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अपनी ही खोज है संगीत

अल्ला रक्खा रहमान. अब उत्तर-दक्षिण नहीं, संगीत की दुनिया में भारत की नई पहचान बन चुके हैं। पिछले दिनों दिल्ली में ही एक आयोजन में उनके साथ थोड़ा सा वक्त मिला। इष्ट देव सांकृत्यायन की बातचीत।

By Edited By: Published: Tue, 26 Jun 2012 02:41 PM (IST)Updated: Tue, 26 Jun 2012 02:41 PM (IST)
अपनी ही खोज है संगीत

दक्षिण के मोजार्ट कहे जाने वाले ए. आर. रहमान भारत के उन थोडे से भाग्यशाली संगीतकारों में हैं, जिन्हें वैश्विक पहचान मिली है। ऑस्कर अवॉर्ड ने तो उन्हें विश्वस्तरीय सम्मान दिया ही, दो एकेडमी अवॉर्ड, दो ग्रैमी, फिल्मफेयर और कई अन्य पुरस्कार उनके खाते में दर्ज हैं। इतनी उपलब्धियों के बाद भी रहमान की सहजता और विनम्रता दिल छू लेती है। फिलहाल वे तीन जगहों पर व्यस्त हैं- चेन्नई, मुंबई और लॉस एंजलिस। काफी समय बाद वे फिर दक्षिण की एक फिल्म के लिए काम कर रहे हैं। बीते साल ऐसी एक भी तमिल फिल्म नहीं आई, जिसमें रहमान का संगीत रहा हो और इसीलिए इसे तमिल सिनेमा में उनकी वापसी के रूप में देखा जा रहा है।

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हाल ही में गुरबाणी पर केंद्रित हर्षदीप कौर के एलबम लांच के सिलसिले में दिल्ली आए रहमान से बातचीत का मौका मिला तो शुरुआत दक्षिण के सिनेमा में उनकी वापसी के सवाल से ही हुई। रहमान का जवाब था-

वापसी जैसी कोई बात नहीं है यह। वापसी तो तब होती जब मैंने दक्षिण की फिल्मी दुनिया छोडी होती। मैंने तो कभी ऐसा सोचा भी नहीं। हॉलीवुड से आपका संपर्क बने काफी समय बीत चुका है। अब आप कैसा महसूस करते हैं? अब वहां मेरे कई मित्र हैं। इनमें संगीतकार, निर्देशक, अभिनेता सभी शामिल हैं। अच्छे लोग हैं। कभी-कभी वे मेरे शो देखने भी आते हैं। आप भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों हिस्सों के लिए काम करते हैं और लोकप्रिय हैं। हॉलीवुड में भी काम कर रहे हैं। क्या आपको भारत के उत्तर और दक्षिण तथा विश्व स्तर पर पूरब और पश्चिम के संगीतप्रेमियों की संवेदना या समझ में कोई अंतर दिखता है?

गहरा प्रश्न है और महत्वपूर्ण भी। पूरब-पश्चिम की संगीत संवेद्यता में तो अंतर है ही, भारत में ही उत्तर-दक्षिण की संगीत की समझ और संवेदना भिन्न है। शुरुआत में तो पिच बदलना ही मेरे लिए चुनौती हो जाती थी। क्योंकि तीनों की इंडस्ट्री में अलग-अलग तरीके से पिच चलता है। पर अब मैं तीनों की खूबियों का एक-दूसरे के लिए पूरक की तरह इस्तेमाल करता हूं। इधर यहां कोलावरी डी.. की बडी धूम रही.. कोलावरी डी वाकई एक मील का पत्थर है। ऐसी चीजें बहुत कम ही आती हैं। जय हो.. के साथ भी ऐसा ही हुआ था। ऐसा संगीत के इतिहास में कम ही होता है।

क्या आपको लगता है कि लोकप्रियता को गुणवत्ता का मानंदड मान लिया जाना चाहिए? ऐसा नहीं है, लेकिन यह स्वीकारना पडेगा कि आज लोग किसी चीज के भीतर जाना, गहराई में उतरना नहीं चाहते। कुछ ऐसा चाहिए जो उनके इंटेलेक्ट को चैलेंज न करे।

आप खुद किस तरह का संगीत पसंद करते हैं?

मेरा लगाव तो शास्त्रीय संगीत से ही है। मैं तो चाहता हूं कि ढेर सारे कलाकार एक जगह एक साथ बैठकर अलग-अलग वाद्य बजा रहे हों। उनमें पूरब और पश्चिम सबके वाद्य शामिल हों। अपने यहां ऐसा कम हो पाता है, शायद बमुश्किल कभी-कभार। मैं दिल से चाहता हूं कि भारत में कुछ ऐसा हो, जिसकी यूनिवर्सल अपील हो। शायद इसके लिए मुझे खुद बहुत काम करना होगा।

पश्चिम के कौन से संगीतकार आपको पसंद हैं?

हेस जिमर, मोरी कोन, जॉन विलियम्स, गुस्ताव ..कई नाम हैं। पर मैं कुछ नया करना चाहता हूं। जो भी आपके पास आता है, कुछ नया चाहता है.. नई आवाज, नई धुन। तो मैं अपने-आपको ही हर दिन एक्सप्लोर करता हूं। संगीत स्वयं अपनी ही खोज करने जैसा है।

दो-तीन साल पहले आपने अपनी कुछ कंपोजिंग्स में खुद आवाज भी दी। कहीं कहा भी था कि आगे अकसर ऐसा करना चाहेंगे। पर यह दिखा नहीं..

मैंने ऐसा कुछ कहा हो, याद नहीं आता। यह मैं अब भी कह रहा हूं कि जहां जरूरी लगेगा, अपनी आवाज दूंगा। लेकिन तभी जब मुझे ये लगेगा कि मैं उसके साथ न्याय कर रहा हूं। वरना सिर्फ इसलिए कि मैं अपनी आवाज दूं, मैं किसी संगीत रचना के साथ अन्याय नहीं कर सकता।

भारतीय सिनेमा, खासकर बॉलीवुड में संगीत की पिछले कुछ दशकों की यात्रा देखें तो बडे उतार-चढाव नजर आते हैं। आप क्या महसूस करते हैं?

बहुत सारी चीजें हुई हैं। मेरा नजरिया शुरू से ये था कि भारतीय फिल्मी संगीत को वैश्विक पहचान मिलनी चाहिए। अब लगता है कि शायद ये भी रिफ्लेक्शन जैसा कुछ है। जो आपके भीतर चल रहा होता है, वही बाहर आता है। कई बार समय और परिस्थितियां बहुत कुछ करा लेती हैं। कुछ खास कैरेक्टर ही कुछ खास तरह के साउंड की मांग करते हैं। फिर हमें उसी जोन में जाना होता है और वैसी ही चीजें तैयार करनी होती हैं। मैंने 90 के दशक में जो काम किए, अब उन्हें आप देखें तो शायद लगे कि ये रचनाएं अपने समय से आगे की हैं। अभी जो काम कर रहा हूं, उनके साथ भी आगे ऐसा हो सकता है। अब लोग 60-70 के दशक से आगे की चीजें चाहते हैं। कभी-कभी आज के समय में ही हमें उस दौर में भी जाकर काम करना होता है। असल में यह इस पर निर्भर है कि हम कर क्या रहे हैं और उसकी जरूरत क्या है। पिछले दस वर्षो पर नजर डालें तो पाएंगे कि ऑर्केस्ट्रा खूब चला है। हॉलीवुड पर भी इसका असर देखेंगे। संगीत में ज्यादा चैलेंजिंग और ज्यादा आर्टिस्टिक इनपुट्स के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

कुछ निर्माताओं-निर्देशकों ने आपके कारण प्रोजेक्ट देर होने की बात भी कही। कुछ प्रस्ताव शायद आपने ठुकराए भी..?

मेरे चलते कोई प्रोजेक्ट लटका हो, यह सही नहीं है। यह जरूर है कि कुछ प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सका। क्योंकि मैं एक साथ बहुत सारे काम नहीं कर सकता। मुझे सफर भी बहुत करना पडता है। ऐसे में कुछ लोगों को निराश होना पडता है। मैं इस समय केवल वही कर रहा हूं जो पहले नहीं कर सका। बहुत काम एक साथ हाथ में ले लेने पर आप किसी के साथ न्याय नहीं कर पाते, न तो अपने साथ और न काम के साथ। मैं यह बिलकुल पसंद नहीं करता कि मैं स्टूडियो में खडा होऊं और सोचूं कि अब क्या करूं! तो इससे बेहतर है कि न स्वीकार किया जाए।

इतने प्रयोगों के लिए प्रेरणा कहां से मिलती है?

सबसे ज्यादा प्रकृति से। कई बार तो लीरिक्स, या कहें कि स्क्रिप्ट ही प्रेरणा का मुख्य स्रोत होती है। कभी डायरेक्टर इंस्पायर करते हैं और कभी कोई और।

आजकल सभी सलेब्रिटीज सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं। ट्विटर पर तो आप भी हैं, पर बहुत सक्रिय नहीं दिखते।

मैं लोगों को ये बताना पसंद नहीं करता कि आज यहां जा रहा हूं, वहां जा रहा हूं। इनके साथ हूं कि उनके साथ हूं। लोग ये सब करते हैं, पर खुद मुझे ये सब पसंद नहीं है। मैं अपनी जिंदगी अपने तक सीमित रखना पसंद करता हूं। क्रिएटिव आदमी हूं। परिवार के साथ समय बिताना मुझे बहुत प्रिय है। वक्त मिले तो इत्मीनान से रहना और काम करना पसंद करता हूं।

संगीत की दुनिया में आ रही नई पीढी के लिए क्या कहना चाहेंगे?

बस यही कि जो करें ओरिजिनल करें। आपके काम पर आपकी छाप होनी चाहिए।


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