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हर स्थिति में खुशी का कोई बहाना ढूंढें

खुशी और कुछ नहीं, चीजों को देखने का नजरिया है। यह अपने भीतर है, जिसे हम जब चाहें, पा सकते हैं, यहां तक कि दूसरों पर लुटा भी सकते हैं।

By Edited By: Published: Wed, 11 Jan 2017 04:32 PM (IST)Updated: Wed, 11 Jan 2017 04:32 PM (IST)
हर स्थिति में खुशी का कोई बहाना ढूंढें
यह कहानी द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर की है। अस्पतालों में घायलों की भीड थी। एक वॉर्ड में स्पाइन इंजरी वाले मरीज भर्ती थे, जो हिलने-डुलने में असमर्थ थे। एक घायल का बिस्तर खिडकी की तरफ लगा था। वह रोज खिडकी से बाहर के नजारे देखता और उनका ऐसा सजीव वर्णन करता कि अगल-बगल लेटे मरीजों को उससे ईष्र्या होने लगती। वह बताता कि बाहर बच्चे खेल रहे हैं..., कोई बारात गुजरी है...., पार्क में फूल खिल रहे हैं...., पेड में फल लद गए हैं और पक्षी अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं....। फिर एक दिन गंभीर रूप से घायल उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई। इसके बाद खिडकी की तरफ किसी अन्य का बिस्तर लगाया गया। सारे मरीज उससे भी बाहर का हाल बताने का आग्रह करने लग। उसने पूरी ताकत जुटा कर खिडकी के बाहर झांकने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ नजर न आया। वहां महज एक ऊंची सी दीवार थी...। प्रसन्नता का मासूम चेहरा इंसान का स्वभाव मूल रूप से प्रसन्न रहना है। नन्हा सा बच्चा नींद में मुस्कुराता और बोलता है। सिर्फ भूख लगने पर ही रोता है, वह भी इसलिए कि उसके पास अभिव्यक्ति का कोई अन्य तरीका नहीं है। बचपन से युवावस्था तक का समय हंसने-खिलखिलाने और सहज रहने में गुजारता है। जैसे-जैसे जिम्मेदारियां बढती हैं, व्यक्ति गंभीरता ओढऩा शुरू करता है। कमाने, घर चलाने, बच्चों की परवरिश करने, माता-पिता को सुकून प्रदान करने के चक्कर में वह इतना उलझने लगता है कि हंसने की स्वाभाविक प्रकृति से ही दूर होने लगता है। हंसी के अनमोल खजाने में जब समस्याओं की सेंध लगती है तो मन का लॉकर धीरे-धीरे खाली होने लगता है। उसे पता भी नहीं चलता कि कब हंसी के उसके खाते का बैलेंस जीरो हो गया। प्रकृति की हर चीज अपने स्वभाव में रहती है। चिडिय़ा हंसती है, फूल हंसते हैं, पेडों के पत्ते हंसते हैं, दुनिया की हर शैली मुसकुराती है...। केवल इंसान ही उम्र के साथ अपने मूल स्वभाव को खोता है। मन का खजाना कम होता है तो बाहरी संसाधनों के जरिये उसे खोजने की कवायद शुरू होती है। इसके लिए चुटकुले पढे जाते हैं, स्माइली या इमोजी का सहारा लिया जाता है, फनी विडियो खोजे जाते हैं, कॉमेडी फिल्में या टीवी धारावाहिक देखे जाते हैं। यहां तक कि लाफ्टर थेरेपी का सहारा लेने की जरूरत पडऩे लगती है। जाने क्या ढूंढता है मन संत-महात्मा यही कहते हैं कि खुशी बाहर नहीं, मन के भीतर है। यह ऐसा भी गूढ विषय नहीं, जिसे समझा न जा सके। हम भी कई बार छोटी-छोटी बातों पर प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि कई बार बडी उपलब्धियां या सफलताएं भी खुश नहीं कर पातीं। खुशी इच्छाओं की पूर्ति में नहीं है क्योंकि यह भौतिक नहीं-आत्मिक है। अगर यह बाहर है ही नहीं तो मिलेगी कैसे? इसे ढूंढने के लिए तो मन की कई तहें पार कर उस पॉइंट तक पहुंचना होगा, जहां यह छिपी बैठी है। फूल का खिलना, बच्चे का गर्भ में हिलना-डुलना, बारिश की बौछारें, ओस की बूंदें, सूरज की पहली किरण, क्षितिज पर इंद्रधनुष, शाम के झुरमुट में पक्षियों का कलरव, मीठी सी कोई धुन या अच्छी सी पुस्तक....हर रोज मुस्कुराने की हजारों वजहें होती हैं। झूठे दंभ, अहं, शिकायतें, क्रोध, ईष्र्या, कामनाएं उन खुशियों से दूर ले जाने लगती हैं। खुशी की परिभाषा महज भौतिक सफलताओं तक सीमित नहीं है, इससे कहीं व्यापक है। कई बार तो बडी खुशियां हासिल करने की ललक छोटी-छोटी खुशियों से दूर कर देती है। मुस्कुराने के लिए किसी मुहूर्त या मौके की जरूरत नहीं होती, यह तो यूं ही बेबात चेहरे पर नजर आ जाती है। और भी दुख हैं जमाने में मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि कई बार लोग इसलिए हंसते हैं क्योंकि भीतर से प्रसन्न होते हैं लेकिन कई बार निरर्थक मुस्कुराना भी खुशी का सबब बन जाता है। यदि मुस्कुराहट अकारण-असमय चेहरे पर आए तो मन की परतों में जमी दुख की धुंध छंटने लगती है। रोजमर्रा की जिंदगी में तनाव के हजारों कारण गिनाए जा सकते हैं। जरा देखें....नौकरीपेशा लोगों के घर की आम सुबह कैसी होती है? सुबह अलार्म बजने के बावजूद नींद समय पर नहीं खुलती, स्टॉप तक पहुंचते-पहुंचते बच्चे को स्कूल ले जाने वाली बस निकल जाती है या खराब होने के कारण आती ही नहीं और उसे छोडऩे खुद जाना पडता है, वहां से लौटते-लौटते देरी हो जाती है। ऑफिस समय पर नहीं पहुंच पाते तो पंचिंग मशीन आपको लेट दिखाती है और फिर बॉस की सवालिया नजरें आपको परेशान करने के लिए काफी होती हैं....। यानी रूटीन में जरा सा भी व्यवधान एक पूरे दिन को बुरे अनुभव में बदल सकता है। यह महज एक उदाहरण है। हर रोज न जाने कितनी समस्याएं मूड खराब करने को तैयार बैठी रहती हैं, माथे पर शिकन की लकीरें कब चेहरे के स्थायी भाव में बदलने लगती हैं, पता भी नहीं चल पाता। यहीं खुद को बदलने और समस्याओं के प्रति सोच बदलने की जरूरत होती है। ये समस्याएं रोजमर्रा की हैं, जिनसे निपटने के तरीके सीखने ही होंगे। चूंकि इन्हें जीवन से अलग नहीं किया जा सकता, इसलिए इन्हें स्वीकार करने से अपने दुख को थोडा कम जरूर किया जा सकता है।

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