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समय है संजोने का

अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखना और इस अमूल्य धरोहर को भावी पीढिय़ों को सौंपना कर्तव्य भी है-जिम्मेदारी भी। परंपराएं, मूल्य, रीति-रिवाज, संस्कृति किसी देश का स्वाभिमान हैं। ये जीवन का अटूट हिस्सा हैं। मूल्य ही तो हैं, जो कठिन से कठिन दौर में भी टूटने नहीं देते और इंसानियत

By Edited By: Published: Fri, 18 Sep 2015 02:53 PM (IST)Updated: Fri, 18 Sep 2015 02:53 PM (IST)
समय है संजोने का

अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखना और इस अमूल्य धरोहर को भावी पीढिय़ों को सौंपना कर्तव्य भी है-जिम्मेदारी भी। परंपराएं, मूल्य, रीति-रिवाज, संस्कृति किसी देश का स्वाभिमान हैं। ये जीवन का अटूट हिस्सा हैं। मूल्य ही तो हैं, जो कठिन से कठिन दौर में भी टूटने नहीं देते और इंसानियत का जज्बा बनाए रखते हैं। परंपराओं और संस्कृति के इसी सकारात्मक पहलू पर इंदिरा राठौर की नज्ार।

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भारतीय संस्कृति बहुत समृद्ध है। इस देश में अनगिनत पर्व, त्योहार, परंपराएं, रीति-रिवाज हैं। ये न हों तो जीवन कितना बेरंग हो! भारतीय दर्शन सुख और उत्साह का दर्शन है। यहां दुखांत कुछ नहीं होता। अंत भला तो सब भला। हर स्थिति में 'हैपी एंडिंग का बहाना खोज लेते हैं हम। कितनी भी मुश्किल परिस्थितियां क्यों न आएं, उदास रहने की नौबत कभी नहीं आती। परिवार, रिश्तेदारों, संबंधियों, पडोसियों के साथ साझा होते हैं सुख-दुख, पर्व-त्योहार और उत्सव। हर मौके के लिए ख्ाास रस्में, रीति-रिवाज, गीत-संगीत, वेशभूषा और खानपान है। समय के साथ कई परंपराएं बदली हैं, लेकिन इसे संवारने-समृद्ध करने की कोशिशें भी जारी हैं।

परदेस में परंपराएं

समय के साथ भारतीयों की जीवनशैली बदली। नौकरीपेशा लोग अपने परिवारों, राज्य और देश से दूर होते गए।

बीस वर्षों से यूके के शहर बर्मिंघम में रह रहीं स्त्री रोग विशेषज्ञ अंजना सिन्हा छठ व्रत पूरी आस्था से करती हैं। भारत की तरह घाट नहीं तो क्या हुआ, रेडीमेड स्विमिंग पूल तो है! उसी में पूजा-अघ्र्य देकर वह अपनी प्रांतीय और पारिवारिक परंपरा को आगे बढा रही हैं। छठ व्रत बहुत मुश्किल होता है। इस दौरान कई भारतीय परिवार इनके घर आते हैं। यहां ठंड बहुत पडती है। इसलिए टब या रेडीमेड पूल में गुनगुना पानी भर लिया जाता है और उसमें खडे होकर अघ्र्य दिया जाता है। कई बार पास-पडोस की भारतीय स्त्रियां अपने यहां उगी हुई फल-सब्ज्िायां पूजा में चढाने ले आती हैं। पिछले 10 वर्षों से यूके-यूएस के अलग-अलग शहरों में रहने वाले भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर संजीव कहते हैं, 'मेरे परिवार में हमेशा हवन या कथा होती थी। बचपन से यह देखते हुए बडा हुआ। मुझे भी यह सब करना अच्छा लगता है। हवन से पर्यावरण भी साफ-सुथरा होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा महसूस होती है। अब यहां उतना तो नहीं कर पाता, लेकिन हमने अपने पारिवारिक पुरोहित की आवाज्ा में कथाओं और श्रुतियों की सीडीज्ा तैयार करवाई हैं। पूजा-पाठ या ख्ाास अवसरों पर उसे सुनते हैं। त्योहारों पर वेब कैम की मदद से अपने परिवार वालों, संबंधियों और दोस्तों से बातें करते हैं। कई बार तो घर में कथा होती है और मैं यहीं बैठ कर उसे सुन लेता हूं। मेरी बहन ऑनलाइन राखी की थाली भेजती है। भारत से बाहर रहने के कारण त्योहार-पर्व और अन्य अवसरों पर थोडा उदास तो होते हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी ने हमारी उदासी को काफी हद तक कम कर दिया है।

डॉ. रश्मि गुप्ता को ऑस्ट्रेलिया में रहते हुए लगभग 22 साल हो चुके हैं। वह कहती हैं, 'हम इतने वर्षों से भारत से बाहर हैं, मगर हमारा दिल आज भी भारत में है। यहां सारे एनआरआइ मिल कर त्योहार मनाते हैं। जितने भी संसाधन हों, उसी में कोशिश करते हैं कि विधि-विधान से हर त्योहार मनाएं। चूंकि ज्यादातर लोग व्यस्त हैं, इसलिए वीक डेज पर त्योहार होने पर मुश्किल होती है। इंडियन सोसायटी की मदद से भारतीय बच्चे भी अपनी जडों से जुडे हैं। वे भी पूरे उत्साह से पूजा या त्योहार की तैयारियों में भाग लेते हैं। अब तो हमारा उत्साह देख कर यहां के स्थानीय लोग भी हमारे त्योहारों में शामिल होने लगे हैं। उन्हें इंडियन डे्रसेज्ा में देख कर बहुत ख्ाुशी होती है। दीपावली पर यहां खील-बताशे नहीं मिल पाते, इसलिए हम लोग पफ्ड राइस और शुगर क्यूब्स का इस्तेमाल करते हैं। ढूंढने पर मिट्टी के गणेश भी कहीं न कहीं मिल जाते हैं। ज्य़ादातर त्योहारों पर हम मेला लगाने का प्रयास करते हैं, जिसमें इंडियन वेज डिशेज ही बनाई जाती हैं। इन मेलों में बच्चों के साथ-साथ बडे भी बहुत एंजॉय करते हैं। हम लोग बच्चों को पौराणिक कहानियां सुना कर संस्कृति से जोडऩे की कोशिश करते हैं। उन्हें भारतीय फिल्में, धारावाहिक दिखाते हैं, ताकि वे अपनी संस्कृति से रूबरू हो सकेें।

लोकगीतों को संजोया

वरिष्ठ साहित्यकार पद्मा सचदेव कहती हैं, 'परंपराएं बचेंगी, तभी संस्कृति और मनुष्यता बचेगी। व्यस्तता के बीच भी अपनी परंपराओं और संस्कृति को बचाने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए। मैं मूल रूप से जम्मू की हूं। हमारे घर में त्योहार के कई दिन पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं। तरह-तरह के पकवान बनते थे, घर की ख्ाूब सफाई और सजावट होती थी। शादी-ब्याह के अवसर पर हम लोग कई-कई दिन गाने गाते थे। लडके के घर 'घोडिय़ा गाई जातीं तो लडकी की शादी में 'सुहाग। हिंदुस्तान इतना बडा मुल्क है। यहां अनगिनत बोलियां, भाषाएं, गीत और परंपराएं हैं। जम्मू में माता वैष्णो देवी मंदिर है। हम डोगरी में माता की स्तुतियां गाते थे। मैं ढोलक अच्छा बजा लेती हूं। लता मंगेशकर जी के भाई की शादी में मैंने ढोलक बजाई और लता दीदी ने रोडा (चम्मच से ढोलक पर ठक-ठक करना)। अपनी बेटी की शादी में भी मैंने ख्ाूब सुहाग गाए। हम सारे रिश्तेदार रोज्ा शाम के 8 बजे से 10 बजे तक गीत गाते थे। आज भी मुझे ढोलक बजाने का मौका मिले तो नहीं चूकती। मैंने डोगरी में कई लोकगीत भी लिखे। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि लता मंगेशकर जी मेरे गीतों को अपनी आवाज्ा दें। यह ख्वाहिश पूरी हुई। ये गाने इतने लोकप्रिय हुए कि बच्चे-बच्चे की ज्ाुबान पर हैं। कुछ दिन पहले मुझे किसी ने फोन किया कि जम्मू में सुदूर पहाडों में किसी बारात में मेरे लिखे गीत बजाए जा रहे थे। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं रहूं या न रहूं, लेकिन मेरे गीत भावी पीढिय़ों तक पहुंचेंगे। लता दीदी ने उन्हें अमर कर दिया है।

एक अलग प्रयास

राजस्थान स्थित वनस्थली विद्यापीठ पंचमुखी शिक्षा के लिए जाना जाता है। यहां प्रबंधन विभाग के संकाय अध्यक्ष डॉ. हर्ष पुरोहित कहते हैं, 'सांस्कृतिक पहचान के लिहाज्ा से शैक्षणिक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों का बडा योगदान हो सकता है। हमारे संस्थापक हीरालाल शास्त्री जी ने शुरू से ऐसी व्यवस्था बनाई कि विद्यापीठ में हर राष्ट्रीय पर्व और त्योहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जन्माष्टमी पर सुंदर झांकियां निकाली जाती हैं, दशहरे पर रावण-दहन का भव्य नज्ाारा देखने को मिलता है और दीपावली पर कई सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाते हैं। यह विश्व का सबसे बडा महिला आवासीय विश्वविद्यालय है, जहां 12 हज्ाार छात्राएं हैं। दूरदराज के कुछ बच्चे त्योहारों पर घर नहीं जा पाते, लेकिन टीचर्स-वॉर्डन उन्हें कभी यह एहसास नहीं होने देते कि वे घर से दूर हैं। हाल की बात करूं तो नानक जयंती पर सबद कार्यक्रम, ईद पर साबरी ब्रदर्स की कव्वालियां बच्चों ने सुनीं। ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य आपसी प्रेम व भाईचारे की भावना को आगे बढाना है। इससे छात्रों में सांस्कृतिक मूल्य पैदा होते हैं, वे जाति-धर्म से ऊपर उठ कर इंसान बनना सीखते हैं। हमारे यहां खादी अनिवार्य है। यूनिवर्सिटी के संस्थापक ने महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर खादी पहननी शुरू की थी। इससे एक लाभ यह होता है कि छात्राओं में एकरूपता रहती है। इतिहास विभाग में भारतीय संस्कृति व इतिहास को जानने के लिए शोध-कार्य चलते रहते हैं। संगीत-नृत्य विभाग में सांस्कृतिक पहचान को आगे बढाने का कार्य किया जाता है। यूनिवर्सिटी का अपना एफएम रेडियो है, जिसमें ढूंढारी (स्थानीय भाषा) में ही कार्यक्रम होते हैं। राजस्थानी नृत्य में हमारे बच्चे हर साल ट्रॉफीज्ा जीतते हैं। रीति-रिवाजों, परंपराओं और संस्कृति से बच्चों को जोडऩे के लिए हम हर स्तर पर प्रयास करते रहते हैं।

संस्कृति बनाम विकास

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अमेरिकी चित्रकार स्टीफन नैप लगभग 12 साल पहले भारत आए। वह लिखते हैं, 'भारत भ्रमण के बाद मुझे संस्कृति का वास्तविक अर्थ पता चला। मैंने जाना कि संस्कृति को बचाना कितना ज्ारूरी है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में घूमने के दौरान मैंने पाया कि यहां के लोग बहुत ईमानदार, सीधे-सादे और मिलनसार होते हैं। वे दूसरों का सम्मान करते हैं और जीवन को महत्व देते हैं। किसी भी कारण अगर ये लोग बदले तो मुझे बहुत दुख होगा। मेरे देश में पैसा, टेक्नोलॉजी, समृद्धि, बिज्ानेस, सफलता....सब कुछ है। लेकिन वहां अपराध, प्रदूषण, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, संवेदनहीनता, दूसरों के प्रति अनादर और स्वार्थ भी है। आपसी रिश्ते उलझे हुए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि विकास की परिभाषा क्या इतनी सीमित है? पूरे देश को वर्ष 2009 में मंदी से जूझना पडा, क्योंकि बिना संस्कृति के जीवन का कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि आज पश्चिमी देशों में भी बहुत से लोग योग-ध्यान की तरफ बढ रहे हैं। वे दर्शन में रुचि रखते हैं, भारतीय खानपान और सेहत संबंधी नियमों का पालन करने लगे हैं। शांति के लिए वे भारत का रुख्ा करते हैं। भारतीयों से मेरा अनुरोध है कि विकास की राह पर इतना न दौडें कि अपनी जडों से ही उखड जाएं। अपनी संस्कृति को बचाए रखेंगे तो सामाजिक समस्याएं भी कम होंगी। लेकिन यह भी जानने की ज्ारूरत है कि वास्तव में भारतीय संस्कृति है क्या? यह क्या सिखाती है? इसे भावी पीढिय़ों तक कैसे पहुंचाया जा सकता है? 'सभ्यता की किसी दूसरे की परिभाषा पर ख्ाुद को खरा उतारने के लिए अपनी मूल संस्कृति को ख्ातरे में कभी न डालें।

विरासत को आगे बढाएं

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, 'हमें पश्चिम की टेक्नोलॉजी और पूर्व के दर्शन को मिला कर चलना होगा। एक प्रगतिशील समाज की रचना तभी संभव है। हर स्तर पर आगे बढें, विकास करें, लेकिन इसके लिए अपनी संस्कृति के त्याग की ज्ारूरत नहीं है।

कोई भी संस्कृति एक जगह खडी होकर नहीं रह सकती। इससे विकास का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है। जैसे पहनावा हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण पहलू है। हमारी संस्कृति में साडी स्त्रियों की मुख्य पोशाक है। लेकिन पहले स्त्रियां सीधे पल्ले की साडी पहनती थीं। समय के साथ उल्टे पल्ले का चलन शुरू हुआ। अब सलवार-सूट नई लडकियों की मुख्य पोशाक है। हर बदलाव को लोगों ने स्वीकार किया और वह लोगों की जीवनशैली का हिस्सा हो गया।

समय के साथ जीवन मूल्यों, रहन-सहन और आर्थिक-सामाजिक स्तर में बदलाव आता है। ज्ारूरतों और सुविधाओं के हिसाब से परंपराएं भी बदलती हैं। परंपराओं से प्यार हमें एक जगह पर अडिग रहना नहीं सिखाता, बल्कि नए-नए रास्तों के ज्ारिये भिन्न अनुभवों को भी अपनी संस्कृति में समेटना सिखाता है। भारतीय संस्कृति महासागर की तरह है, जिसमें असंख्य छोटी-छोटी नदियों का विलय हो जाता है और सागर अपनी रफ्तार से आगे बढता जाता है सहयोगी नदियों को साथ लेकर। अपनी अमूल्य विरासत को संजोना और समय के अनुसार उसे आगे बढाना ज्ारूरी है। संस्कृति बचेगी, तभी जीवन में मूल्य बचेंगे, तभी लोगों का आत्मसम्मान और देश का स्वाभिमान बचेगा और तभी इंसानियत भी बचेगी।

गीतों-परंपराओं को सहेजा कुछ ऐसे

सुषमा सेठ, रंगकर्मी

मैं संयुक्त परिवार में पली-बढी हूं। एक ही घर में पिताजी के भाई-बहन भी रहते थे। हम सब साथ में त्योहार मनाते थे। मुझे याद है, दीपावली पर घर में हम ख्ाूब सजावट करते थे। दीवाली लिखी जाती थी। एक चार्ट पेपर पर सभी देवी-देवताओं के चित्र बनाते, उनमें रंग और चमकी (ग्लिटर) भरते। फिर चार्ट को दीवार पर चिपका कर उसकी पूजा करते थे। होली पर सारी स्त्रियां वॉयल की चौडे बॉर्डर वाली सफेद साडिय़ां ख्ारीदती थीं। वही पहन कर होली गाई जाती थी। परंपराएं और त्योहार सामूहिकता, भाईचारा और एकजुटता दिखाने का ज्ारिया थे। बडे होने के बाद भी वे सारी यादें हमारे मन में अंकित रहीं। बुज्ाुर्गों की शुरू की गई कई परंपराएं हमने आज भी बचा रखी हैं। बच्चों ने भी उसे आगे बढाया। हमारे घर में साथ मिल कर रामायण की चौपाइयां पढऩे का चलन था, यह हमारे बच्चों और उनके बच्चों में भी आया। हमारे समय में स्त्रियों को घर के बाहर कम निकलने दिया जाता था, लेकिन हमारा परिवार बहुत प्रगतिशील था। हमारी बुआओं ने शास्त्रीय नृत्य, संगीत और कला का प्रशिक्षण लिया। मैं बच्चों को नाटक सिखाती हूं। नृत्य नाटकों के माध्यम से उन्हें कृष्ण-सुदामा, शबरी की कथाएं सिखाती हूं। इनसे वे अपनी समृद्ध विरासत से रूबरू होते हैं, साहित्य को समझ पाते हैं, साथ ही इससे उनमें नैतिक मूल्यों का भी विकास होता है। शबरी की कहानी से वे प्रेम और उदारता की सीख लेते हैं, रामायण से उन्हें भाइयों के प्रेम और आदर की प्रेरणा मिलती है। हमने विभिन्न त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसर पर गाए जाने वाले तमाम लोकगीतों की एक सीडी तैयार की है। पूरे परिवार ने मिलकर इनकी रिकॉर्डिंग की, ताकि भावी पीढी उन्हें याद रख सके। पिछले साल मेरी बहन के बेटे की यूएस में शादी हुई। हमने पूरे परिवार के साथ मिल कर गाने रिकॉर्ड किए, उनका विडियो तैयार किया, ताकि सबकी उपस्थिति शादी में दर्ज हो सके और हमारी पारिवारिक परंपराएं भी वहां दिखाई जा सकेें। मेरी बहन को यह एहसास भी नहीं हुआ कि वह विदेश में बेटे की शादी कर रही है।

हर मोड पर साथ चलती हैं परंपराएं कपिल शर्मा, कॉमेडियन

परंपराएं हमारे दिल से जुडी हुई हैं। माता-पिता हमें संस्कार देते हैैं। उन्हीं संस्कारों के आधार पर जीवन में हमें आगे बढऩे की प्रेरणा मिलती है। मेरा मानना है कि परंपराओं को निभाने के लिए एक जगह पर रहना ज्ारूरी नहीं है। मैं बरसों से घर से दूर हूं, लेकिन अपने रीति-रिवाजों का पालन अवश्य करता हूं। मुझे बचपन से जो सीख मिली, उसे मैंने हमेशा निभाया। दिल करता है तो पूजा भी करता हूं। घर में भगवान के सामने हाथ जोड कर प्रार्थना करता हूं। हमारे घर का नियम था कि सप्ताह में एक ख्ाास दिन नॉनवेज नहीं खाना है। यह एक नियम था, जिसका पालन मैं आज भी करता हूं। मैैं कभी किसी शो के लिए विदेश यात्रा पर जाता हूं तो वहां उस दिन नॉनवेज नहीं खाता। बचपन से जो कुछ अपने परिवेश से हमने सीखा होता है, वह जीवन के सफर में हमेशा साथ चलता है। इससे कोई फर्क नहीं पडता कि आप कहां हैं और किन स्थितियों में हैं।

विदेशों में भी मिलती है झलक

शिबानी कश्यप (गायिका)

हमारी परंपराएं बहुत समृद्ध हैं। इसका पता तब चलता है, जब मैं भारत से बाहर होती हूं। विभिन्न पर्वों और अवसरों पर मैं विदेशों में शोज्ा करती रही हूं। वहां की कई यादें मुझे भावुक बना देती हैं।

एक बार दीपावली के अवसर पर मैंने चीन में परफॉर्म किया था। मेरे लिए वह यादगार मौका था। मुझे लगा ही नहीं कि मैं भारत में नहीं हूं। बल्कि सच कहूं तो मैैंने भारत में ऐसीे दीपावली कभी नहीं मनाई थी। मैैं पिछले साल गणेश चतुर्थी के समय मॉरिशस में थी। वहां भारतीय समुदाय के लोगों ने उत्साह से गणेश पूजा की। मेरा मानना है कि देश से दूर रहने वाले भारतीय परंपराओं और त्योहारों को बडे स्तर पर मनाते हैैं। शायद दूर होने पर मन में कचोट रहती होगी। कई बार अपने परिवेश से दूर होकर ही लोग अपनी परंपराओं-त्योहारों की अहमियत ज्य़ादा अच्छी तरह समझ पाते हैं।

जीवन संवारें ऐसे

1. अपनी परंपराओं को जानें, इनका पालन करें और भावी पीढी को अपने संस्कारों, मूल्यों, परंपराओं, भाषा-बोली और त्योहारों के बारे में अवश्य बताएं।

2. टेक्नोलॉजी का प्रयोग अपनी विरासत को सहेजने में करें। किताबों और ऑडियो-विज्ाुअल माध्यमों के ज्ारिये इसे संरक्षित करें।

3. विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं के बारे में गहन अध्ययन करें। उन कौमों के बारे में जानें, जिन्होंने अपनी संस्कृति को हर कीमत पर बचाए रखा और वे विकास के पथ पर भी आगे बढीं।

4. त्योहार और उत्सव मिल कर मनाएं। इनकी ख्ाुशी व ख्ाूबसूरती को एक-दूसरे से बांटें। उत्सव सामूहिकता और भाईचारे का संदेश देते हैं, इस संदेश को बढाएं।

5. अलग-अलग समूहों, प्रांतों, जाति-धर्मों

के त्योहारों में शिरकत करें और उन्हें जानने-समझने की कोशिश करें। इससे आपसी

प्रेम बढता है, दुर्भावना और भेदभाव ख्ात्म होता है।

भारतीय परंपराओं से रूबरू हो रही हूं एलेना कज्ाान, अभिनेत्री-सामाजिक कार्यकर्ता

मेरा जन्म मॉस्को (रूस) में हुआ। फिर वहां से हम बर्लिन (जर्मनी) आ गए। यूएस से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मैं कोलकाता आकर सामाजिक कार्य करने लगी। अब पिछले छह साल से मुंबई में ऐक्टिंग कर रही हूं। अभिनय के लिए अलग-अलग देशों में जाना पडता है। हर देश के त्योहार मैंने उत्साह-उमंग के साथ मनाए हैं। भारत में होती हूं तो दीपावली मनाती हूं, पाकिस्तान में ईद मनाती हूं और अपने देश में होती हूं तो क्रिसमस और नया साल बहुत धूमधाम से मनाती हूं। मेरा बचपन रूस में गुज्ारा। वहां हम क्रिसमस के लिए फ्रेश पाइन ट्री लाते थे और उसे सजाते थे। वहां एक सेंटा क्लॉज्ा आते थे, जिन्हें हम ग्रैंड फादर फ्रॉस कहते थे। उनके साथ ब्ल्यू ड्रेस में एक छोटी बच्ची भी आती थी। सेंटा हमें गिफ्ट्स और कैंडीज्ा देते थे। क्रिसमस पर हम स्कूल्स में नाटक करते थे। मेरी दादी धार्मिक विचारों की महिला थीं। वह मदर मैरी और जीसस की प्रेयर्स करती थीं, लेकिन उन्होंने कभी हम पर दबाव नहीं डाला कि हम भी पूजा करें। मुंबई में इतने समय से रहते हुए एक एहसास हुआ है कि क्या हम परंपराओं को सही ढंग से आगे बढा पा रहे हैं? गणेश उत्सव पर जिस तरह बॉलीवुड गाने ज्ाोर-शोर से बजाए जाते हैं, मूर्तियों का विसर्जन होता है, वह हमारे पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं है। ख्ाुशी पटाखे बजाने, धूमधडाका करने से नहीं, मन से मिलती है। मिलने-जुलने, भाईचारे और सद्भावना से मिलती है। त्योहारों पर फूहड गाने ज्ाोर-ज्ाोर से बजाना हमारी परंपरा नहीं है। होली पर पीना-पिलाना और दंगा-फसाद करना भी परंपरा नहीं हो सकती। मस्ती का अर्थ है-साथ मिल कर हंसना-खेलना-गाना और त्योहार मनाना। शादी में पहले रीति-रिवाजों व परंपराओं का सादगी से निर्वाह होता था, लेकिन अब यहां भी दिखावा ज्य़ादा होने लगा है। मेरे देश जर्मनी की एक अच्छी बात यह है कि वहां बुज्ाुर्गों का बहुत सम्मान किया जाता है। जब कहीं भी बुज्ाुर्गों को उपेक्षित देखती हूं तो बहुत परेशान होती हूं। भारतीय संस्कृति में तो बडों का सम्मान करना सिखाया जाता है। एक शूटिंग के दौरान देखा, एक वृद्ध अभिनेता कई घंटे शूटिंग करते रहे, मगर उन्हें किसी ने खाने के लिए भी नहीं पूछा। मुझे यह बात बहुत बुरी लगी। इन लोगों ने हमें कितना-कुछ सिखाया है, हम उनके प्रति इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? वैसे मुझे भारतीय संस्कृति में कई बातें अच्छी लगती हैं। हिंदी फिल्मों में काम करने के दौरान बहुत कुछ सीखने को मिला है। अभी मैं लावणी डांस सीख रही हूं। मुझे गुरु-शिष्य परंपरा बहुत अच्छी लगती है। गुरु के प्रति बहुत आदर है यहां। मुझे गुरु-पर्व और गुरु-पूजा देख कर बहुत अच्छा लगता है।

ग्ालत परंपराओं के ख्िालाफ हूं

मोहम्मद जीशान अयूब (अभिनेता)

परंपराओं में एक हद तक ही मेरी आस्था है। कई बार जब देखता हूं कि परंपराओं के नाम पर ढकोसलों और कुप्रथाओं को बढावा मिल रहा है तो मुझे ग्ाुस्सा भी आता है। जैसे दहेज जैसी परंपरा जब शुरू की गई होगी, हो सकता है उसका कोई नेक मकसद रहा हो, लेकिन आज वह ऐसी बुराई है, जिसके कारण न जाने कितनी लडकियां जला कर मार दी जाती हैं। कई बार देखता हूं कि रात में लडके बाइक पर चिल्लाते हुए निकलते हैं, यह सब त्योहार के नाम पर होता है। यह ग्ालत परंपरा है, जिसका विरोध होना चाहिए। इसी तरह शादी के नाम पर भी पूरा तामझाम किया जाता है। मुझे निजी ज्िांदगी में यह सब पसंद नहीं। मैंने कोर्ट मैरिज की है। इसके बाद कुछ लोगों को घर पर आमंत्रित किया और कुछ लोगों के घर जाकर मुलाकात कर ली। सबका आशीर्वाद मिल गया। ऐसा नहीं है कि सारी परंपराएं ही ग्ालत हैं, मगर दिखावा और तडक-भडक इन्हें ग्ालत दिशा में ले जाता है। परंपराओं और पर्व के नाम पर मेहनत की गाढी कमाई फूंकना आख्िार कहां की समझदारी है!

लोक संस्कृतियों को भी बचाना होगा मीर रंजन नेगी, हॉकी कोच

मैं मूल रूप से उत्तराखंड का हूं, लेकिन मुंबई में ही रच-बस गया हूं। मुझे हमेशा लगता था कि पर्वतीय संस्कृति को आगे बढाने के लिए कुछ करूं। फिल्म 'चक दे और 'झलक दिखला जा जैसे कार्यक्रमों के बाद लोग मुझे जानने लगे। यह तय हुआ कि एक बडे पैमाने पर मुंबई में रहने वाले उत्तराखंड के लोगों को जोडा जाए। यहां हर साल एक बडा मेला होता है 'कौथिक, मुझे उसका ब्रैंड एंबेसडर बनाया गया है। इस मेले के ज्ारिये हम पर्वतीय लोकगीतों-नृत्यों, संस्कृति, पहनावे और खानपान को लोगों तक पहुंचाते हैं। पहाड के बडे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत में मैंने ऐक्टिंग की है। यह गाना 'हर्षू मामा शादी-ब्याह के मौके पर ज्ारूर बजता है। कुछ समय पहले मैं यूएस गया तो वहां बसे उत्तराखंड के लोगों ने मुझे लाइफटाइम अचीवमेंट से नवाज्ाा। अभी मैंने एक पहाडी फिल्म 'सुबेरो घाम की, जिसकी शूटिंग गुप्तकाशी के सुदूर पहाडों में हुई। बारिश के समय वहां शूटिंग करना रोमांचक लेकिन बेहद खतरनाक अनुभव था। वह पहाड की अब तक सबसे हिट फिल्म बन गई है, जिसके लिए मैंने एक भी पैसा नहीं लिया। शूटिंग के दौरान वहां के स्थानीय लोग मुझे हर्षू मामा कह कर पुकारते थे तो अच्छा लगता था। मीलों दूर रहते हुए अपनी मिट्टी से जुडे रहना और उसकी ख्ाुशबू महसूस करना अलग अनुभव होता है। जब हम सब लोग मिलते हैं तो इस पर बात होती है कि कौन किन-किन परिस्थितियों में अपने घर-प्रांत से बाहर निकला और कहां पहुंचा। आज अगर इस लायक हैं कि अपनी संस्कृति के लिए कुछ कर पा रहे हैं तो यह हमारा सौभाग्य है। हम यहां नाटक भी करते हैं। एक ग्रुप बनाया है, जिसके ज्ारिये मिलते-जुलते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक आदि करते हैं, अपने व्यंजनों का स्वाद लेते हैं और लोकगीतों-संगीत और संस्कृति को जानते-समझते हैं। इसके अलावा हॉकी को आगे बढाने के लिए तो लगातार प्रयासरत हूं। अपने 'अभि फाउंडेशन के ज्ारिये खिलाडी तैयार कर ही रहा हूं। हमारी टीम जल्दी ही देश की नामचीन टीमों के साथ मुकाबला करने वाली है।

संगीत को सहेजने की कोशिश

पं. भजन सोपोरी (शास्त्रीय संगीतकार)

हमकश्मीर के सोपोर से हैं, लेकिन 25 सालों से बाहर ही हैं। शुरू में दो साल वहां की बुरी स्थितियों के चलते घर नहीं जा सके। अपना कहने को कुछ बचा ही नहीं। संगीत पर भी प्रतिबंध था। अब तो नियमित जाते हैं। लोकसंगीत को बचाने के लिए सूफी पीर-फकीरों की बैठकों में गाना शुरू करवाया। श्रीनगर में कंसट्र्स कराए। मेरा कहना है कि राजनैतिक मसले राजनीति से हल करें, कलाकारों को तंग न करें। अब वहां लोकसंगीत तो बचा है, मगर त्योहारों के रंग फीके पड गए। महाशिवरात्रि कश्मीर का प्रमुख त्योहार है, जो 4-5 दिन तक चलता है। कई-कई दिन पहले अखरोट भिगो कर रखे जाते थे प्रसाद के लिए। सावन की पूर्णिमा पर उत्सवी माहौल होता था। शादी कई-कई दिन चलती थी। दूल्हा-दुलहन को शिव-पार्वती का स्वरूप मानकर उनकी पूजा होती थी, वेदों की ऋचाएं पढी जाती थीं। अब सब बदल गया है, लोग माइग्रेट कर गए हैं। बीच-बीच में अपनी संस्कृति को सहेजने का प्रयास करते हैं।

साक्षात्कार : मुंबई से प्राची दीक्षित, दिल्ली से इंदिरा राठौर एवं दीपाली।


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