल गए हैं। यह सब पूरी तरह रुका तो नहीं, लेकिन स्थिति बदली जरूर है। मैंने भ्रूण हत्या के िखलाफ लडाई लडी है। कई राज्यों में यह सब हो रहा है, लेकिन अब बच्चियों में जागरूकता आ गई है। वे जानती हैं कि उनके लिए एक सरकार है, सरकार काम करे या नहीं, लेकिन है जरूर। ये कानून बनाती है। इन्हें पता चल रहा है कि इन्हें शिक्षा पाने का अधिकार है। गांवों में गैर सरकारी संस्थान पंहुच रहे हैं। जागरूकता बढ रही है। इसके अलावा स्पेस पर जाने वाली, स्पो‌र्ट्स और सौंदर्य प्रतियोगिता में जीतने वाली लडकियों के अच्छे उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। गांवों में लडकियां जागरूक हो रही हैं और एक बार कोई जागरूक हो जाए तो उसे काबू करना मुश्किल होता है। स्त्रियों की स्थिति पूरी दुनिया में बदली है। ऊंचे पदों पर स्त्रियां हैं। बोर्ड रूम में किरण मजूमदार जैसी महिलाओं ने अपना रास्ता बनाया है। बेशक इसकी रफ्तार धीमी है।

पहचान पाने का सुख क्या है? क्या आप यह बता सकती हैं?

बहुत अच्छा प्रश्न है आपका! दरअसल हमारा जन्म ही इसलिए होता है कि हम अपनी जिंदगी जी सकें। लेकिन बचपन से ही हमें समझाया जाता है कि हम किस घर में पैदा हुए हैं? किस रिलिजन में बडे हुए हैं? माता-पिता ने क्या सिखाया? टीचर ने क्या बोला? हम गरीब हैं, अमीर हैं। ये चीजें हमारी पहचान बन जाती हैं, लेकिन हमारी पहचान ये नहीं है। हमारी पहचान है कि मैं हूं। मैं अमीर हूं, मैं खुश हूं, परेशान हूं, ये चीजें वक्त के साथ बदल जाती हैं, लेकिन मैं हूं, यह सबसे बडी पहचान है। अपनी पहचान का आनंद उठाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। सबसे बडा सुख यही है कि आपने खुद को पा लिया। अगर खुद को ही न पा सके तो फिर आपने क्या पाया?

आज की औरत अपना रास्ता खुद बना रही है। आपने भी अलग रास्ते चुने हैं। और क्या नया करने की योजनाएं हैं?

मुझे अभी बहुत आगे जाना है। मेरे पिता ने मुझे तीन जिम्मेदारियों के बारे में बताया है। एक अपने प्रति, जो बहुत बडी है। दूसरी माता-पिता और देश के प्रतिऔर तीसरी भगवान के प्रति। ये तीनों जिम्मेदारियां निभाना जरूरी है। इनमें से किसी को भी नजरअंदाज किया तो समझें कि जिंदगी जी ही नहीं। मैं इस सीख से काफी जुडी हूं। जब मैंने मिस यूनिवर्स का िखताब जीता तो अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी की और देश के लिए योगदान दिया। बाद में मैंने सोचा कि औरों के लिए क्या किया? इस सोच ने बदल दिया मुझे। मेरे अंदर की सोलह साल की लडकी भी शादी करना चाहती है। वह सात दिनों का रस्मो-रिवाज से भरा समारोह देखना चाहती है, सात फेरों, नाच-गाने और मेंहदी लगवाने के सपने देखती है। मैं कठोर स्त्री नहीं हूं। मैं भी सोलह साल की लडकी की तरह नाजुक हूं और सपने देखती हूं। पर जिंदगी ने मुझे सिखाया है कि किसी भी चीज में खो नहीं जाना चाहिए। जिंदगी मौके देती है और इनके बारे में सोचना चाहिए। लोग कहते हैं कि उम्र हो रही है, शादी कर लो। पर यह गलत है। शादी के बारे में आपको खुद क्लियर होना चाहिए। शादी आपको चलानी है। अगर आप तैयार हैं तो इस बारे में सोचें। समय जा नहीं रहा है, समय तो आएगा। मेरा समय भी आएगा और मैं वादा करती हूं कि मैं बेहद खूबसूरत शादी करूंगी।

जो लडकियां अपने दम पर पहचान बनाना चाहती हैं, उन्हें क्या संदेश देना चाहेंगी? आत्मविश्वास होना चाहिए आपमें। आपके अंदर आत्मविश्वास कोई डाल नहीं सकता। हां, आपकी खूबियां तराशी जा सकती हैं। लेकिन अगर आपको अपनी पहचान बनानी है तो सबसे पहले अपने आपको समझना पडेगा। ये कोई और नहीं करेगा आपके लिए। आत्मविश्वास के बगैर आप अपने बारे में जो भी सोचते हैं वह ठीक नहीं होता। अच्छे समय में क्या होता है, उससे कोई मतलब नहीं। संकट के समय आपमें से कौन सा इंसान निकल कर आता है, यह महत्वपूर्ण है। वही आपका कैरेक्टर है। जब एक बार आप उस कैरेक्टर की पहचान कर लेती हैं तो आप जो हैं उसे ही एप्रीशिएट करें। सुष्मिता, ऐश्वर्या, लारा या कोई और बनने की कोशिश न करें।

कभी बच्चों को समय नहीं दे पाई तो बच्चों की जिम्मेदारियों को लेकर अपराधबोध हुआ?

जी हां, मुझे अपराधबोध होता है, पहले ऐसा ज्यादा था। अब धीरे-धीरे कम हो गया है। जब मेरा पहला बेबी ही था तो मैं उसकी हर गतिविधि को मिस करती थी। उसने पहला कदम उठाया, मैंने मिस किया। उसकी पीटीए मीटिंग को मैंने मिस किया। कोई न कोई पीटीए मीटिंग में जाता जरूर था, लेकिन मैं नहीं जा पाती थी। तब मुझे बहुत खराब लगता था। पर बाद में मैंने महसूस किया कि आप सब कुछ नहीं कर सकते। जो भी आप कर पा रहे हैं, उसे ही ठीक से पूरा करें, यह जरूरी है। मैं 4 घंटे के लिए काम पर आती हूं, कभी-कभी 6 घंटे के लिए तो काम पर पूरा ध्यान देती हूं और जब घर पर होती हूं तो कोई कॉल अटेंड नहीं करती। तब तक जब तक कि कोई इमरजेंसी कॉल न हो, मैं कॉल नहीं लेती। घर पर भी मैं बच्चों की देखभाल के लिए जिम्मेदार लोगों को छोड जाती हूं।

सखी की संपादक प्रगति गुप्ता से खास बातचीत


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