बेटियों से है जहां रौशन
परी सरीखी होती हैं बेटियां, जिनका जादुई स्पर्श मन की सारी मुरादें पूरी कर देता है। इनके बगैर •िांदगी अधूरी सी होती है। घर को संवारती हैं तो देश का नाम भी रौशन करती हैं। ये हैं, तभी तो दुनिया इतनी हसीन है। इन्हीं बेटियों को समर्पित है यह कवर स्टोरी। इंदिरा राठौर के साथ चलें चंद चर्चित बेटियों के माता-पिता के अनुभव-संसार में।
उसकी बातों में शहद जैसी मिठास
उसकी सांसों में इतर की महकास
होंठ जैसे कि भीगे-भीगे गुलाब
गाल जैसे कि दहके-दहके अनार
मेरे घर आई एक नन्ही परी
चांदनी के हसीन रथ पे सवार..
हिंदी फिल्म कभी-कभी में साहिर लुधियानवी के लिखे इस गीत को लता मंगेशकर की स्नेह भीगी मीठी आवाज ने अमर बना दिया। ओस की बूंदों सी हैं बेटियां तो रिमझिम फुहारों सी भी, सुबह की नर्म धूप सरीखी तो मुलायम हरी दूब सी भी, कोयल की कूक सी तो मन की मुरादों सी भी..। बेटी माता-पिता के जीवन में रंग भरती है और घर को अल्हड शरारतों से गुलजार करती है। उसके होने से मन को सुकून मिलता है। गहरी तकलीफ में वह हौसला बंधाती है तो उसकी खिलखिलाहटें दर्द में भी हंसने का बहाना दे देती हैं। जिंदगी जीने का शऊर सिखाती हैं बेटियां, घर को सचमुच घर बनाती हैं बेटियां।
बेटियों के नाम एक दिन
डॉटर्स डे वर्ष 2007 से हर वर्ष सितंबर के चौथे रविवार को मनाया जाता है। यह हर बेटी के माता-पिता के लिए एक खास दिन है। बेटा-बेटी का भेद खत्म करने के लिए यूनिसेफ ने क्राई और आर्चीज जैसी संस्थाओं के साथ मिल कर यह पहल की। कई लोग इसे बाजार के नए पैंतरे के रूप में देखते हैं। सच यह है कि हर दिन गर्भ में ही असंख्य बच्चियों को मार दिया जाता है। आज भी समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जो लडकी को कमतर समझते हैं। इसी मानसिकता को ख्ात्म करने की दिशा में एक कदम है डॉटर्स डे। यह एक प्रतीक दिवस है, ताकि लोग समझ सकें कि बेटियां भी बेटों जितनी ही महत्वपूर्ण हैं।
बदल रहा है समाज धीरे-धीरे
पिछले 10-20 वर्षो में समाज में धीरे-धीरे एक बडा बदलाव दिखाई दे रहा है। अब लडकी के जन्म पर भी उतनी ही खुशी मनाई जाती है, जितनी बेटे के जन्म पर। परवरिश भी कमोबेश समान है। साल-दर-साल बेटियों की उपलब्धियों का ग्राफ बढ रहा है। बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे हों या प्रतियोगी परीक्षाएं, खेल का मैदान हो या बोर्ड रूम, लडकियों का दखल तेजी से हर जगह बढ रहा है। वे भी बडी-बडी डिग्रियां ले रही हैं और देश-विदेश में अपनी अलग पहचान बना रही हैं। इसी रफ्तार से उन्होंने बढती जिम्मेदारियों को भी संभाला है। घर की किचन हो या ऑफिस के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स, उनके हाथों ने हर जगह कमाल पैदा किया है। सफलता की इस रेसिपी को अब वे सबसे बांट रही हैं। पराया धन नहीं, बल्कि माता-पिता की लाठी बन कर उनका साथ देने को तैयार हैं। आसपास युवा पीढी की कई लडकियों को पूरी संजीदगी से परिवार की जिम्मेदारियां उठाते हम रोज ही देखते हैं। तो फिर फर्क कहां है? फर्क सिर्फ उन दिमागों में है जो सच्चाई को स्वीकारना नहीं चाहते। जो अपनी जंग खा चुकी मान्यताओं को परंपराओं और सामाजिक रीति के नाम पर ढोते चले जाते हैं।
वंश का सवाल
मेरी तीनों बेटियां जीवन में सफल हैं। दो सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और एक बैंक में उच्च अधिकारी। तीनों छोटे शहर-कसबे से निकल कर ओपन कंपिटीशन के जरिये आज टॉप कंपनीज में काम कर रही हैं। दो बेटियों की शादी भी हो चुकी है.., सरकारी स्कूल की अध्यापिका कोमल सिंह बताती हैं, 15-20 वर्ष पूर्व हमारे एक नए पडोसी हमसे मिलने आए। बातों-बातों में उन्होंने बच्चों के बारे में पूछा। मेरे जवाब पर उन्होंने लगभग सांत्वना देते हुए कहा, ओह! कोई वंश चलाने वाला भी नहीं..। मैंने बमुश्किल गुस्से को दबाया। हमें बेटियों से कभी परेशानी नहीं हुई, जबकि हमारी सबसे छोटी बेटी के पैरों में जन्मजात कुछ समस्याएं थीं। आज जब कोई बेटियों की तारीफ करता है तो गर्व से हमारा सिर ऊंचा हो जाता है।
बेटियां ही हैं अपनी
हिंदी की सुपरिचित कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं। तीनों डॉक्टर हैं। मैत्रेयी भी अपनी मां की इकलौती संतान हैं। कहती हैं, मायके में न तो पिता थे-न भाई। एक मामा थे, लेकिन मां को कभी राखी बांधते नहीं देखा। उनके मन में कुछ कडवाहटें थीं। उनका विवाह जबरन बडी उम्र के मेरे पिता से कराया गया था। इसलिए वह अपने मायके से नाराज रहती थीं। मैं हुई तो अपने हर अधूरे सपने को उन्होंने मेरी आंखों में सजा दिया। मेरी शादी हुई, पति डॉक्टर हैं। फिर पहली बेटी हुई। घर में सभी खुश हुए। दूसरी बार प्रेग्नेंट हुई तो रिश्तेदारों का काफी दबाव था मुझ पर। लेकिन दूसरी बार भी बेटी हुई। एम्स में मेरे पति के कई डॉक्टर दोस्त तक हमें समझाने लगे कि कोई बात नहीं, अगली बार बेटा हो जाएगा। मैं तो पढे-लिखे लोगों की सोच पर हैरान थी। तीसरी बार भी बेटी ही हुई। उसने बाद में कई बार मुझसे पूछा, मां, क्या मैं बेटे की चाह में पैदा हुई थी?
तीसरी के जन्म के बाद मैंने पारिवारिक-सामाजिक आयोजनों में जाना ही छोड दिया। हर जगह लोग सवाल करते। यहीं से मेरे भीतर चाह पैदा हुई कि बेटियों को इतना काबिल बनाऊंगी किसबका मुंह बंद हो जाए। तीनों बेटियां पहले ही प्रयास में मेडिकल परीक्षा में उत्तीर्ण हुई। आज सफल डॉक्टर्स हैं। उन्हें मनपसंद जीवनसाथी मिला है। बडी बेटी मेरे फ्लोर के ऊपर वाले फ्लैट में रहती है। बाकी दोनों भी आसपास हैं। मैं जानती हूं कि मेरी हर खुशी व तकलीफ में वे मेरे साथ रहेंगी।
..और कितनी परीक्षाएं
लडकियां भले ही आसमान की बुलंदियों को छू रही हों, लेकिन यह भी सच है कि उन्हें अपने वजूद को साबित करने के लिए बार-बार परीक्षाएं देनी पडती हैं। अल्टरनेटिव इकोनॉमिक सर्वे के आंकडे बताते हैं कि जल्दी ही स्त्री-पुरुष अनुपात को सुधारा न गया तो वर्ष 2020 तक करोडों युवकों को अविवाहित रहना पड सकता है। आंकडे कहते हैं कि हर साल छह लाख लडकियां कोख में ही मार दी जाती हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 940 स्त्रियां हैं। हालांकि लिंग अनुपात पिछले 20 वर्र्षो के मुकाबले अभी बेहतर है। नेपाल में प्रति 1000 पुरुषों पर 1041 स्त्रियां हैं, इंडोनेशिया में 1004, चीन में पुरुष-स्त्री अनुपात 1000:944 है तो पाकिस्तान में 1000:938 है। वर्ल्ड फैक्ट बुक के आंकडे बताते हैं कि अधिकतर विकसित देशों में स्त्रियों की संख्या अधिक है। ब्राजील, अमेरिका, रूस, नाइजीरिया, जापान, फ्रांस, वियतनाम व इजराइल में भी स्त्री-पुरुष अनुपात सही नहीं है।
बेटे की चाहत
ऐसे परिवारों की कमी नहीं है, जहां बेटे की चाह में तीन-चार-पांच बेटियां होती हैं लेकिन ऐसे भी परिवार हैं जहां एक ही बेटी है।
सेव द चिल्ड्रन एनजीओ के अनुसार, लडकियों के लिए खतरनाक देशों में भारत चौथे नंबर पर है। दिल्ली में स्त्री-पुरुष अनुपात सुधरा है, लेकिन बाकी जगह स्थितियां बेहतर नहीं कही जा सकतीं।
समाजशास्त्री ऋतु सारस्वत कहती हैं, समाजशास्त्र में एक कॉन्सेप्ट है जिसे हम संक्रमण-काल (ट्रांजिशनल पीरियड) कहते हैं। इसके बाद समाज समझौतावादी होने लगता है। समाज का नेतृत्व करता है मध्यवर्ग, जिसकी पहली चाह है- बेटा हो। लेकिन बेटी की अवहेलना भी नहीं की जाती। लोग अब सच्चाई स्वीकारने लगे हैं। वे मान रहे हैं कि बेटियां भावुक, संवेदनशील और केयरिंग होती हैं। तीनों विशेषताओं के कारण खासतौर पर पिता की सोच में बदलाव आया है। दूसरी बात यह है कि अगर पडोसी की बेटी लायक निकली तो लोगों की हिम्मत बढती है। बेटियां लायक हैं तो दामाद भी बेटे बन सकते हैं, यह सोच अब काम कर रही है। मैं मानती हूं कि लडकियां अच्छी मैनेजर होती हैं। वे घर-ऑफिस-ससुराल के साथ ही माता-पिता की देखभाल भी कर सकती हैं।
ट्रेंड्स इतने बुरे नहीं
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र विभाग की डॉ. नीलिका महरोत्रा कहती हैं, व्यवस्थित और आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के लिए अब बेटी जिम्मेदारी नहीं रही। एक छोटा समूह तो बेटी गोद लेने की ओर भी बढ रहा है। लेकिन नव-धनाढ्य वर्ग के लिए बेटी जिम्मेदारी है। सरकार के हम दो-हमारा एक वाले नारे के बाद स्थिति यह हुई है कि लोग एक संतान के नाम पर बेटा ही चाहते हैं। हरियाणा में काम करने के दौरान मैंने पाया कि वहां लोग दो-तीन बेटे भले ही चाहें, लेकिन उन्हें बेटियां भी चाहिए। गांवों में 2-3 बेटियां आम बात है। दूसरी ओर पंजाब में स्थिति बुरी है। वहां जमीनों का बंटवारा हुआ, फिर माइग्रेशन हुआ। लोग विदेश जा रहे हैं। ये लोग कम बच्चे चाहते हैं। इनमें बेटे की चाह ज्यादा है। जनगणना में नॉर्थ ईस्ट से भी खतरनाक संकेत मिले हैं। आम लोगों की चिंता अब दहेज से ज्यादा बेटी की सुरक्षा को लेकर है।
सकारात्मक संकेत
नीलिका फिर कहती हैं, सामान्य ट्रेंड्स इतने चिंताजनक नहीं कहे जा सकते। शिक्षा और व्यवस्थित जीवन ने भी स्थितियां बदली हैं। हम स्वयं तीन बहनें हैं। मुझे लगता है कि जिन परिवारों में भाई नहीं होता, वहां लडकियां अधिक स्वतंत्र व जिम्मेदार होती हैं। पेरेंट्स उन्हें मजबूत बनाते हैं। इस दिशा में महिला संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा जहां भी सक्रिय महिला सरपंच हैं, वहां सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। हरियाणा जैसे राज्य में खाप पंचायतों में लडकियां मुखर होकर अपनी बात रख रही हैं। कई महिला सरपंच कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ मुहिम छेड रही हैं।
जरूरत है साझा प्रयासों की ताकि बेटियों को मनचाहा संसार मिल सके। आखिर यह किसी एक व्यक्ति की नहीं, समूची व्यवस्था की समस्या है। बेटी दिवस पर यदि संकल्प ले सकें कि महज विचारों ही नहीं, व्यवहार में भी बेटियों को उनका यथोचित सम्मान देंगे तो यह दिन सार्थक हो सकता है।
मेरी बेटियां तो मेरी प्रिंसेज हैं
धर्मेद्र (अभिनेता और एषा-आहना के पिता)
तमाम दबावों के बावजूद मेरे माता-पिता ने मुझे करियर की राह पर बढने से नहीं रोका। मैंने भी बेटों सनी और बॉबी को यही आजादी दी और एषा-आहना के लिए भी ऐसा ही सोचा। मेरी दोनों बेटियां मेरी राजकुमारियां हैं। उन्होंने जो भी चाहा, उसे पूरा करने की मेरी कोशिश हमेशा रही। एषा ऐक्टिंग में आई तो भी मैंने इसका विरोध नहीं किया। मैं भले ही एक परंपरागत परिवार से आता हूं, लेकिन अपने विचारों में बिलुकल साफ हूं। मेरा मानना है कि बेटों-बेटियों में कोई अंतर नहीं होता। फिल्मों में एषा का आना सबका संयुक्त निर्णय था। बहुत सारी चीजें हमारे बस में नहीं होती हैं। एषा का करियर उतना ब्राइट नहीं रहा, लेकिन मुझे मलाल नहीं है। उसकी शादी हो गई है और मुझे खुशी है कि उसे मनपसंद व समझदार जीवनसाथी मिला है। उसे खुश देख कर मुझे सुकून मिलता है। एक आम पिता की तरह मेरे भी अरमान थे कि बेटी की शादी अच्छी तरह हो। अब एषा अपने घर में सुखी है तो मैं भी खुश हूं। मैं ईश्वर पर भरोसा रखता हूं और आहना के लिए भी दुआ करता हूं कि वह भी जीवन में सफल हो। एक पिता के लिए बच्चों के सुख से बढ कर कुछ नहीं होता।
हम दोनों बेस्ट फ्रेंड्स हैं
मनपिंदर कौर (ऐक्ट्रेस नेहा धूपिया की मां)
नेहा आज एक मुकाम पर है। मुझे उस पर गर्व है और मां होने के नाते मैं चाहती हूं कि वह हमेशा सफलता की नई ऊंचाइयों को छुए। बचपन में वह बहुत प्यारी-शरारती थी। हमने कभी उसे सजा नहीं दी। लेटलतीफी के कारण वह अकसर स्कूल बस मिस करती थी। फिर हम उसे स्कूल छोडने जाते थे और इसी को लेकर उसे डांट पडती थी। नेहा से बडा हमारा एक बेटा भी है, जो मुंबई में ही है। हम दिल्ली में हैं लेकिन अपने बच्चों से लगातार फोन पर संपर्क बनाए रखते हैं। नेहा मुझे ही बेस्ट फ्रेंड मानती है। कई बार वह छोटी-छोटी बातें भी शेयर करती है, लेकिन कई बार परेशानियां भी छिपा लेती है ताकि मैं दुखी न हो जाऊं। मुझे तो लगता है कि बेटियां ज्यादा समझदार और जिम्मेदार होती हैं। वे हमेशा खयाल रखती हैं कि उनकी किसी बात से माता-पिता हर्ट न हों।
निश्छल होता है बेटियों का प्यार
दुष्यंत चौहान (गायिका सुनिधि चौहान के पिता)
मैं तो गर्व से कहता हूं कि मेरा कोई बेटा नहीं है, लेकिन मेरा घर बेटी ने संभाला है। सुनिधि ने मेरा नाम रौशन किया है। जब कोई कहता है कि आप सुनिधि के पिता हैं तो आंखें नम हो जाती हैं। खुद को ज्यादा युवा महसूस करने लगता हूं। एक ऐसे गांव और समुदाय से आने के बाद मुझे यह सब कॉम्पि्लमेंट की तरह लगता है। हम बुलंदशहर (यूपी) में अरनिया के रहने वाले हैं। राजपूतों में बेटा होना सम्मान की बात समझी जाती है। मेरी मां अभी वहीं रहती हैं। सुनिधि जब छोटी थी तो अकसर लोग मुझसे सवाल करते थे कि बेटी ही है? बाद में सुनिधि गायन में आई और लोकप्रिय हो गई। पिता होने के नाते मैं बस यही चाहता था कि वह जहां भी जाए-सफलता की बुलंदियों को छुए। थोडा डरता भी था कि कहीं वह सफल न हुई तो? आखिर, मेरा भरोसा पक्का निकला। पिछले 10-20 सालों में लोगों की सोच बहुत बदली है। मेरा मानना है कि अपने बच्चों को समर्थ बनाएं। आजादी पतंग की तरह होती है। ज्यादा ढील भी न दें और ज्यादा कस कर भी न पकडें। मैंने संतुलित रह कर बेटी की परवरिश की है। सुनिधि ने भी मेरा मान रखा। आज वह सफलता की राह पर आगे बढ रही है और पिता होने के नाते मैं उसकी सफलता की ही कामना करता हूं। बेटी का प्यार निश्छल होता है। मेरा तो यह मानना है कि जिनकी बेटियां होती हैं, वे बुढापे में ज्यादा सुखी होते हैं। मेरा उदाहरण आपके सामने है। मैं 55 वर्ष का हूं। सुनिधि ने शादी जरूर कर ली है, लेकिन इससे वह दूर नहीं हो गई है। उसे पता है कि मां-बाप के प्रति उसकी जिम्मेदारियां क्या हैं? अगर हर संतान यह बात समझ ले तो बेटा-बेटी का भेद ही खत्म हो जाए!
मेरी पहचान है मेरी बेटी
समीर गौर (टीवी कलाकार अविका गौर के पिता)
मेरी नन्ही सी बेटी ने छोटे पर्दे पर खूब नाम कमाया है और जब कोई मुझसे कहता है कि आप अविका के पिता हैं तो लगता है, मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब पिता हूं। जी चाहता है एफिल टावर पर चढकर अपनी खुशी का इजहार करूं। मैं चाहूंगा कि भगवान हर किसी को अविका जैसी बेटी दे। वह इतनी पॉपुलर है, लेकिन उसमें बहुत गंभीरता है। इसलिए इतनी कम उम्र में सफलता को सहेज पा रही है। महज 15 साल की उम्र में ऐसी सोच दर्शाती है कि मेरी मेहनत व्यर्थ नहीं गई। वह जब छोटी थी, तभी से उसकी प्रतिभा हम महसूस करने लगे थे। बचपन से ही उसमें सीखने की ललक ज्यादा थी। मेरे परिवार में भी कभी बेटियों को कमतर नहीं समझा गया। मेरी तीन बडी बहनें हैं। मैं प्रोग्रेसिव विचारों वाला हूं। बेटी को पूरी आजादी देना चाहता हूं। मैंने खुद प्रेम विवाह किया है। इसलिए भविष्य में कभी अविका अपना जीवनसाथी स्वयं चुनना चाहेगी तो मैं उसे नहीं रोकूंगा। मैं नहीं मानता कि सिर्फ बेटा ही बुढापे का सहारा बन सकता है। अगर बेटियां भी अपने पांव पर खडी हैं तो वे भी माता-पिता को सपोर्ट देती हैं। अब जमाना तेजी से बदल रहा है। लडकियों की परवरिश भी अच्छी तरह हो रही है और उनके पास अवसरों की कमी नहीं है। मैं तो लोगों से यही अपील करूंगा कि बेटियों को पूरा मौका दें, फिर देखें कितनी सफल होती हैं वे।
हर तकलीफ में सहारा देती है बेटी
गीता महतो (तीरंदाज दीपिका कुमारी की मां) मैं एक नर्स हूं और पति ऑटो चालक। हमारी दो बेटियां और एक बेटा है। सबसे बडी है दीपिका। तीन साल की थी तो एक बार रक्षाबंधन के मेले से घर लौटते हुए रास्ते में एक खिलौना हेलीकॉप्टर देख कर उसने जिद पकड ली कि इसे लेकर रहेगी। हमने उसके लिए खिलौना खरीद लिया तो उसने तुरंत प्लेन का दरवाजा खोला और बोली, इसमें पापा-मम्मी बैठेंगे और मैं पायलट बनूंगी..। मुझे तभी लग गया था कि यह लडकी बडी होकर मेरा नाम रौशन करेगी। जिद्दी बहुत थी। स्कूल जाने में रोती भी बहुत थी, फिर डांट खाती थी। अब तो वह हमें ही डांटती है, कई बार उसी की बातें माननी पडती हैं हमें। 13 साल की थी तो नानी के घर गई थी गर्मियों की छुट्टी में। लोहरदगा जिले में एक तीरंदाजी प्रतियोगिता चल रही थी। दीपिका वहां गई। घर लौट कर उसने जिद पकड ली कि उसे तीरंदाजी सीखनी है। कोच का फोन नंबर भी ले आई। उसकी जिद देखकर हमने टेस्ट दिलाया लेकिन उसका चयन नहीं हो सका। मगर उसने हार नहीं मानी, कोचिंग लेनी शुरू की। कोच से तीन महीने का समय मांगा। तीन महीने बाद दोबारा टेस्ट में उसका सलेक्शन हो गया। पहली बार जीती तो बतौर इनाम 50 हजार रुपये मिले। वह बच्चों की तरह खुश होकर बोली, इससे तो हम घर बना लेंगे न मां। कॉमनवेल्थ गेम्स में उसने दो गोल्ड जीते। लंदन ओलिपिंक्स में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। लेकिन खेल में हार-जीत लगी रहती है। मैं बस यही कहती हूं कि आज के समय में बेटा-बेटी समान हैं। उनकी समान परवरिश करना-अच्छे संस्कार देना हर मां-बाप का फर्ज है। बेटियां कभी माता-पिता को तकलीफ में नहीं देख सकतीं। मेरी यही कामना है कि दीपिका हर परीक्षा में सफल हो। मेरी छोटी बेटी अभी इंटरमीडिएट में है। सबसे छोटा बेटा है। उन दोनों को भी स्पोर्ट्स में रुचि है। मैं तीनों बच्चों को सफल होते देखना चाहती हूं।
एक बेटी ऐसी भी
मैं नहीं जानती कि बेटा-बेटी का भेद क्या होता है। मैं पापा की सांसें हूं तो मां की धडकन। उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा का अवसर दिया, ताकि मैं स्वावलंबी बन सकूं। लेकिन मम्मी-पापा आए दिन हो रही घटनाओं से चिंतित रहते हैं। मुझे भी यह सब देख कर बहुत तकलीफ होती है। दहेज, बलात्कार, घरेलू हिंसा जैसी घटनाएं मुझे आहत करती हैं। जागरण पहल के कार्यक्रम से जुडने के बाद मैंने महिलाओं के अधिकारों, कानूनों के बारे में जाना। मैं मिनी ग्रांट योजना से जुडी, जिसके तहत मैंने अपने कॉलेज में निबंध, पेंटिंग, नुक्कड नाटक और स्वास्थ्य जांच शिविर जैसे तमाम कार्यक्रम आयोजित कराने में भागीदारी निभाई। जहां पहले मैं सिर्फ अपनी दुनिया में खोई रहती थी, अब उत्पीडन, शोषण और अन्याय के ख्िालाफ मुहिम में शामिल हूं। मैं चाहती हूं कि एक सुरक्षित-स्वस्थ समाज का निर्माण हो। मुझे विश्वास है कि स्त्रियों को पूजने वाली हमारी संस्कृति में उन्हें इंसान के बतौर भी सम्मान मिलेगा। गुडिया (जागरण पहल द्वारा संचालित कार्यक्रम सपनों को चली छूने की प्रतिभागी और पटना (बिहार) के गंगा देवी महाविद्यालय में हिंदी प्रतिष्ठा की छात्रा)
बेटी के जन्म पर हम जश्न मनाते हैं
कावेरी पोनप्पा (बैडमिंटन प्लेयर अश्विनी पोनप्पा की मां)
अश्विनी हमारी दूसरे नंबर की संतान है। बचपन से ही वह हाइपर-एक्टिव थी। मैं और मेरे पति दोनों बैंक अधिकारी हैं। मेरे लिए जरूरी था कि उसे किसी एक्टिविटी में व्यस्त रखूं। इसलिए उसे बैडमिंटन खेलने को प्रेरित किया। छह साल की थी तो एक समर कैंप जॉइन किया। तब हम बैंगलोर में थे। सात साल की उम्र में हमने उसकी प्रोफेशनल ट्रेनिंग शुरू करा दी थी। पहले कोच उमापति थे। वह अश्विनी को बहुत प्रोत्साहित करते थे। दुर्भाग्य से कैंसर से उनकी मौत हो गई। इसके बाद उसे प्रकाश पदुकोण की अकेडमी में एडमिशन दिलाया गया। वह जूनियर चैंपियनशिप जीती। फिर हमारा ट्रांस्फर हैदराबाद हो गया तो वहां ट्रेनिंग शुरू हो गई। वर्ष 2006 में हुए साउथ एशियन गेम्स में उसने गोल्ड जीता। कॉमनवेल्थ गेम्स में ज्वाला गुत्र और उसकी जोडी ने विमेंस डबल्स में गोल्ड जीता। हाल में ही हुए लंदन ओलिपिंक्स में इनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा। मुझे उम्मीद है आगे वह अच्छा खेलेगी। बचपन में इतनी शरारती होने के बावजूद मैंने उसे कभी नहीं डांटा। मेरा बेटा भी अच्छा खेलता है, लेकिन वह इंजीनियरिंग में जाना चाहता है। बच्चे जिस भी फील्ड में जाना चाहें, पेरेंट्स को उन्हें सपोर्ट करना चाहिए। मैं बेटा-बेटी को समान रूप से देखती हूं। हम लोग कर्नाटक की जिस कम्युनिटी से आते हैं, वहां लडकी के जन्म पर खूब जश्न मनाया जाता है। इसलिए हमारे लिए तो लडकी खुशी का पैगाम है। हर बेटी माता-पिता की आंख का तारा होती है।
हर भूमिका में खरी उतरती हैं बेटियां
कामिनी खन्ना (टीवी कलाकार रागिनी खन्ना की मां)
असल जिंदगी में लडकियां इतने किरदार निभाती हैं कि उनसे प्यार होना लाजिमी है। वे चाहे बेटी, बहू या बीवी हों, परिवार को शांति से चलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बचपन में मां-बाप, फिर सास-ससुर व पति और बुढापे में अपने बच्चों से भावनात्मक रूप से जुडी रहती हैं। एक मां होने के नाते मैं इस बात को अच्छी तरह समझ सकती हूं। दूसरी वजह है कि बेटियां इतनी प्यारी और कोमल होती हैं कि उन पर प्यार आना व उनका खयाल रखना स्वाभाविक है। मैं मूल रूप से पंजाब की हूं, हमारे यहां लडकियों को बहुत सम्मान नहीं दिया जाता। लेकिन मैं रागिनी के जन्म पर बहुत खुश थी। डॉक्टर ने मुझसे कहा कि आपके घर इंदिरा गांधी आई है। मैंने रागिनी को कभी लडकी होने का एहसास नहीं होने दिया। उसमें लडकों वाले गुण ज्यादा हैं। वह कभी सजती-संवरती नहीं, गहने नहीं पहनती, किचन में नहीं जाती। मैं भी उससे कहती हूं कि तुम्हें रजनीकांत की तरह बनना है। वह सुलझी हुई संस्कारी लडकी है। ग्लैमर इंडस्ट्री में होने के बावजूद स्टारडम उस पर हावी नहीं हुआ। उसने कभी आजादी का बेजा फायदा नहीं उठाया। सफल होने का मतलब यह नहीं है कि बडों की बात ही न मानो और अपनी ही मर्जी से चलो। मैं मानती हूं कि जिनकी बेटियां होती हैं, वे बुढापे में औरों की तुलना में ज्यादा सुखी रहते हैं। पंजाब के गांवों में भी मैंने देखा है कि बेटियों के माता-पिता अधिक खुश हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। यह विचित्र स्थिति है।
साक्षात्कार : मुंबई से अमित कर्ण और दुर्गेश सिंह