Move to Jagran APP

रिश्ते जो दिल के करीब हैं

ाहानगरों में परिवार का आकार भले ही छोटा हो गया हो, लेकिन लोगों के दिलों में आज भी अपनत्व जीवित है। संयुक्त परिवार की जगह अब विस्तृत परिवार लेता जा रहा है। घर से दूर अजनबी शहरों में भी कुछ ऐसे स्नेह भरे रिश्ते बन जाते हैं, जो खून के रिश्ते से कम नहीं होते। हमारी जिंदगी में ऐसे रिश्तों की क्या अहमियत है और ये हमें किस तरह प्रभावित करते हैं, क्या दिल का रिश्ता खून के रिश्ते से ज्यादा मजबूत होता है? विशेषज्ञों और मशहूर शख्सीयतों के साथ ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

By Edited By: Published: Fri, 01 Feb 2013 12:32 AM (IST)Updated: Fri, 01 Feb 2013 12:32 AM (IST)
रिश्ते जो दिल के करीब हैं

घर की चारदीवारी के बाहर एक और विस्तृत दुनिया है, जिससे हमारे सामाजिक सरोकार जुडे होते हैं। पास-पडोस, दोस्त-रिश्तेदार और सहकर्मियों के अलावा कई ऐसे लोग होते हैं, जो परिवार के सदस्य नहीं होते, फिर भी जिंदगी को बेहतर बनाने में उनका बडा योगदान होता है। जरा सोचिए, अगर ऐसे रिश्ते-नाते न होते तो हमारी जिंदगी कितनी उदास और बेरौनक होती।

loksabha election banner

एहसास अपनत्व का

कार्तिकेय पेशे से ग्राफिक डिजाइनर हैं। वह कहते हैं, मैं मूलत: आंध्र प्रदेश का रहने वाला हूं। पिछले दस वर्षो से दिल्ली में हूं। मेरी पत्नी भी स्कूल में टीचर हैं। शुरुआत में यहां हमें बहुत बेगानापन  महसूस होता था, पर धीरे-धीरे हम यहां एडजस्ट हो गए। जब मैं दिल्ली आया था तब मेरी बेटी मात्र दो साल की थी। उस वक्त हमारे नेक्स्ट डोर नेबर ने हमारी बहुत मदद की। उनकी बेटियों की उम्र तकरीबन पांच-छह साल थी। वे मेरी बच्ची को अकसर अपने घर ले जाती थीं। उन्हीं के साथ रहकर वह बडी आसानी से हिंदी बोलना सीख गई थी। जब मेरी पत्नी उसे आया के साथ घर पर अकेला छोडकर स्कूल जातीं तो उनकी अनुपस्थिति में पडोस का वह परिवार मेरी बेटी का पूरा खयाल  रखता था। अब हमारे वह पडोसी जर्मनी में सेटल हो गए हैं, पर फोन के जरिये उनसे अब भी संपर्क कायम है। छुट्टियों में जब भी वे इंडिया आते हैं तो हमसे मिले बगैर नहीं जाते। उस परिवार से अब हमारा एक ऐसा स्नेह भरा नाता बन गया है, जो इस अजनबी शहर में भी हमें अपनत्व का एहसास दिलाता है।

समाजीकरण है जरूरी

आजकल महानगरों के एकल परिवारों में रहने वाले बच्चे खुद  को बहुत अकेला महसूस करते हैं। पहले संयुक्त परिवारों में माता-पिता के अलावा कई अन्य सदस्य होते थे। जिनके साथ रहकर बच्चों में सहजता से शेयरिंग  और केअरिंग की भावना विकसित होती थी, पर अब ऐसा नहीं है। न्यूक्लियर  फेमिली  में भी एक ही बच्चे का चलन बढता जा रहा है। इससे बच्चे आत्मकेंद्रित हो रहे हैं। उनके व्यक्तित्व के संतुलित विकास में समाजीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चा जैसे ही बोलना-चलना सीखता है, वह हर पल घर से बाहर निकलने को बेताब रहता है। इसकी खास वजह यही है कि मनुष्य मूलत: सामाजिक प्राणी है। उसे बाहर की दुनिया बहुत आकर्षित करती है। वह नई चीजें देखने और समझने की कोशिश करता है। ऐसे में बच्चे को रोकना ठीक नहीं है। बाहर जाकर ही वह दूसरे बच्चों से दोस्ती करना सीखता है। बाहर की दुनिया में ही बच्चे अपने अधिकारों के लिए लडना और एडजस्टमेंट सीखते हैं। कई अध्ययनों में यह पाया गया है जिन बच्चों का समाजीकरण सही ढंग से नहीं होता बडे होने के बाद वे स्वार्थी, दब्बू और चिडचिडे बन जाते हैं। इसी वजह से आज के जागरूक अभिभावक अपने बच्चों के समाजीकरण पर बहुत ध्यान देते हैं और उन्हें नए दोस्त बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। यहां तक कि अपने लिए मकान या फ्लैट खरीदते समय भी वे बच्चों की सामाजिक जरूरतों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि अब उन्हें बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में इक्स्टेंडिड  फेमिली  की अहमियत का एहसास होने लगा है।

साथी हाथ बढाना

आज का मध्यमवर्ग तेजी से अपना जीवन स्तर बेहतर बनाने की कोशिश में जुटा है। यही वजह है कि उच्च शिक्षा हासिल करने और करियर के बेहतर अवसरों की तलाश में छोटे-छोटे कसबों से महानगरों में आने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढ रही है। घर-परिवार से दूर अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लेकर अनजाने शहर में आने वाले युवा यहां दोस्तों का एक नया कुनबा बना लेते हैं। दूसरे शहरों से महानगरों में आने वाले युवा अकसर साथ मिलकर रहते हैं। यह व्यवस्था उनके लिए किफायती होने के साथ सुरक्षित और आरामदायक भी होती है। इससे बेगाने शहर में उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होता। बीमारी या किसी अन्य परेशानी में वे एक-दूसरे के लिए मददगार साबित होते हैं। हालांकि, अलग-अलग परिवेश से आने वाले लोगों के साथ एडजस्टमेंट में थोडी दिक्कत जरूर होती है, पर सुविधाओं की खातिर इन कामकाजी युवाओं को अपनी कुछ आदतें बदलने में जरा भी गुरेज नहीं।

जरूरतों से भी बनते हैं रिश्ते

समान हितों के लिए साथ मिल-जुलकर रहना आज महानगरीय जीवनशैली की जरूरत है। वहां लोग अपनी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपनाते हैं। आजकल पेट्रोल की बढती कीमतों और ट्रैफिक की परेशानियों को देखते हुए कुछ लोग अपने पडोस में रहने वाले लोगों के साथ मिलकर कार पूलिंग की भी व्यवस्था कर लेते हैं। इससे वे कम खर्च  में आराम से ऑफिस पहुंच जाते हैं। आजकल न्यूक्लियर फेमिली में छोटे बच्चों की परवरिश के दौरान मांओं के सामने कई तरह की समस्याएं आती हैं। परिवार में उनके साथ कोई दूसरी स्त्री नहीं होती, जिससे वे अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करके उनका हल ढूंढ सकें।

इसलिए अब भारत में भी यूरोपीय देशों की तरह प्ले स्कूल जाने वाले बच्चों की मम्मियों ने साथ मिलकर मदर-टोडलर्स ग्रुप बनाना शुरू कर दिया है। इस ग्रुप की सभी स्त्रियां महीने में एक या दो बार अपने बच्चों के साथ किसी एक के घर पर मिलती हैं। वहां उनके बच्चों को हमउम्र दोस्तों के साथ जी भरकर खेलने-कूदने का मौका मिलता है। इसी दौरान उनकी मम्मियां बच्चों की सेहत, खानपान और उनके विकास संबंधी समस्याओं पर आपस में खुलकर बातचीत करती हैं। इस तरह बातों ही बातों में कई समस्याओं का हल निकल आता है। इसके अलावा फोन के माध्यम से भी वे हमेशा एक-दूसरे के संपर्क में रहती हैं। इससे उन्हें स्कूल से जुडी सभी गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती है। अपना परिवार भले ही छोटा हो, पर इससे बाहर इनकी बहुत बडी इक्स्टेंडिड  फेमिली  है। महानगरों में ज्यादातर स्त्रियां कामकाजी होती हैं, वहां घरेलू सहायक उनके लिए परिवार के किसी सदस्य से कम नहीं होते। इसलिए यहां रहने वाले लोग उनके श्रम का सम्मान करते हुए उनका पूरा खयाल रखते हैं।

वर्चुअल व‌र्ल्ड के अनूठे रिश्ते

भले ही कुछ लोग सोशल नेटवर्किग  साइट्स या ब्लॉगिंग  को वक्त  बर्बाद करने का जरिया मानते हों, पर इसकी कई ऐसी खूबियां  हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज की अति व्यस्त जीवनशैली में जहां किसी के पास दूसरों की बातें सुनने का वक्त  नहीं होता, ऐसे में यह वर्चुअल दुनिया समान विचार रखने वाले लोगों को दोस्ती और विमर्श का एक मंच प्रदान करती है। वहां वे खुल कर अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे साइट्स के जरिये लोगों को बचपन के बिछडे दोस्त वापस मिल जाते हैं, दूर के रिश्तेदारों के साथ नए सिरे से संपर्क कायम हो जाता है, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बैठे लोगों के बीच भावनाओं और विचारों की इतनी सुंदर साझेदारी सिर्फ इसी दुनिया में देखने को मिल सकती है। इस संबंध में एनआरआइ ब्लॉगर  सुजय कहते हैं, केरल में रहने वाली एक महिला ब्लॉगर  से मेरी अच्छी मित्रता हो गई है। उन्होंने मुझे सपरिवार केरल आने का निमंत्रण दिया था। जब मैं छुट्टियों में भारत आया तो उनके घर भी गया। उनके पूरे परिवार ने खुले दिल से हमारा स्वागत किया। अब तो उनके बच्चों की मेरे बेटे से अच्छी दोस्ती हो गई है और उनसे मेरी पत्नी का भी बहनापा हो गया है। इस तरह वर्चुअल व‌र्ल्ड ने भारत में मुझे नया फेमिली  फ्रेंड  दिया।

प्यार से मिलता है संबल

महानगरों में बुजुर्गो का अकेलापन बडी समस्या बनती जा रही है क्योंकि उनकी युवा संतानें जॉब की वजह से शहर या देश से बाहर चली जाती हैं। इसलिए कुछ बुजुर्गो ने अपना सोशल क्लब बना रखा है, जहां वे साथ मिलकर अपनी रुचि से जुडे विषयों पर बातचीत करते हैं, शतरंज, कैरम और ताश जैसे इंडोर गेम्स खेलते हैं। जिनकी सेहत इजाजत देती है, वे बैडमिंटन और टेनिस जैसे आउटडोर गेम्स का भी लुत्फ उठाते हैं। कुछ लोग पास-पडोस के जरूरतमंद बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते हैं। कई बार कुछ बुजुर्ग दंपती साथ मिलकर अपने मनपसंद पर्यटन स्थलों की सैर पर निकल पडते हैं। धार्मिक रुझान के लोग मंदिरों की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन जाते हैं। इस तरह सत्संग और भजन-कीर्तन जैसे आयोजनों में उनका मन रम जाता है। यहां परिवार के अन्य सदस्य भले ही उनके साथ न हों, पर आसपास के लोगों का प्यार ही उन्हें जिंदादिल बनाए रखता है।

पीजी आंटी से नेह भरा नाता

बडे शहरों में रहने वाले बुजुर्ग अकेलापन दूर करने के लिए कई नई तरकीबें ढूंढ रहे हैं। महानगरों में पीजी का बढता चलन भी इनमें से एक है। वहां अकेले रहने वाले बुजुर्ग (ज्यादातर स्त्रियां) कामकाजी युवाओं को अपने घरों में बतौर पेइंग गेस्ट रहने की सुविधा मुहैया करवाते हैं। इससे जहां एक ओर उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी होती है, वहीं घर में किसी युवा का साथ उन्हें भावनात्मक सुरक्षा का भी एहसास दिलाता है। बीमारी या किसी आकस्मिक स्थिति में ये पेइंग गेस्ट उनके लिए बहुत मददगार साबित होते हैं। उनके बीच परिवार के सदस्यों जैसा अपनत्व विकसित हो जाता है। पीजी आंटी का घर छोडने के बाद भी वे फोन से उनकी खैरियत पूछना नहीं भूलते। हालांकि, आजकल बढती हिंसक घटनाओं को देखते हुए कुछ लोग अपने घर में पेइंग गेस्ट रखने से पहले उसकी पूरी जांच-पडताल करते हैं या फिर परिचितों को ही पेइंग गेस्ट रखना पसंद करते हैं।

हम साथ-साथ हैं

महानगरों की एकाकी और आत्मकेंद्रित जीवनशैली से अब लोग ऊबने लगे हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार विचित्रा दर्गन आनंद कहती हैं, भावनाओं की शेयरिंग  हमें तनाव और डिप्रेशन  जैसी समस्याओं से बचाती है। अब लोगों को अपनों के साथ की अहमियत का एहसास होने लगा है। इसलिए वे परिवार से बाहर अपना सामाजिक दायरा बढाने की कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश का असर महानगरीय जीवनशैली में अलग-अलग स्तरों पर देखने को मिलता है। अब तक लोग ऐसा समझते थे कि अपार्टमेंट्स  में रहने वाले लोग एक-दूसरे को नहीं जानते और न ही वे पडोसी की मदद करते हैं, पर सच्चाई यह है कि आजकल हर अपार्टमेंट  के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से वहां सभी त्योहारों का सामूहिक आयोजन किया जाता है। जिसके माध्यम से वहां रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने का अवसर मिलता है। बडे शहरों में अब लोग मिल-जुलकर रहने की अहमियत समझने लगे हैं। भले उनके पास समय की कमी हो, फिर भी वे अपने पास-पडोस का खयाल रखते हैं। स्त्रियों की किटी पार्टी उनके सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा है। अकसर लोग किटी  पार्टी को स्त्रियों की गॉसिपिंग का अड्डा मानते हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसे छोटे सामाजिक समूहों के माध्यम से वे एक-दूसरे के सुख-दुख में बराबर की साझीदार होती हैं।

इस संबंध में चार्टर्ड एकाउंटेंट राहुल शर्मा कहते हैं, बडे शहरों की व्यस्तता हमें अकेलेपन के बारे में ज्यादा सोचने का मौका नहीं देती, पर असुरक्षा की भावना हमें बहुत सालती है। यहां हमारा कोई रिश्तेदार भी नहीं है। ऐसे में दोस्तों का ही सहारा होता है। इसी वजह से हम चार करीबी दोस्तों ने साथ मिलकर एक ही अपार्टमेंट  में फ्लैट्स की बुकिंग कुछ इस तरह कराई है कि हम चारों एक-दूसरे के आसपास रह सकें। अगले साल तक हम वहां शिफ्ट हो जाएंगे। हमारे परिवार के सदस्यों की भी आपस में बहुत बनती है। उम्मीद है कि वहां हमारी जिंदगी सुकून भरी होगी।

यह सच है कि संयुक्त परिवार सबसे अच्छी व्यवस्था है, पर हर समाज को कभी न कभी बदलाव के दौर से गुजरना पडता है। यह हमारे लिए कठिन परीक्षा की घडी होती है। इसी बदलते दौर में जबसंयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवार लेने लगे तो सभी के माथे पर बल पड गए। लोगों ने सोचा कि अब हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है..पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हर नया बदलाव अपने साथ कुछ मुश्किलें लाता है, पर उन्हीं के बीच से नए रास्ते भी निकल आते हैं। जब परिवारों का आकार छोटा हुआ तो कमियां पूरी करने के लिए हमने कई नए विकल्प भी ढूंढ लिए क्योंकि अकेले रहना हम भारतीयों की फितरत नहीं है। परिवार तो हमारे दिलों में बसा होता है। हम चाहे जहां भी रहें, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को जीते हैं।

दोस्ती निभाता हूं मैं

सलमान खान, अभिनेता

दोस्ती का रिश्ता बेहद अहम है। मित्रता खून के रिश्ते से ज्यादा करीब है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी दोस्ती किससे और कितनी पुरानी है। अगर विचारों में समानता हो और दोनों व्यक्ति अपने इस रिश्ते को लेकर गंभीर हों तो दोस्ती खून के रिश्ते से भी ज्यादा करीब हो सकती है। हालांकि, आज के जमाने में जब दो भाइयों के बीच नहीं बनती तो फिर दोस्ती की क्या गारंटी दी जा सकती है? फिर भी मैं पूरी शिद्दत के साथ दोस्ती निभाने में यकीन रखता हूं।

परिवार में सदस्यों की संख्या मायने नहीं रखती

चित्रांगदा सिंह, अभिनेत्री

दोस्ती को मैं खून के रिश्ते से भी ज्यादा करीब मानती हूं। मेरे दो ऐसे दोस्त हैं, जो परिवार के सदस्यों से भी ज्यादा करीब हैं। वैसे, घर में मैं अपने भाई के सबसे ज्यादा करीब हूं। सच्ची दोस्ती की खासियत यह है कि इसमें आप एक-दूसरे के साथ किसी वजह से नहीं होते। एक-दूसरे से ज्यादा उम्मीदें नहीं होतीं। किसी काम के लिए न तो शुक्रिया अदा करने की जरूरत होती है, न ही सॉरी कहने की। यहां हम बेहद अनौपचारिक रहते हैं। हम अपने दिल की हर बात दोस्त के साथ शेयर कर सकते हैं। इसमें जुडाव ज्यादा होता है क्योंकि दोस्त हम खुद चुनते हैं। परिवार से हमारा रिश्ता खुद-ब-खुद कायम हो जाता है। मेरे खयाल से बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में परिवार के सदस्यों की संख्या मायने नहीं रखती। यहां लोगों की नीयत ज्यादा अहमियत रखती है। परिवार में लोग भले ही कम हों, पर उनका लक्ष्य सदस्यों की बेहतरी होनी चाहिए। तभी सही मायने में परिवार की उपयोगिता साबित होती है।

दूसरों के लिए जीना सिखाती है दोस्ती

अनिल कपूर, अभिनेता

दोस्ती का रिश्ता खून का तो नहीं है, लेकिन यह प्यार, विश्वास और त्याग से अनोखा बन जाता है। यह रिश्ता हमें देना सिर्फ देना सिखाता है। इसमें दूसरों से कुछ पाने की उम्मीद या स्वार्थ जैसी कोई बात नहीं होती। अच्छे दोस्त की हमारे जीवन में खास जगह होती है, जो हमारे सुख-दुख का साथी भी बन जाता है। दोस्ती जैसा खुलापन किसी दूसरे रिश्ते में संभव नहीं है। दोस्त से हम अपने मन की हर बात कह सकते हैं। बुरे वक्त में दोस्तों की मदद और नेक सलाह से हमारी जिंदगी की दिशा बदल जाती है।

गिव एंड टेक पर ही टिके हैं रिश्ते

परेश रावल, अभिनेता

आज के दौर में सभी रिश्ते गिव एंड टेक की थ्योरी पर ही चलते हैं। गलाकाट प्रतिस्पर्धा और अति महत्वाकांक्षा लोगों को अति व्यावहारिक बनने पर मजबूर कर रही है। आज कोई भी इंसान अपने सामाजिक संबंधों को लेकर ज्यादा भावुक नहीं होता। यह एक तरीके से सही भी है। इससे कोई भी इंसान दूसरों से ज्यादा उम्मीद नहीं रखता और अपने रास्ते खुद बनाने की कोशिश करता है। सच्चे दोस्त भी एक सीमा तक ही काम आते हैं। उसके बाद जो जरूरतमंद है या तो उसमें हीन भावना आनी शुरू हो जाती है या फिर जिसे बार-बार मदद करनी पडती है, वह अपने दोस्त से कन्नी काटने लगता है। यह स्थिति पैदा ही न हो, इसके लिए दूसरों से ज्यादा उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। अब श्रीकृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती नामुमकिन है। इस लिहाज से एकल परिवार समय की मांग है। इसमें माता-पिता पूरे मनोयोग से अपने बच्चों की परवरिश करते हैं। पेरेंट्स उन्हें इस लायक बनाने की कोशिश करते हैं कि बडे होने के बाद वे पूरी तरह आत्मनिर्भर हों।

बार्टर सिस्टम से नहीं बनते रिश्ते

संजय चौहान, निर्देशक

मैं नहीं मानता कि समाज में ज्यादातर रिश्ते गिव एंड टेक की थ्योरी पर चलते हैं। जहां रिश्ते की बुनियाद सिर्फ लेन-देन और फायदे-नुकसान पर टिकी हो, जिस रिश्ते पर उम्मीदें हावी हों, वह रिश्ता बार्टर सिस्टम से ज्यादा कुछ नहीं है। ऐसा रिश्ता कभी भी टिकाऊ नहीं हो सकता। दोस्त की जरूरत हमेशा से रही है और रहेगी। यह आपको सहज रहने में मदद करता है। आज भी मेरे पुराने दोस्त मुझसे उसी बेतकल्लुफी से बातें करते हैं, जैसा कि कॉलेज के दिनों में करते थे। बॉलीवुड में कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां दोस्ती और संपर्क के आधार पर काम मिलता है। अपने लिए हम दोस्तों का चुनाव खुद करते हैं, पर रिश्तेदारी में ऐसा संभव नहीं होता। इतिहास में भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं कि राजाओं के सेनापति उनके रिश्तेदार नहीं, बल्कि सक्षम दोस्त रहे हैं। उन पर राजाओं ने अपने परिवार वालों से ज्यादा भरोसा किया।

जहां तक बच्चों की बेहतर परवरिश का सवाल है तो इसके लिए मैं संयुक्त परिवार को एकल परिवार के मुकाबले बेहतर मानता हूं। संयुक्त परिवार के बच्चे किसी भी माहौल में आसानी से सामंजस्य बिठा सकते हैं क्योंकि वे अपना बचपन कई लोगों के साथ बिताते हैं। वे सामने वाले के व्यक्तित्व को आसानी से परखने में माहिर होते हैं।

परिवार की जगह कोई नहीं ले सकता

अनुष्का शर्मा, अभिनेत्री

दोस्त हमारे व्यक्तित्व को संवारने में अहम भूमिका निभाते हैं। जिंदगी के हर मोड पर अलग-अलग दोस्त होते हैं। उन सभी दोस्तों के व्यक्तित्व का असर हमारे ऊपर पडता है। मेरे दोस्त बहुत अच्छे हैं। मेरे व्यक्तित्व को मजबूत बनाने में उनका बहुत बडा योगदान है। मुंबई में आसिमां छिब्बर और मनीष शर्मा मेरे अच्छे दोस्त हैं। फिर भी मेरा मानना है कि दोस्त परिवार के सदस्यों की जगह नहीं ले सकते। दोस्त भले ही हम खुद चुनते हैं, लेकिन परिवार हमारी जिंदगी का अटूट हिस्सा होता है। जब भी मेरे मन में कोई दुविधा होती है तो उसे दूर करने के लिए मैं पापा से मदद लेती हूं। हां, करियर से जुडे फैसले मैं खुद ही लेती हूं। मैं नहीं मानती कि मुंबई में दोस्ती ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती। मेरे कई दोस्त फिल्म इंडस्ट्री से बाहर के हैं, पर उनसे अच्छी और पुरानी दोस्ती है। दोस्तों से रोजाना बात करना जरूरी नहीं होता और जब हम बात करते हैं तो कोई शिकवा-शिकायत नहीं रहती। ऐसे दोस्त नहीं होने चाहिए जो फोन करने पर शिकायत करें कि इतने दिन कहां थे?

शोएब हैं बेस्ट फ्रेंड

सानिया मिर्जा, टेनिस खिलाडी

मैं दोस्ती को नायाब तोहफा मानती हूं। यह एक ऐसा रिश्ता है, जो इंसान के दिल और दिमाग दोनों के दरवाजे खोलता है। यह एक खुशनुमा एहसास है। दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाए तो वह सोने पे सुहागा वाली बात होती है। शोएब मेरे लिए पति होने के साथ बेस्ट फ्रेंड भी हैं। उनके परिवार से मुझे पूरा इमोशनल सपोर्ट मिलता है। संयुक्त परिवार की जरूरत आज भी बनी हुई है। ऐसे परिवारों में अगरलोगों की नीयत सही हो तो घर जन्नत से कम नहीं होता। वहां बच्चे को ढेर सारा प्यार मिलता है। संयुक्त परिवार में पलने वाले बच्चे ज्यादा सोशल और जिंदादिल होते हैं।

बच्चों के लिए अच्छा है एकल परिवार

नीरज पांडे, निर्देशक

दोस्ती कुदरत की बेहतरीन सौगात है। यह आपको सामाजिक बनाती है। दोस्ती हमें रिश्ते निभाना और जिंदगी से जुडे अहम फैसले लेना सिखाती है। अगर अच्छे दोस्तों का साथ हो तो इससे हमारा आत्मविश्वास बढता है। जहां तक बच्चों की बेहतर परवरिश का सवाल है तो मैं एकल परिवार को सही मानता हूं। यहां बच्चे को पर्सनल स्पेस मिलता है। एकल परिवारों में माता-पिता अपने तरीकेऔर पसंद से बच्चों के व्यक्तित्व को संवारते हैं। उनके फैसलों में परिवार के अन्य सदस्यों को हस्तक्षेप नहीं होता। इससे बच्चों को अनुशासित और आत्मनिर्भर बनाना ज्यादा आसान होता है।

रिश्ते की गरिमा समझें

अभिषेक कपूर, निर्देशक

मेरे खयाल से हमें कोई अच्छा दोस्त मिले, इससे ज्यादा जरूरी यह है कि पहले हम खुद को दूसरे के सामने सच्चा दोस्त साबित करें और इस रिश्ते की गरिमा को समझें। अगर हम यह समझ जाएं तो दोस्ती से अच्छा कुछ भी नहीं है। हमारे मन में दोस्त के लिए सारी खुशियां कुर्बान कर देने का जज्बा होना चाहिए। इसमें फायदा-नुकसान जैसी बातों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

इंटरव्यू : मुंबई से अमित कर्ण एवं दुर्गेश सिंह


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.