धुन के मंजीरे पर मन की थाप
मैं किससे कहती कि कि चन में हर रोज लंच-डिनर बनाने और घर को सजाने जैसे कामों से उकता गई हूं। मैं भी यायावर की तरह घूमना चाहती हूं। खुली हवा संग बहना चाहती हूं। मेरे मन के अंधेरे किंवाड़ों के पीछे छिपी, ठिठकी ऐसी कई भावनाएं हैं जिनका बाहर आना शायद किसी को अच्छा न लगे। मेरी आवाज बनने के लिए शुक्रिया.. लोकगीत अगर हाड़-मांस के इंसान होते, तो शायद भारतीय स्त्री उनसे यही कहती। ये गीत उसकी धड़कनों में बसे हैं। उसके मनोभावों का आईना हैं। इन्हीं के सहारे वह अपने लिए स्पेस क्रिएट करती है। गांव हो या शहर, कोई भी संस्कार इन गीतों के बिना पूरा नहीं माना जाता। किस तरह लोकगीत स्त्रियों की आवाज और उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का जरिया बनते हैं, जाना ज्योति द्विवेदी ने।
आप हर साल तीज पर मुझे चांदी की पायल या बिछिया दिला देती हैं और समझती हैं कि बस हो गया सब कुछ। आपको लगता है कि मेरी दुनिया बस गहनों और सोलह सिंगार तक ही सीमित है। लेकिन मैं आपको बताना चाहती हूं कि मुझे गहनों की चमक से कहीं ज्यादा लगाव चारदीवारी से बाहर की दुनिया से है।
यह है एक मशहूर बुंदेली लोकगीत में एक बहू की अपनी सास से की गई गुजारिश। यह एक आहट है। आहट स्त्रियों के मन में पल रही आजादी की ख्वाहिश की। कोशिश कई सालों से पल रही, लेकिन दमित भावनाओं को शब्द देने की। स्त्री की जिजीविषा, इच्छाशक्ति और आक्रोश से लबरेज इस तरह के लोकगीत यकीनन उसकी आवाज हैं। चाहे वह फसल पकने पर गाए जाने वाले सोहनी गीत हों या अनाज की पिसाई के दौरान गाए जाने वाले जतसारी। इन गीतों की बुलंद आवाज महज स्त्री मंडलियों के बुलउवों और खेतों में काम करने वाली मेहनतकश किसानों के समूहों तक ही सीमित नहीं रही। बल्कि अब ये लोकगीत देश के बडे गीतकारों-गायकों की रुचि का विषय भी साबित हो रहे हैं। कभी पाश्चात्य धुनों के पीछे बावली रॉक बैंड्स की जमात भी इन दिनों लोकगीतों पर आधारित नए-नवेले प्रयोग करती नजर आ रही है। गायक सोनू निगम कहते हैं, मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू वाले ये लोकगीत स्त्री की आजादी, सशक्तीकरण और सपने देखने की ललक को जाहिर करने का जबर्दस्त माध्यम बन कर उभरे हैं।
अभिव्यक्ति का जरिया
समाज में भले ही आधुनिकता की जडें गहरी हो गई हों, लेकिन आज भी एक बडे वर्ग की स्त्रियों के पास आर्थिक, सामाजिक और सेक्सुअलिटी से जुडे मुद्दों पर अपनी बात रखने की आजादी नहीं है। स्त्री से हमेशा उम्मीद की जाती है कि उसमें अपार सहनशक्ति हो, वह त्याग करना अपना कर्तव्य समझे और अपनी चाहतों, उम्मीदों को मन में ही रखे। ऐसी परिस्थितियों में लोकगीत लंबे समय से उसकी आवाज को परवाज देने का जरिया साबित होते रहे हैं। ऐसी कई बातें हैं जिन्हें अपने पति और घर के अन्य सदस्यों से कहने में स्त्रियां झिझकती हैं- जैसे उनकी शारीरिक-भावनात्मक इच्छाएं। स्त्रियां इन विषयों पर अपनी संवेदनाओं को लोकगीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं।
अधिकारों के लिए गुहार
पैतृक संपत्ति पर अधिकार को लेकर विरोध दर्ज कराने वाले एक लोकगीत की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए,जेई कुछ अरजिहे ए बाबा, अधिया हमार अधिया अधिया जीनी करा बेटा, सभे धन तोहार, चुटकी भर सिंदुरवा ए बेटा, तू ता जैयबू कौना पार। इस लोकगीत में एक बेटी अपने पिता से उसकी संपत्ति में आधा हिस्सा मांग रही है। भले ही असल जिंदगी में उसके लिए इस विषय पर बात करना मुश्किल हो, पर गीतों के जरिये वह अपने भाइयों से बराबरी की बात को सहजता से बयान कर देती है। आजकल साहसी स्त्रियों के प्रयासों पर आधारित, खेलों और राजनीति में झंडे गाडने वाली स्त्रियों की सफलता के किस्से भी लोकगीतों में सुनाई देते हैं।
सामाजिक सहभागिता
ये गीत हमेशा से ही स्त्री के लिए विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी का जरिया रहे हैं। काला धन देश में वापस लाने और भ्रष्टाचार मिटाने का शोर महज भारतीय राजनीति में ही नहीं है। न ही यह नया है। स्त्रियों के कई गीतों में भी इस विसंगति के प्रति आक्रोश नजर आता है। ऐसा ही एक गीत है, आजादी जब ते भारत में आई, कंटरौल और ब्लैकवती कूं, चौ संग अपने लाई। इसी तरह वृक्षारोपण, उन्नत बीजों से खेती करने, महंगाई, साक्षरता दर बढाने और चुनाव जैसे विषयों पर आधारित लोकगीत भी स्त्रियों की मंडलियों में गाए जाते हैं और उन्हें यह एहसास कराते हैं कि वे भी समाज में बदलाव लाने की कोशिशें मुकम्मल कर सकती हैं।
मुट्ठी भर आसमान की चाहत
आम तौर पर स्त्रियां अपने मन की बात किसी से जाहिर नहीं करतीं। लेकिन अगर उनका स्वर बने गीतों के भीतर टटोला जाए, तो उनके मन की गई गांठें खुलती नजर आएंगी। ये बताते हैं कि स्त्रियां घर की चारदीवारी से निकल कर बाहर खुली हवा में सांस लेने के लिए बेताब हैं। बेपरवाह होकर घूमना, खुद को तलाशना, दुनिया के रंगों से रूबरू होना और नयापन महसूस करना आज भी समाज के एक बडे वर्ग की स्त्रियों के लिए सपना है। ऐसे में कई लोकगीत इन इच्छाओं को जाहिर करते हैं। कुछ ऐसे ही भाव इस गीत में भी व्यक्त किए गए हैं, मेरौ घर में जी घबराय, मंसूरी लै चलि लांगुरिया, बडी जोरे ते गर्मी पड रही, महीना लग रहौ जून, बहुत दिन ते मन में लग रही देखूं देहरादून, पांच हजार फुट की ऊंचाई, धरती ते मंसूरी, ठंडी-ठंडी हवा लगेगी, इच्छा होगी पूरी। इसके अलावा कुछ गीत यह भी बताते हैं कि जिन स्त्रियों की दुनिया सीमित है, वो कूलर, स्कूटर और टीवी जैसी भौतिक चीजों में खुशी तलाशती हैं।
खेतों से ड्रॉइंग रूम तक
लोक संगीत ने खेतों से ड्रॉइंग रूम तक का लंबा सफर तय किया है। लोकधुनों से प्रेरित हिट फिल्मी गीतों की लंबी फेहरिस्त है और इनकी मांग लगातार बढ रही है। देश-विदेश में होने वाले म्यूजिक कॉन्सर्ट्स में ये गीत अपने मखमली एहसास का जादू बिखेर रहे हैं। आधुनिक समाज में इनकी लोकप्रियता की सबसे बडी वजह यह है कि इनमें भरपूर लचीलापन है। इन गीतों ने यहां तक के सफर में कई उतार-चढाव, जोड-घटाव और परिवर्तन देखे हैं। रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म और डीवीडी आदि के प्रचलन ने इन्हें उन अल्ट्रा मॉडर्न शहरों तक भी पहुंचा दिया है जहां इनका प्रचलन नहीं है। भाषा के स्तर पर आया बदलाव भी इनकी लोकप्रियता का कारण है। ब्रज और अवधी की जगह अब खडी बोली वाले लोकगीतों को तरजीह दी जा रही है। गांव-कस्बों में युवा लडकियां आधुनिक विषयों पर गीत गढ रही हैं। शहरी गृहिणियां विभिन्न मांगलिक अवसरों पर इन्हें गाती हैं। इनके बिना कोई संस्कार संपन्न नहीं होता। कई शहरी स्त्रियां आज भी नोटबुक में इन्हें लिखती हैं और रिहर्सल कर विभिन्न अवसरों पर गाती हैं। ये गीत शहरी माहौल की बात करते हैं और इनमें मोबाइल, जींस आदि का जिक्र तक आने लगा है।
मेलजोल बढाने का माध्यम
ये गीत स्त्रियों के लिए मेलजोल बढाने और सुख-दुख साझा करने का माकूल जरिया हैं। भारत में बुवाई, सिंचाई, निराई-रोपाई, खुदाई, फसल कटाई, मडाई जैसी कृषि आधारित और आटा पीसने, दाल दरने जैसी घरेलू गतिविधियों के दौरान भी स्त्रियां येगीत गाती हैं। शहरों में मिश्रित संस्कृति की स्त्रियां मिलती हैं, तो इन गीतों के जरिये अपनी भावनाएं साझा करती हैं। दिल्ली की गृहिणी उज्जवला सिंह बताती हैं, मेरी कॉलोनी में हरियाणा, पंजाब और बिहार के कई परिवार रहते हैं। इन परिवारों की स्त्रियां जब विभिन्न सांस्कृतिक पर्वो पर इकट्ठा होती हैं तो अपने-अपने क्षेत्र के गीत गाती हैं। हम उनके बोल तो नहीं समझ पाते पर इतना समझ में आता है कि इस भाव वाला गीत तो हमारे क्षेत्र में भी प्रचलित है।
स्त्री एकता के प्रतीक स्वरात्मा म्यूजिक बैंड एक वक्त था जब रॉक बैंड्स के म्यूजिक को क्लास ऑडियंस की रुचि की चीज समझा जाता था। इनमें पाश्चात्य अंग्रेजी धुनों और लिरिक्स का बोलबाला होता था। पर अब ऐसा नहीं है। रॉक म्यूजिक बैंड्स अब अपने संगीत को मिडिल और लोअर क्लास तक भी पहुंचाना चाहते हैं। हमारे म्यूजिक बैंड का आइडिया भी कुछ ऐसा ही है। यही वजह है कि जब हमने स्वरात्मा म्यूजिक बैंड की नींव रखी, तो तय किया कि हमारे सभी गीत फोक स्टाइल से प्रेरित होंगे। लोक गीतों की सबसे बडी खासियत यह है कि इन्हें गाने के लिए शास्त्रीय गायन की तरह सुरों का जानकार होने की जरूरत नहीं होती। आम आदमी अपने सुख, दुख, संवेदनाओं और आकांक्षाओं को इन गीतों के जरिये व्यक्त करता है। गांव-कस्बों के लोग बिना माइक और स्पीकर के गाते हैं। प्राय: लोक गायकों को अपनी आवाज ओपन एरिया में एक बडे समूह तक पहुंचानी होती है। इसलिए वे तेज और खुली आवाज में गाते हैं। हमने भी अपने म्यूजिक बैंड में इसी निश्छल गायन शैली को अपनाया है। इसे ओपन थ्रोटेड सिंगिंग स्टाइल कहते हैं। सधी हुई और नियंत्रित आवाज वाले गायन की जगह प्राकृतिक लोक संगीत से प्रेरित इस गायन शैली से लोग ज्यादा जुडाव महसूस करते हैं क्योंकि वे भी इसी अंदाज में गाते हैं। गायन शैली के अलावा हमने अपने म्यूजिक बैंड के गीतों में जान डालने के लिए लोक संगीत का रिदम भी उधार लिया है। हम 44 और 23 जैसे रिदम पैटर्न्स पर आधारित गाने गाते हैं। ये पैटर्न फोक म्यूजिक में सर्वाधिक पाए जाते हैं। साथ ही हम ढोलक, खमोक और अफगानिस्तानी वाद्य जेम्डे का इस्तेमाल करते हैं। सोफिस्टिकेटेड या बोहीमियन परिधानों की जगह हमने रंग बिरंगे क्षेत्रीय परिधानों का चयन किया है जो हमें फोक से जुडा हुआ दर्शाता है। हमारा संगीत समाज के हर वर्ग को जोडता है। मुझे लगता है कि लोक संगीत स्त्रियों के लिए अभिव्यक्ति का प्रमुख जरिया है। गांव-कस्बों में जिस तरह के गीत स्त्रियां गाती हैं, उन्हें अब विभिन्न बैंड म्यूजीशियंस अपने संगीत में इस्तेमाल कर रहे हैं। ये समाज के उच्च वर्ग में भी चर्चित हो रहे हैं। यहां तक कि विदेश में होने वाले म्यूजिक बैंड कॉन्सर्ट्स में भी स्त्रियों से जुडे लोकगीतों को पसंद किया जा रहा है। इनके माध्यम से स्त्रियां सामाजिक आंदोलनों में अपनी सहभागिता दर्ज करा कर कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाती हैं। हमारा म्यूजिक बैंड अपने परफॉर्मेसेज में अकसर प्यासा गीत गाता है। इस गीत में कावेरी नदी का दर्द बयां किया गया है। इस गीत को सुनकर एहसास होता है कि किस तरह हर साल कर्नाटक और तमिल नाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के पानी को लेकर होने वाले झगडे उसके (कावेरी नदी के) दिल को ठेस पहुंचाता है। कावेरी नदी के निकटस्थ इलाकों की स्त्रियां अकसर इस तरह के गीत गाकर इस सामाजिक मुद्दे को लेकर आवाज उठाती हैं।
लुभाती है इनकी सहजतामनोज तिवारी, गायक लोकगीत हमेशा से ही अभिव्यक्ति का सशक्त जरिया रहे हैं। 90 के दशक में भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने वाले कई लोकगीत चलन में थे। ये गीत किसी विचार को प्रसारित करने का प्रमुख माध्यम थे। लेकिन आज स्त्री से जुडे इतने वीभत्स अपराध हो रहे हैँ कि उनका इन गीतों से समाधान नहीं निकलने वाला। ठोस कदम उठाने से ही कुछ बदलाव आएगा। आज फिल्मकार लोकगीतों में आधुनिक धुनों का तडका लगाकर उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे इनमें नयापन आ गया है। फिल्मों में इनका प्रमोशन बहुत अच्छे स्तर पर हो रहा है। टीवी और रेडियो के माध्यम से ये गीत देश के कोने-कोने तक पहुंच जाते हैं। ससुराल गेंदा फूल जैसे गीत स्त्रियों के मनोभावों को व्यक्त करते हैं। आज स्त्रियों की साक्षरता दर बढी है। वे अंतरिक्ष में जा रही हैं। दुर्गम पहाडों पर चढ रही हैं। हर असंभव कार्य को कर के दिखा रही हैं। ऐसे में उनकी भावनाएं और आकांक्षाएं भी बदली हैं। यही वजह है कि अब लोकगीत वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से लिखे जा रहे हैं। इन गीतों का इस्तेमाल कई फिल्मों में आयटम सॉन्ग की तरह भी किया जा रहा है। सहज बोलों और धुनों वाले ये गीत लोगों की जुबान पर जल्दी चढ जाते हैं।
सशक्त महसूस कराते हैं ये गीत
मीनू बख्शी, गायिका व लेखिका
मैं पंजाबी लोकगीत सुनते हुए ही बडी हुई। इनसे मुझे इतना लगाव था कि मैंने लोक गायन को ही अपना करियर बना लिया। आज भी इन्हें गाकर मैं बेहद सशक्त महसूस करती हूं। पंजाबी लोकगीतों में महिला अधिकार, कन्या भ्रूण हत्या और लिंगभेद जैसे विषय उठाए गए हैं। ये समस्याएं समाज में हमेशा से रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उस दौर में स्त्रियां इन मुद्दों को अपने जीवन का हिस्सा मानती थीं और आज उन्हें यह एहसास है कि ये ज्यादतियां थीं। रूढिवादी परंपराओं को लेकर मेरे मन में बहुत गुस्सा था। लेकिन मैं इन मुद्दों पर कुछ कह नहीं पाती थी। ऐसे में मैंने इन समस्याओं पर आधारित लोकगीत लिखे। इस तरह ये गीत मेरी आवाज बने। आजकल फोक लिरिक्स को ठुमरी, दादरा और टप्पा के साथ मिक्स कर के सेमी क्लासिकल संगीत का सृजन किया जा रहा है। यह लोक संगीत का परिवर्तित रूप है।
सुरों ने बूझीं कई पहेलियां
डॉ. स्मिता तिवारी जस्सल, एसोसिएट प्रोफेसर, ऐंथ्रपॉलजी
मैं बचपन से ही ऐंथ्रपॉलजिस्ट बनना चाहती थी। साल 1978 में मुझे स्त्रियों के जमीन को लेकर अधिकार पर शोध करना था। इसके लिए मैंने उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ गांवों को अपने शोध क्षेत्र के रूप में चुना। वहां हुए अनुभवों ने मेरी जिंदगी बदल दी। इन क्षेत्रों के गांव-कस्बों में जाकर मैंने स्त्रियों से जमीन से जुडे अधिकारों को लेकर सवाल किए। पर वे बेहद संकोची स्वभाव की थीं और खुल कर बात नहीं कर रही थ्ीां। मुझे लगने लगा था कि मैं अपने शोध के लिए कोई जानकारी नहीं जुटा पाऊंगी। इसी बीच मैंने गौर किया कि वे अपनी सभी दैनिक क्रियाओं के दौरान लोकगीत गाती हैं। उन गीतों को सुनकर मैं हैरान रह गई। मेरे सभी सवालों के जवाब उनमें मौजूद थे। ऐसे में मैंने स्त्रियों का मन खंगालने के लिए उन्हें सुनना अपनी रणनीति बना लिया। इन गीतों ने मुझे कई अनसुने किस्से सुनाए। इनमें स्त्रियों के मन का सूनापन, खीझ और अकेलापन आसानी से भांपा जा सकता था। कई स्त्रियों के पति रोजगार के लिए दूसरे शहर गए थे। कइयों के पति तो कई-कई साल तक घर नहीं लौटते थे पति की राह देखते-देखते ही उन स्त्रियों की उम्र बीत जाती थी। खेत की जुताई के अलावा कृषि से जुडा सारा काम स्त्रियों के जिम्मे था। इसके बावजूद उनके श्रम की कोई कीमत नहीं थी। यह उनकी घरेलू जिम्मेदारियों के अलावा अतिरिक्त काम होता था। जब मैंने यह बात प्लानिंग स्टैटिस्टिीशियन के तौर पर कार्यरत अपने पापा को बताई तो उन्होंने मुझसे कहा कि गांवों में होने वाले श्रम पर आधारित सर्वेक्षण कभी सही नहीं होते। क्योंकि इनमें स्त्रियों के काम को काम माना ही नहीं जाता। साल 1980 में एक शोध हुआ जिसमें कुछ भारतीय मेहनतकश स्त्रियों से पूछा गया कि वे क्या काम करती हैं। इसके जवाब में 18 घंटे प्रतिदिन काम करने वाली इन स्त्रियों ने कहा कि वे कुछ नहीं करतीं। महज इसलिए क्योंकि उन्हें काम का कोई मूल्य नहीं मिलता था। इसके अलावा इन गांवों में जाकर मैं गारी गीतों से रूबरू हुई। ये वे गीत होते हैं जो शादी आदि मांगलिक अवसरों पर गाए जाते हैं। इनके जरिये वर पक्ष के सदस्यों को गालियां दी जाती हैं। उस वक्त उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ संस्थाएं गारी गीतों को अश्लील बता कर उनका विरोध कर रही थीं। लेकिन इनके अस्तित्व में आने के कारणों के बारे में कोई बात नहीं हो रही थी। मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि ये गीत स्त्री की दमित शारीरिक इच्छाओं का नतीजा थे। ये तभी अस्तित्व में आए होंगे जब स्त्री के मन में भावनाओं के अतिरेक का विस्फोट हुआ होगा। स्त्रियों को बचपन से ही चुप रहने और सहने की जो सीख दी जाती है, उसके चलते वे सामान्य परिस्थितियों में अपने मन की भडास नहीं निकाल सकती थीं। पुरुष प्रधान समाज में ये गीत ही इन स्त्रियों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने, सुख दुख बांटने और अपने लिए स्पेस बनाने की हिम्मत भी देते थे। जबकि पुरुषवादी मानसिकता वाली उक्त संस्थाएं स्त्रियों की इस एकजुटता को खत्म कर देना चाहती थीं। मैंने इन सब स्थितियों का अध्ययन किया। शोध के कुछ सालों बाद मेरे पति का ट्रांसफर यूएस हो गया तो मैं वहां शिफ्ट हो गई लेकिन वहां जाकर भी मेरा इन लोकगीतों से लगाव कम नहीं हुआ। साल 2012 में मेरे शोध पर आधारित किताब प्रकाशित हुई।
स्त्रियों की चुप्पी को दिए स्वर
डॉ. हरि सिंह पाल, लेखक
मैं अलीगढ जिले के एक छोटे से गांव सुढियाल में पैदा हुआ था। बचपन से ही ब्रज लोकगीत सुनते हुए पला बढा जिसके चलते इनसे लगाव हो गया। मैंने तय किया कि इन गीतों को सहेजने के लिए कुछ करना है। अपना मकसद पूरा करने के लिए मैंने लोकगीतों पर शोध किया। इस शोध के दौरान मैं आगरा, मथुरा, ग्वालियर, धौलपुर, भरतपुर और पलवल गया और 1000 लोकगीत संकलित किए। इस दौरान मैंने जीवन को काफी नजदीक से महसूस किया। विशेषकर स्त्रियों की दुनिया के कई नए आयाम पता लगे। मैंने जाना कि ये गीत नारी हृदय की धडकनें हैं। वे उन्हें जन्म देती हैं, उनकी परवरिश करती हैं, उन्हें संकलित करती हैं और आने वाली पीढी के लिए संकलित कर के छोड देती हैं। मैंने यह भी जाना कि स्त्रियों की मूक दुनिया को इन गीतों ने ही स्वर दिए हैं। मुझे एहसास हुआ कि मौखिक संस्कृति कितनी समृद्ध है।
बदले हैं लोकगीत
टेट्सियो सिस्टर्स, फोक म्यूजीशियंस
लोकगीतों में समय के साथ कई बदलाव आए हैं। आज वे स्त्री के व्यक्तित्व, उसकी पहचान, सच के लिए लडने की हिम्मत और भाग्य की गुलामी से आजादी की बात करते हैं। ये गीत समय के साथ सशक्त हुए हैं क्योंकि आज इनके सुर घरों तक सीमित नहीं रहे। प्रसार माध्यम इन्हें लाखों, करोडों लोगों तक पहुंचा रहे हैं। आज इन्हें सुनने के लिए आपको किसी गांव में जाने की जरूरत नहीं है। इंटरनेट से विडियोज डाउनलोड कर या सोशल नेटवर्किग साइट्स पर बनी फोक म्यूजिक साइट्स के जरिये आप ये गीत सुन और शेयर कर सकते हैं। खुद को इन गीतों के जरिये अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया से सशक्तीकरण का एहसास होता है और जब आपको लगता है कि आपकी आवाज दबाई नहीं जा सकती तो ये गीत एक बैनर की तरह काम करते हैं। इन गीतों में इतनी शक्ति है कि आप इन्हें सुन कर गाने वाले की मनोस्थिति और गतिविधियों का अंदाजा लगा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, उत्तर-पूर्व भारत के राज्यों में चावल को भूसी से अलग करने के दौरान हियो-हियो, बुवाई के दौरान शी चो मो मी और वीविंग के दौरान फ्रोजुली जैसे गीत गाए जाते हैं। यह चलन शहरों में भी उतना ही प्रचलित है जितना गांवों में। हम भी अपने म्यूजिक बैंड के परफॉर्मेसेज में लोकगीत गाते हैं।
अलग पहचान देती हैं लोकधुनें
हिमेश रेशमिया, गायक व एक्टर
हिंदी फिल्मों में लोकधुनों का प्रयोग हमेशा से होता रहा है। यह अभी भी हो रहा है। कभी इन्हें इनके मूल रूप में ही ले लिया जाता है और कभी इन पर प्रयोग किए जाते हैं। ये प्रयोग अधिकतर प्रभावी साबित हुए हैं। क्योंकि ये भारतीय सिनेमा को एक अलग पहचान देते हैं। जहां तक ये प्रयोग मूल धुन से कोई छेडछाड किए बगैर हों, वहां तक तो अच्छे हैं, लेकिन मूल धुन से कोई छेडछाड की जाए तो उसे सही नहीं कहा जा सकता। मेरी कोशिश यही होती है कि ऐसा कुछ न करूं और अगर इसकी जरूरत हो भी तो बदलाव ऐसा किया जाए जो उसे और समृद्ध करे, मूल धुन को बिगाडे नहीं। आजकल लोकधुनों पर आधारित कई गीतों में जो विजुअल्स दिए जाते हैं, वह सही नहीं लगते। हर लोकधुन का प्रयोग एक खास तरह के कंटेंट के साथ किया जाता है। अगर यह बदल जाता है तो वह बात नहीं रह जाती। ऐसी स्थिति में यह भारतीय सिनेमा को सही पहचान देने के बजाय लोकधुनों की पहचान को भी बिगाड देगा। इससे बचना चाहिए।
लेख में दी गई लोकगीतों की पंक्तियां डॉ. हरि सिंह पाल की पुस्तक लोक काव्य के क्षितिज और डॉ. स्मिता तिवारी जस्सल की पुस्तक अनअर्दिग जेंडर: फोक सॉन्ग्स ऑफ नॉर्थ इंडिया से ली गई हैं।
(इंटरव्यू: इष्ट देव सांकृत्यायन, स्मिता श्रीवास्तव, अमित कर्ण और ज्योति द्विवेदी।)
ज्योति द्विवेदी