छोटे शहरों की बड़ी दुनिया तनु वेड्स मनु
लगभग तीन साल पहले आई फिल्म तनु वेड्स मनु ने छोटे शहरों सहित बड़े शहरों की लड़कियों को भी भीतर तक गुदगुदाया और हैरान किया था। शादी से बचने के लिए लड़कियां क्या-क्या नहीं कर गुजरतीं और परंपरागत मूल्यों के बीच भी किस तरह क्रांतियां जन्म लेती हैं, इसकी दिलचस्प कहानी थी यह फिल्म। फिल्म कैसे बनी, निर्माता-निर्देशक आनंद राय बता रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज को।
तनु वेड्स मनु दोहरी डिस्कवरी है। फिल्म के तौर पर दर्शकों को सीधी-सादी खूबसूरत और मनोरंजक फिल्म मिली तो बतौर निर्देशक मुझे अपना सिग्नेचर स्टाइल मिला। मेरी पिछली फिल्म स्ट्रेंजर नहीं चली थी। फिर भी सुरक्षित भाव से मैं तनु वेड्स मनु की तैयारी कर रहा था। खुद को अभिव्यक्त करने का रास्ता खोज रहा था। निर्माताओं से मिलते समय मुझसे एक सवाल बार-बार पूछा जाता था कि यह दिखेगी कैसी? मेरे लिए यह बता पाना मुश्किल था। अपनी सोच को मैं शब्दों में कैसे दिखाता? लगभग आठ-नौ महीने तक हम भटकते रहे। मुझे अपनी स्क्रिप्ट पर विश्वास था, क्योंकि यह किसी डीवीडी से चुराई हुई कहानी नहीं थी। मेरी जडें मजबूत थीं। मुझे यह भी पता था कि मेरे दर्शक कौन हैं? बस एक जरिया खोजना था कि फिल्म बन सके। मुझे फिल्म का आदि और अंत पता था।
खुद संभाली कमान
जब मेरे पास कोई चारा न रहा तो मैंने खुद निर्माता बनने का फैसला किया। कहानी सुनाने का अपना फॉर्म तय किया। कास्टिंग कर ली। आर. माधवन और कंगना रनौत को मुख्य भूमिकाएं दीं। कास्टिंग करते समय मैंने उनकी पोजिशनिंग के बारे में नहीं सोचा। देश के बडे निर्माण गृह अलग ढंग की भव्य प्रेम कहानियां परोसते रहे हैं। मेरे पास न तो उनकी तरह धन था और न स्टार्स। इसमें कोई पॉपुलर स्टार नहीं हो सकता था। एक आम हिंदुस्तानी जैसे अपनी जिंदगी जीता है, वैसे ही मैं तनु वेड्स मनु बनाने लगा। मैंने तय किया कि रीअल स्पेस में जाकर शूटिंग करूंगा।
हमने लखनऊ, कानपुर, कपूरथला और दिल्ली में शूटिंग की। ये शहर फिल्म की धडकन बन गए। हम उन सभी गलियों में गए, जहां जिंदगी सासें लेती है। गीत-संगीत के लिए मैंने राज शेखर और कृष्णा को चुना। फिल्म बनाने में कई आर्थिक और व्यावहारिक अडचनें आई। पैसों के अभाव में कई बार शूटिंग रद्द करनी पडी। चूंकि फिल्म बनाने की हमारी नीयत साफ थी, इसलिए हम तकलीफों में भी खुश रहे।
ट्रडिशनल परिवार-नए मूल्य
मैंने महसूस किया कि मेरे भीतर एक छोटा जिद्दी बच्चा है। शायद उसी का नतीजा है कि इसके बाद रांझणा जैसी फिल्म बन सकी। तनु वेड्स मनु में मैं केवल निर्देशक था। रांझणा में थोडी मनमानी की। अगली फिल्मों में अब अपनी रुचि से काम करूंगा। मैं हमेशा सीधी-सच्ची कहानी सरल तरीके से सुनाना चाहता हूं।
फिल्म बनाते समय मुझे यकीन था कि दर्शक तनु और मनु दोनों को पसंद करेंगे। यहां तक की राजा भी उन्हें सही लगेगा। लोगों को यह डर था कि तनु और राजा नकारात्मक दिखेंगे। रांझणा के सोनम कपूर के बारे में भी लोग ऐसा ही सोच रहे थे। तनु को गढते समय मैं समझ रहा था कि वह इतनी विद्रोही क्यों है? उसकी मासूमियत को मैंने देखा था। तनु कानपुर के ट्रडिशनल परिवार की लडकी है। घर वालों ने उसे पढने दिल्ली भेजा है। चार सालों में वह दिल्ली से बडा एक्सपोजर लेकर लौटी है। उस आजादी को वह जीना चाहती है। विडंबना है कि इसके बाद उसे ऐसे लडके से शादी करने के लिए कहा जा रहा है, जिसे वह पहले से नहीं जानती। वह विद्रोह नहीं करेगी तो क्या करेगी? उसकी मां छोटे शहर की होने के बावजूद खुले विचारों की है। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं घबराया भी था। डर था कि कानपुर के लोग यह न सोचें कि उनके शहर की लडकी को मैंने गलत तरीके से दिखा दिया। लेकिन किसी ने आपत्ति नहीं की। उन्हें तनु सच्ची लगी।
सीधा-सादा मनु
हिंदी फिल्मों की समस्या यह है कि हम गांवों या छोटे शहरों को बिना देखे-समझे फिल्मों में उतारने की कोशिश करते हैं। ऐसी कोशिशों के नतीजे भी हम देख चुके हैं। फिल्मकार गलत फहमी में रहते हैं। उन्हें लगता है कि छोटे शहर कहीं थम गए हैं। मगर वहां के यूथ से मिलें तो पता चलेगा कि उस परिवेश में वे कितने प्रगतिशील हैं। मैंने देखा है कि वे नई से नई चीजें सीखने व अपनाने को तैयार रहते हैं। अपनी कहानी व किरदारों की पवित्रता बनाए रखने के लिए मैं उन्हें छोटे शहरों में ले जाता हूं। राजा को देखें। शहर का बिगडैल बच्चा बहन को देखने आए मेहमानों के लिए समोसे लेकर बाइक से उतरने के साथ ही पहचान जाहिर कर देता है। मनु की सादगी एवं ईमानदारी में द्वंद्व या द्वेष नहीं है। दस साल बाद विदेश से लौटने पर वह बचपन के लंगोटिया यार से गले मिलता है और बाहर निकलते ही मां-बाप के पांव छूता है। दस साल बाद भी वह अमेरिका के यो कल्चर से प्रभावित नहीं है। माधवन द्वारा प्रेम का इजहार करने का दृश्य रोचक और देसी है। शूटिंग करते समय माधवन को आशंका थी कि उनका किरदार प्रभाव नहीं डाल पाएगा। वे बार-बार पूछते थे कि मेरे सीन में एक्शन क्यों नहीं है? मैं उन्हें समझाता था कि यही भूमिका दर्शकों को भा जाएगी। वही हुआ। मेरे किरदार दर्शकों को अपनी तरह लगे।
कानपुर की तनु
शहरों के चुनाव का सुझाव फिल्म के लेखक हिमांशु शर्मा की तरफ से आया था। उन्हें अपने किरदारों के मिजाज से मेल खाते शहर चाहिए थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि तनु को हम कानपुर ले चलेंगे। कानपुर की लडकियों में एक अलग किस्म का तीखापन होता है। मनु को दिल्ली का ही होना था। राजा अवस्थी के किरदार के लिए हमने लखनऊ को चुना। उनमें नवाबीपन के साथ त्याग की भावना भी है। उस किरदार की धमक को रांझणा में हिमांशु शर्मा ने एक संवाद में उतारा, अकसर गली-मोहल्लों के लौंडों के प्यार को डॉक्टर-इंजीनियर उडा ले जाते हैं। गली-मोहल्ले का वह लौंडा राजा अवस्थी ही था, जिसके प्यार (तनु) को मनु ले उडा था।
गीत-संगीत का प्रयोग
फिल्म का गीत-संगीत बहुत पॉपुलर हुआ था। ढेर सारे दर्शकों ने मुझसे बाद में कहा कि साड्डी गली आया करो जैसा गीत वह फिल्म में देखना चाहते थे। यह सच था कि यह गीत मेरे दिमाग में शूटिंग के दौरान बजता रहा था, लेकिन राज शेखर और कृष्णा इसे समय पर तैयार नहीं कर पा रहे थे। जब गीत तैयार हुआ, तब तक शूटिंग पूरी हो गई थी। मैं दूसरे लोगों की तरह बिना गाने के शूटिंग नहीं कर सकता था। सभी कहते हैं कि वह गाना फिल्म में होता तो फिल्म की कमाई थोडी बढ जाती। लेकिन मुझे लगता है कि गाना ठूंसने पर हम उस कमाई को गंवा भी सकते थे। मेरे गीतकार और संगीतकार नए होने के बावजूद बडे आत्मविश्वासी थे। दोनों ही बहुत मेहनती एवं प्रतिभाशाली हैं। राज शेखर युवा हैं। उनमें प्रतिभा खदबदाती रहती हैं। वह काफी पढे-लिखे और सुलझे इंसान हैं। दूसरी ओर कृष्णा बहुत मेहनत करते हैं। वह नए प्रयोग करने में बिलकुल नहीं घबराते या हिचकिचाते। फिल्म के गीत लोकप्रिय हुए और उन्हें कई पुरस्कार भी मिले, इससे मेरे गीतकार और संगीतकार की प्रतिभा और काबिलीयत साबित होती है।
अजय ब्रह्मात्मज