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ये जांबाज स्त्रियां...

ये आग से खेलती हैं तो ख़तरनाक स्टंट्स भी करती हैं। जासूसी जैसे जोखिम भरे काम में हैं तो पहलवानी में भी हाथ

By Edited By: Published: Sat, 21 Feb 2015 03:31 PM (IST)Updated: Sat, 21 Feb 2015 03:31 PM (IST)
ये जांबाज स्त्रियां...

ये आग से खेलती हैं तो खतरनाक स्टंट्स भी करती हैं। जासूसी जैसे जोखिम भरे काम में हैं तो पहलवानी में भी हाथ आज्ामा रही हैं। इन्हें कमज्ाोर समझने की भूल न करें। अपने हौसलों के बलबूते इन्होंने समाज में ख्ाास मुकाम हासिल किया है। ऐसी ही कुछ दिलेर स्त्रियों से मिलें इंदिरा राठौर के साथ।

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रादे नेक हों तो मंज्िाल मिल जाती है...। तमाम बाधाओं का सामना करते हुए और अपने डर से बाहर निकल कर स्त्रियां आज ऐसे क्षेत्रों में परचम लहरा रही हैं, जो हमेशा से पुरुषों के समझे जाते रहे हैं। यूं तो शोध साबित करते रहे हैं कि पुरुष शारीरिक तौर पर स्त्रियों से अधिक बलशाली हैं। अब तक स्त्रियां भी शारीरिक सीमाओं के लिए अपने फीमेल हॉर्मोंस को दोषी ठहराती रही हैं। लेकिन ज्ारा ठहरें! ख्ाुद को पुरुषों से कमतर न समझें।

शोध कुछ भी कहें, मगर यह सच है कि सकारात्मक सोच के साथ सही परवरिश, मानसिक और भावनात्मक क्षमताओं के बलबूते स्त्रियां भी शोहरत की बुलंदियों तक पहुंची हैं। हालांकि कभी शारीरिक क्षमताओं के आधार पर तो कभी सामाजिक मान्यताओं के नाम पर स्त्रियों की उडान को सीमित करने की पुरज्ाोर कोशिशें की गईं, मगर ख्वाहिशों के आगे इन कोशिशों को नाकाम होना पडा।

टूट रही हैं धारणाएं

स्त्री की नाज्ाुक, भावुक व कमज्ाोर छवि पिछले कुछ वर्षों में तेज्ाी से टूटी है। मिलिट्री सेवाओं से लेकर अंतरिक्ष तक, रोमांचक एवं जोख्िाम भरे कामों से लेकर अत्यधिक शारीरिक ताकत की मांग करने वाले खेलों तक में स्त्रियां बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो या दोनों विश्वयुद्ध, हर जगह वे नेतृत्व की भूमिकाओं में नज्ार आई हैं। इतिहास में भी पहले ऐसी कई नायिकाएं रही हैं, जिन्होंने कई बैरियर्स तोडे हैं।

फ्रेंच पर्वतारोही, एथलीट और पायलट मैरी मारविंग्ट ने लगभग सौ साल पहले ही बलून पायलट के तौर पर पहचान बना ली थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वह पुरुष वेशभूषा में फ्रेंच सेना का हिस्सा बनीं, हालांकि बाद में उन्हें पहचान लिया गया। रेड क्रॉस नर्स की तरह सेवा करने वाली मैरी को 1915 में लडाकू विमान चलाने वाली विश्व की पहली महिला होने का गौरव हासिल है।

इसी तरह सोवियत अंतरिक्ष यात्री व इंजीनियर वेलेंतिना तेरेश्कोव को 1962 में महज्ा 26 वर्ष की आयु में पहली महिला स्पेस पायलट होने का ख्िाताब हासिल है। उन्हें बचपन से स्काईडाइविंग व पैराशूटिंग में दिलचस्पी थी। वेलेंतिना ने अंतरिक्ष में तीन दिन बिताए।

हाल ही में भारतीय सैन्य सेवा में गोल्ड मेडल हासिल किया है अंजना भदौरिया ने। वह पहली बार वर्ष 1992 में शुरू की गई वुमन स्पेशल एंट्री स्कीम (डब्ल्यूएसईएस) बैच की कैडेट हैं। यह प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया बैच था, जिसमें महज्ा 25 लडकियां थीं। अंजना के पिता एयरफोर्स में थे। वर्दी का आकर्षण उन्हें इस फील्ड में ले आया। एक साक्षात्कार में अंजना कहती हैं, 'ट्रेनिंग शुरू होती है तो हमें ज्य़ादा जानकारी नहीं होती। जैसे, भारी-भरकम राइफल को संभालना एक बडा काम होता है, लेकिन धीरे-धीरे सब आसान लगने लगता है। शारीरिक स्तर पर स्त्री-पुरुष के बीच फर्क होता है, मगर जब स्त्री-पुरुष का पहला कंबाइंड बैच आया तो मैंने इसमें टॉप किया और मुझे, यानी एक स्त्री को ही गोल्ड मेडल मिला। यह बडा परिवर्तन है कि स्त्रियां सैन्य सेवाओं में आ रही हैं। हालांकि उन्हें कमांड मिलना अभी दूर की कौडी है। बटैलियंस की कमांड संभालना टेक्निकल काम है और इसमें कई व्यावहारिक दिक्कते हैं।

परवरिश में बदलाव

समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, 'शारीरिक ताकत से कहीं ज्य़ादा ज्ारूरी चीज्ा है मानसिक-भावनात्मक ताकत। सच तो यह है कि जोख्िाम भरे या भारी-भरकम कामों में स्त्री भी उतनी ही क्षमता के साथ काम कर सकती है, जितना कि कोई पुरुष। इसमें बहुत बडा योगदान परवरिश का भी है। यूं तो आज भी 99 प्रतिशत घरों में लडकियों को नाज्ाुक बना कर ही पाला-पोसा जाता है, स्त्रियोचित गुणों को उनके लिए अनिवार्य माना जाता है, लेकिन एक प्रतिशत ऐसे परिवार भी हैं, जो बेटा-बेटी की परवरिश में भेदभाव नहीं करते। इन परिवारों में लडकी को भावनात्मक शक्ति दी जा रही है। उन्हें बेटों की तरह शिक्षा, खानपान और माहौल दिया जा रहा है और उसी तरह शारीरिक फिटनेस के लिए प्रेरित किया जा रहा है। उन्हें खेलकूद में सक्रिय किया जा रहा है। समाज में फैली कुरीतियों और ग्ालत परंपराओं का विरोध करने के लिए परिवार का सहयोग ज्ारूरी है। शारीरिक चुस्ती और फिटनेस के लिए लडकियों को अच्छा खानपान, शिक्षा, ट्रेनिंग, माहौल और एक्सपोज्ार चाहिए। यह सब उन्हें परिवार ही मुहैया कराता है। यह सकारात्मक बदलाव है कि चंद पढे-लिखे परिवार अपनी बेटियों को सुंदर बनाने के साथ ही स्वस्थ और मज्ाबूत बनने को भी प्रेरित कर रहे हैं। नकारात्मक तथ्य यह है कि समाज में अभी भी स्त्री को पीछे ले जाने की पुरज्ाोर कोशिशें चल रही हैं। कभी राजनेताओं के अजीबोग्ारीब बयान आते हैं तो कभी स्त्रियों के ख्िालाफ शर्मनाक घटनाएं होती हैं...। सफल लडकियों की कहानियां पढें तो उनकी सफलता में परवरिश और परिवार का सहयोग साफ नज्ार आता है। सफलता की बुलंदियों को छूने वाले लोगों केआसपास सकारात्मक सोच वाले कुछ लोग अवश्य रहे हैं।

डर के आगे जीत है

फोर्टिस हेल्थकेयर में मेंटल और बिहेवियरल साइंस विभाग की हेड डॉ. कामिनी छिब्बर कहती हैं, 'दुनिया में पहले भी ऐसी कई स्त्रियां हुई हैं, जिन्होंने जोख्िाम भरे काम किए हैं। भारत में यह सब अभी नया है। पिछले कुछ वर्षों से स्त्री की परंपरागत छवि टूट रही है। पुरानी मान्यताएं टूटती हैं तो पहले समाज उसे स्वीकार नहीं कर पाता, मगर धीरे-धीरे बदलती मान्यताओं को स्वीकारा जाने लगता है। स्त्रियों की शारीरिक ताकत पुरुषों के मुकाबले कम हो सकती है, मगर उनकी क्षमताएं किसी भी स्तर पर कम नहीं हैं। बस मन में यह विश्वास होना चाहिए कि हम कर सकते हैं। किसी भी काम की शुरुआत में स्त्री-पुरुष दोनों सफलता को लेकर चिंतित रहते हैं। दोनों के ही मन में सहज डर या हिचकिचाहट होती है। इसके बावजूद हर किसी को अपनी ताकत का अंदाज्ाा होता है। यदि उसे समझ लें और उसका इस्तेमाल करें तो सफलता अवश्य मिलेगी। स्त्रियां अपनी भावनात्मक ताकत को प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल कर सकती हैं। रोमांच भरे जीवन को चुनने वाली लडकियां भी अलग नहीं हैं, लेकिन उन्होंने अपने डर को जीता है।

हौसले यूं ही बढते रहें

प्रकृति किसी के साथ पक्षपात नहीं करती। परिवार और समाज में आकर स्थितियां बदलती हैं। अगर बच्चों को समान परवरिश दी जाए, लडकियों को लडकों की तरह आगे बढऩे के मौके दिए जाएं, शुरू से सही ट्रेनिंग दी जाए तो उन्हें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। लडकियों को स्वयं भी अपनी असुरक्षाओं और नकारात्मक सोच से उबरना होगा। अपने भीतर के डर पर काबू पाना होगा। इसके लिए उन्हें परिवार व दोस्तों की मदद लेनी होगी, अच्छी किताबों का सहारा लेना होगा। ताकत बाहर से नहीं, आंतरिक इच्छाशक्ति और प्रेरणा से हासिल होती है। सकारात्मक परिवेश उस इच्छा-शक्ति को बढाता है। आज यदि लडकियां विपरीत स्थितियों के बावजूद मनचाही उडान भर रही हैं तो ऐसा उनके हौसलों के साथ ही परिवार-समाज के सहयोग से संभव हो सका है।

ड्डआग से खेलना बच्चों का खेल नहीं

हर्षिनी कान्हेकर, महिला फायर इंजीनियर, मुंबई

भारी-भरकम उपकरण उठाना, मुश्किल प्रशिक्षणों और घंटों अभ्यास से गुज्ारना, किसी डिज्ाास्टर में बचाव के लिए दौडऩा... लडकियां यह सब नहीं कर सकतीं। अगर आपका भी यही ख्ायाल है तो ग्ालत है। ये सारे काम कर रही हैं हर्षिनी कान्हेकर, जो भारत की पहली फायर इंजीनियर स्त्री हैं। ओएनजीसी, मुंबई में कार्यरत हर्षिनी कहती हैं-

यूपीएससी का एग्ज्ौम देते हुए नहीं पता था कि कभी नेशनल फायर सर्विस कॉलेज नागपुर (महाराष्ट्र) में फायर इंजीनियरिंग करने वाली पहली लडकी बनूंगी। फायर वर्कर्स की वर्दी मुझे लुभाती थी। शुरू में पेरेंट्स को मेरा फील्ड पसंद नहीं आया। कॉलेज में छात्रों-प्रोफेसर्स को भी लगता था कि पता नहीं मैं कर सकूंगी कि नहीं। हमें उपकरण उठाने, गाडिय़ां चलाने, आग बुझाने, घंटों आपात स्थिति में घिरे रहने जैसे प्रशिक्षण दिए जाते हैं। अप्लाइड साइकोलॉजी, रेस्क्यू टेक्नीक्स, टाउन प्लानिंग, हेवी व्हिकल के साथ ही कानून जैसे विषय भी होते हैें। वर्ष 2002 में कॉलेज के 20वें बैच में मैंने एडमिशन लिया। इस रेज्िाडेंशियल कॉलेज में गल्र्स हॉस्टल नहीं था। नागपुर में होने के कारण मुझे घर से आने-जाने की सहूलियत मिली। सुबह साढे छह और शाम को तीन बजे होने वाली परेड के लिए तीन बार यूनिफॉर्म बदलनी होती थी। तीन साल के बाद पहली ट्रेनिंग कोलकाता में हुई, फिर दिल्ली के लक्ष्मीनगर फायर स्टेशन में रही। हमें 24 घंटे अलर्ट रहना होता है। दिल्ली में एक बार दीवाली की रात छह स्थानों पर आग लगी और मुझे हर जगह जाना पडा। मुझे लगता है कि कोई भी काम लडकियों या लडकों का नहीं होता। मेहनत, समर्पण और लगन ही अंत में काम आती है।

डर शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं

रजनी पंडित, जासूस, मुंबई

स्त्रियों को खोजबीन की आदत होती है। वे हर पहलू की जांच करती हैं, तब कहीं उनका भरोसा पुख्ता होता है। इन्हीं आदतों के चलते मुंबई की रजनी पंडित परिवार के विरोध के बावजूद जासूस बन गईं। पिछले 25 सालों से इस प्रोफेशन में हैं वह। यह राह काफी कठिन रही है उनके लिए।

मेरे पिता सीआइडी इंस्पेक्टर थे, मगर वे नहीं चाहते थे कि मैं प्राइवेट इन्वेस्टिगेटर बनूं। जबकि मुझे बचपन से ही सच को खोजने का शौक था। कॉलेज में एक क्लासमेट गलत संगत में पड गई। घर में बताती कि पढाई के लिए कॉलेज में रुकती है। मैंने पडताल की तो पाया कि वह जिन लडकों के साथ घूमती थी, वे उसे नशा कराते थे। मैंने उसके पेरेंट्स को बताया। पहले तो उसकी मां मुझे बुरा-भला कहने लगीं, पर जब उन्होंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा तो उन्हें मुझ पर विश्वास हुआ। इसी तरह मेरे पडोसी पति-पत्नी में पैसे की तंगी को लेकर हमेशा झगडा होता था। मैंने जासूसी की तो पता चला कि पति बियर बार और डांस बार में सारा पैसा लुटा देता था। यह बात पत्नी को बताई तो उन्होंने बिज्ानेस अपने हाथ में ले लिया। तब अख्ाबार में जासूसी के विज्ञापन नहीं छपते थे। मैं मंत्रालय गई तो पता चला कि डिटेक्टिव के लिए कोई कानून नहीं है। घरेलू समस्याएं, कंपनी जासूसी, गुमशुदा लोगों की तलाश से लेकर मर्डर तक के केस मैं करती हूं। मेरे काम में मुझे कभी ब्लाइंड, कभी प्रेग्नेंट स्त्री, कभी घरेलू हेल्पर तक की भूमिकाएं निभानी पडती हैं। अभी मेरे साथ 12-15 लोग जुडे हैं। काम ज्य़ादा होता है तो अन्य लोगों को भी जोड लेते हैं। मैं ट्रेनिंग भी देती हूं। शादी नहीं की, क्योंकि मेरा काम जोख्िाम भरा है। डर शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं है। हम सब मौत से डरते हैं...और मौत तो एक दिन आनी ही है। ऐसे में क्यों और किसलिए डरना!

गिफ्ट में मिले कैमरे ने दिया ज्िांदगी का मकसद

राधिका रामासामी, वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर, दिल्ली

उन्हें कैमरे से प्यार 11वीं कक्षा में पढऩे के दौरान हुआ था। बाद में अंकल ने कैमरा भेंट किया तो शौक जुनून में बदल गया। जंगल की दुनिया ने इतना आकर्षित किया कि पिछले 25 वर्षों से वह इसी दुनिया में रमी हुई हैं। ये हैं राधिका रामासामी, जिन्हें भारत की पहली प्रोफेशनल वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर होने का गौरव प्राप्त है।

फोटोग्राफी और यात्राओं का शौक बचपन से था। मगर वास्तविक रुचि तब जागी, जब अंकल ने मुझे एसएलआर कैमरा गिफ्ट किया। वह प्रोफेशनल फोटोग्राफर हैं। उन्होंने कैमरे की बारीिकयां बताईं। इंटरनेट और किताबों की मदद ली, ताकि जानवरों की बॉडी लैंग्वेज और व्यवहार को समझ सकूं। वर्ष 2004 में पहली बार परिवार के साथ घूमने भरतपुर नेशनल पार्क गई। वहीं से प्रकृति से प्यार शुरू हुआ। मैं लगभग रोज्ा दो घंटे दिल्ली में ओखला बर्ड सेंग्क्चुएरी में बिताने लगी। पक्षियों को देखने, पहचानने, उनके व्यवहार को समझने में मेरा समय बीतने लगा। भारत में रणथंबोर, जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क मेरी पसंदीदा जगहें हैं। अब तक सभी नेशनल पार्कों सहित केन्या, तंज्ाानिया आदि की यात्राएं कर चुकी हूं। हमें आई-लेवल फोटोग्राफी करनी होती है। जानवरों के क्षेत्र में घुसने के लिए एहतियात बरतनी पडती है। उनके आने-जाने का समय नोट करना होता है। ख्ाुशबू या इत्र इस्तेमाल नहीं कर सकते, इसे वे सूंघ सकते हैं। गर्मी का मौसम अच्छा होता है, क्योंकि सुबह जानवर पानी की तलाश में बाहर निकलते हैं। हर जगह या पार्क में वॉटर बॉडीज्ा होती हैं, वहां के कर्मचारियों की मदद से हम वहां तक जाते हैं। शेर-चीते के आने से पहले लंगूर या हिरन दौड कर हमें अलर्ट करते हैं। वर्ष 2005 में जिम कार्बेट पार्क में अचानक मेरे रास्ते पर हाथी आ गया। किसी तरह जान बचा कर वहां से निकल सकी। जानवरों से एक सुरक्षित दूरी रखनी होती है। पार्क या फॉरेस्ट विभाग में पहले ही कॉन्ट्रैक्ट साइन करना होता है कि कुछ हो जाए तो इसके लिए हम ही ज्िाम्मेदार होंगे। कैमरा या लैंस तो टूल्स हैं। सही समझ और टेक्नीक ज्ारूरी है। कुछ बातों का ध्यान रखना ज्ारूरी है। जैसे फोटोग्राफी ट्रिप कैसे प्लान करें, सही इक्विपमेंट चुनें और एंगल कैसे चुनेंं। ये बुनियादी जानकारियां ज्ारूरी हैं।

हिम्मतवाली नादिया हंटरवाली

स्टंट्सवुमन का ज्िाक्र आते ही याद आती हैं नादिया हंटरवाली, जिन्हें फियरलेस नादिया के नाम से भी जाना जाता है। कहा जा सकता है, फिल्मों के शुरुआती दौर में वही अकेली स्त्री थीं, जो स्टंट्स सीक्वेंस करती थीं। ऑस्ट्रेलिया में जन्मी मेरी एन एवांस यानी नादिया का परिवार भारत आया और यहीं बस गया। किसी ज्योतिषी के कहने पर मेरी का नाम बदल कर नादिया किया गया। थिएटर आर्टिस्ट के तौर पर इन्होंने काम शुरू किया। वर्ष 1930 के शुरुआती दौर में उन्होंने सर्कस में भी काम किया। बॉलीवुड में उस दौर की वह अकेली स्टंट क्वीन थीं, जिन पर एक जर्मन लेखक ने किताब लिखी,' फियरलेस नादिया। इसी किताब ने उन्हें फियरलेस नादिया का ख्िाताब दिलाया।

तालियां देती हैं हौसला

गीता टंडन, बॉडी डबल, मुंबई

हमारी मांग हॉरर फिल्मों में ज्य़ादा है। जैसे भुतहा फिल्म में किसी प्रेतात्मा को हवा में लटका दिखाया जाना है तो हमारी ज्ारूरत होती है। हम केबल के सहारे झक सफेद कपडों में हवा में लटक जाते हैं। मिसाल के तौर पर 'रागिनी एमएमएस 2 में भूत-वूत के हवाई ऐक्शन वाले कारनामे मैंने ही दिखाए थे।

मेरे पापा पंजाब के और मम्मी दिल्ली की हैं। पैदाइश-परवरिश व पढाई मुंबई में हुई। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी, इसलिए स्टंट्स से जुड गई। इससे पहले मैंने औपचारिक ट्रेनिंग नहीं ली थी। सेट पर काम करते-करते ही स्टंट्स सीखे। कभी समुद्र तट पर कोई वर्कशॉप जॉइन की, कभी फिल्म रिलीज्ा से पहले रिहर्सल की। मेरी शुरुआत जूनियर आर्टिस्ट और डांसर के तौर पर हुई थी, पर पेमेंट में देरी के चलते मैंने वह काम छोड दिया और स्टंट में हाथ आज्ामाया। इसकी वजह थी कि इस फील्ड में स्त्रियां कम हैं। इसमें 5-10 ही अनुभवी स्त्रियां हैं। प्रतिस्पर्धा कम है, पर जोख्िाम है। एक बार मेरी स्पाइन में फ्रैक्चर हो गया। ऐसा लगा कि भविष्य में स्टंट्स नहीं कर सकूंगी, मगर धीरे-धीरे फिर काम करने लायक हुई। बीच-बीच में ऐक्टिंग-डांसिंग भी करती हूं, लेकिन मुझे स्टंट में ही ख्ाुशी मिलती है। इसकी एक वजह है- कलाकारों व सेट पर मौजूद लोगों की वाहवाही और तालियां। शॉट खत्म होने पर जब ऐक्टर हमारी पीठ थपथपाता है तो लगता है कि सारा जहां जीत लिया।

स्टंट मर्दों की बपौती नहीं है। जब औरतें घर और देश संभाल सकती हैं तो स्टंट्स क्यों नहीं कर सकतीं? भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक तौर पर वे पुरुषों के मुकाबले ज्य़ादा संतुलित व संयमित होती हैं।

बाइक केशौक ने स्टंट बाइकर बना दिया

अनम हाशिम, स्टंट बाइकर, पुणे

दुबली-पतली सी इस 19 वर्षीय लडकी को एकबारग्ाी देखने पर लगता है कि बाइक पर कॉलेज जा रही होगी। लेकिन जब यह अपने स्पेशल हेल्मेट और बचाव के साजो-सामान के साथ बाइक पर सवार होती है, तब इसके फौलादी इरादे नज्ार आते हैं। भारत की सबसे कम उम्र की यह स्टंट बाइकर देश-विदेश में होने वाली प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले रही है।

मैं लखनऊ के गोमती नगर इलाके में पली-बढी हूं। बचपन में जब पैर नीचे भी नहीं पहुंच पाते थे, मैंने बाइक चलानी सीख ली थी। तब दोस्तों की स्कूटी-बाइक पर हाथ आज्ामाया। मेरे साइज्ा का हेल्मेट भी नहीं मिलता था। वर्ष 2012 में 12वीं की परीक्षा के बाद डैड ने मुझे बाइक दिलाई। मैंने अपने भाई के साथ स्टंट्स शुरू किए। दो-एक बार चोट खाकर घर पहुंची तो घर वालों को स्टंट्स का पता चल गया। छोटा भाई 10वीं में था। उसने यूट्यूब पर मेरा स्टंट वाला विडियो अपलोड किया, जो फेसबुक पर वायरल हो गया। कई प्रोफेशनल टीमों ने मुझे ट्रेनिंग देने का प्रस्ताव दिया। यहीं से असल शुरुआत हुई। मैं दुबली-पतली थी, इसलिए गिरने पर कई बार हेयरलाइन फ्रैक्चर्स हुए। फिर जिम जॉइन किया, ताकि मसल्स पावर बढा सकूं। वर्ष 2013 में पुणे आई। यूएस की एक मोटर स्पोर्ट कंपनी ने मुझे स्पॉन्सर किया। भारत में अभी स्टंट बाइकिंग का चलन कम है, मगर हंगरी में यह प्रमुख स्पोर्ट है। पुणे में मैं दो दोस्तों शेखर व मुस्तफा के साथ स्टंट बाइक पाट्र्स की ऑनलाइन कंपनी भी चला रही हूं। हम वर्कशॉप्स करते हैं। अभी 2016 चैंपियनशिप की प्लानिंग में व्यस्त हैं। वर्ष 2013 में मैंने पहली बार अपने पैसे से बाइक ख्ारीदी। हम कॉर्पोरेट शोज्ा करते हैं। मम्मी को यह सब पसंद नहीं रहा, मगर डैड मेरे हीरो हैं, उन्हीं की मदद से यहां तक पहुंच सकी। मैं जॉइंट फेमिली की हूं, जहां लडकियों को इतनी आज्ाादी नहीं मिलती। मगर मेरी सफलता ने सबको मेरे साथ ला खडा किया। स्टंट के लिए बाइक में हैंड ब्रेक, स्ट्रेट हैंडल्स, कस्टम एग्जॉस्ट, स्टंट गियर, राउंड बार, स्लाइडर्स जैसी एक्सेसरीज्ा जोडऩी होती हैं। मैं चाहती हूं कि लडकियां अपने डर को ख्ात्म करें और इस फील्ड में आएं। स्टंट्स के साथ ही मैं फैशन डिज्ााइनिंग भी कर रही हूं।

कमज्ाोर नहीं हैं लडकियां

बबिता-विनेश फोगट, रेस्लर, हरियाणा

वर्ष 2014 में ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में महिला कुश्ती में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता फोगट बहनों ने। 55 किलो और 48 किलो भार-वर्ग में जीतने वाली दोनों बहनें बबिता और विनेश हरियाणा के भिवानी जिले के बलाली गांव की रहने वाली हैं। पितृसत्तात्मक समाज से आने वाली इन बहनों को इनके पहलवान पिता महावीर फोगट ने ट्रेनिंग दी। कैसे आर्ईं इस फील्ड में जानते हैं उनसे।

हमारे परिवार वालों ने कभी हमें लडकी माना ही नहीं। वे कहते हैं तुम कुश्ती लडो, बाकी हम देख लेंगे, यह कहना है फोगट बहनों का। पहले हमारे गांव में पहलवानी या कुश्ती को ठीक नहीं समझा जाता था। कई बार शॉर्ट्स पहनने के लिए हम पर ताने कसे गए, कई बार तो लडके कंधों पर हाथ रख देते, लेकिन हमारे माता-पिता ने हमें न सिर्फ पूरा सहयोग दिया, बल्कि ऐसे लोगों से निपटने की हिम्मत भी प्रदान की। हमारे पिता बहुत अनुशासित हैं। वह सुबह चार बजे ही मैदान में आ जाते, अगर हमें देरी होती तो सज्ाा भी मिलती। सुबह चार से सात बजे तक हमारी कडी ट्रेनिंग होती। शाम को स्कूल से लौटने के बाद भी ट्रेनिंग होती थी। शुरू में हमें इस कठोर प्रशिक्षण से बुरा लगता था, मगर मेडल मिलने लगे तो हमें भी अच्छा लगने लगा। हमारी मां भी तीन बार गांव की सरपंच रह चुकी हैं, वह भी हमें बहुत प्रोत्साहित करती हैं।

अब तो हमारे गांव में भी धीरे-धीरे माहौल बदल रहा है। लोग लडकियों को खेलकूद में जाने के लिए प्रोत्साहन देने लगे हैं। हमारे पिता ही हमारे कोच हैं। इसके अलावा दीदी बबिता फोगट ने बहुत प्रेरणा दी। वह ख्ाुद चोटिल होने के बावजूद हमें ट्रेनिंग देती थीं। हम नहीं मानते कि खेलकूद में लडकियों का करियर लंबे समय तक नहीं चलता। मैरी कॉम इसका उदाहरण हैं। हर लडकी बेटी, बहन, पत्नी या मां की भूमिका निभाती है। इतने सारे रिश्तों के बीच संतुलन बिठाने वाली लडकी कमज्ाोर कैसे हो सकती है!

वीरांगना रानी चेनम्मा

भारत के स्वाधीनता संग्राम में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इतिहास बताता है कि सन 1857 की क्रांति से लगभग 33 वर्ष पूर्व ही कर्नाटक में कित्तूर की रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों की ग्ालत नीतियों जैसे कर संग्रह व्यवस्था और अनावश्यक हस्तक्षेप के ख्िालाफ सशस्त्र संघर्ष किया। हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली। अंग्रेज सरकार ने उन्हें कैद किया, जहां उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उनके प्रयासों ने देश में जागरूकता पैदा की। कर्नाटक के बेलगाम में पैदा हुई थीं चेनम्मा। युवावस्था में ही उनके पति का निधन हो गया और इसके बाद इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गई। घुडसवारी और तीरंदाज्ाी में विशेष रुचि रखने वाली रानी चेनम्मा ने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया, जिसका अंग्रेज सरकार ने विरोध किया।

साक्षात्कार : दिल्ली से इंदिरा राठौर मुंबई से अमित कर्ण, स्मिता श्रीवास्तव, पटना से बलवंत सिंह चौहान

इंदिरा राठौर


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