सांवली सलोनी सी एक लड़की
दुनिया भर में स्त्रियों के लिए सुंदरता के कुछ मापदंड निर्धारित हैं। इन्हीं के आधार पर किसी को अधिक या कम सुंदर माना जाता है। त्वचा की रंगत ऐसा ही पैमाना है, जिसमें गोरे रंग को प्रमुखता हासिल है।
पर काम करने वाली एक इंडिपेंडेंट लडकी थी लेकिन हर मोड पर उसे इस बात का एहसास कराया जाता था कि उसका रंग सांवला है। वह भले ही करियर में ऊंचे मुकाम हासिल कर ले लेकिन अच्छे जीवनसाथी की रेस में उसे पीछे ही रहना पडेगा। इस बात का एहसास उसे किसी और ने नहीं, बल्कि पेरेंट्स ने ही करवाया और यह बात उस समय सही भी साबित हो गई, जब शादी के लिए उसे देखने आए लडकों ने उसके गुणों या उपलब्धियों की जगह उसके रंग को तरजीह देते हुए उसे रिजेक्ट कर दिया, जिसका सोनिया के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पडा।
कडवा है यह सच विकास-पथ की अंधी दौड में भागते अपने देश का यह वह कडवा सच है, जहां सोनिया जैसी न जाने कितनी लडकियों को अपनी सांवली रंगत की वजह से तिरस्कृत होना पडता है। यह सिर्फ किसी एक सोनिया की कहानी नहींहै। फिल्म ऐक्ट्रेस नंदिता दास को भी अपने रंग के कारण काफी कुछ झेलना पडा। वह बताती हैं, 'फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद रंग को लेकर भेदभाव मुझे ज्यादा महसूस हुआ। कई डायरेक्टर और कैमरा पर्सन्स मुझसे कहते कि पढी-लिखी, उच्च वर्ग की स्त्री का किरदार है तो आपकी त्वचा को लाइटर करना होगा। बताइए जब यह सब मेरे साथ हो सकता है तो किसी आम स्त्री के साथ क्या होता होगा? हालांकि माता-पिता ने मुझे इन सबसे दूर रखा लेकिन रिश्तेदार कई बार सहानुभूति में कहते कि बेचारी सांवली है लेकिन नैन-नक्श अच्छे हैं।
कुछ रिश्तेदारों ने तो यहां तक भी सुझाव दिए कि धूप में ज्यादा मत निकला करो, रंग और गहरा हो जाएगा। ऐसी बातों के बाद शायद मेरे मन में भी वैसे ही विचार पनप जाते और मैं सोचती कि मैं शायद सुंदर नहीं हूं लेकिन इसके लिए मैं अपने पेरेंट्स का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी कि उन्होंने मुझे इस तरह के विचारों से प्रभावित नहीं होने दिया। मैं कैसी दिखती हूं, यह उनके लिए महत्वहीन चीज थी। मैंने कई बार परिजनों के मुंह से सुना है, अभागी काली लडकी उसके इतने अच्छे नैन-नक्श हैं, बस गोरी होती तो इसके बाद मिलियन डॉलर का ऑफर आता... कौन एक काली लडकी से शादी करेगा उसके लिए अच्छा लडका ढूंढना मुश्किल हो जाएगा।
डार्क इज ब्यूटीफुल लडकियों के साथ होने वाले इस भेदभाव के कारण 'विमेन ऑफ वर्थ संगठन की निदेशक और संस्थापक कविता इमैन्युएल ने वर्ष 2009 में 'डार्क इज ब्यूटीफुल अभियान चलाया। इस अभियान से जुडी सुनीता सैमुअल कहती हैं कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती, समाज में यह बात बहुत गहराई तक पैठी हुई है। भारत में इसकी जडें कहीं न कहीं इसके इतिहास और संस्कृति में धंसी हुई हैं। माना जाता है कि कुलीन वर्ग के लोग गोरे और निम्न वर्ग के लोग सांवले होते हैं। अंग्रेजों को साहब या मेमसाहब की तरह देखना भी आदत का हिस्सा बन गया है। शादी के लिए लडकी देखते समय लडका चाहे जैसा हो, लडकी गोरी और स्लिम होनी चाहिए। प्रीति वशिष्ठ बताती हैं, 'ब्रिटेन के एक डॉक्टर का मेरी सहकर्मी के लिए रिश्ता आया। डॉक्टर स्वयं व्हील चेयर पर था, मेरी सहयोगी ने फिर भी रिश्ता स्वीकार किया लेकिन लडके ने बाद में इसलिए शादी से मना कर दिया कि लडकी गोरी नहीं थी।
गोरी नहीं तो शादी नहीं समाज की इसी सोच ने लडकियों को अपनी सांवली रंगत पर सोचने को मजबूर कर दिया है। वास्तव में रंगभेद का आईना हमें समाज के उस अक्स से रूबरू करवाता है, जहां सभी जगहों पर गोरी बहुओं की तलाश जारी है। रविवार के अखबार में प्रकाशित होने वाले वैवाहिक विज्ञापनोंकी भाषा आज भी बदली नहीं है। यहां बोल्ड शब्दों में लिखा होता है, 'मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत लडके के लिए गोरी-सुंदर लडकी चाहिए। चूंकि आज भी भारतीय समाज की पहचान एक पितृसत्तात्मक समाज के तौर पर होती है और यहां लडकियों को घर संभालने का साधन मात्र समझा जाता है। ऐसे में इन विज्ञापनों को देखकर साफ जाहिर होता है कि अपने बेटे के लिए हम जिस लक्ष्मी का चुनाव कर रहे हैं, उसमें घर चलाने के गुण भले ही न हों पर, उसकी रंगत गोरी होनी जरूरी है।
रंग नहीं उपलब्धि देखें रंग के आधार पर लडकियों के साथ भेदभाव भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में होता आया है। नेपाली मॉडल वर्षा थापा बताती हैं, 'मैं न्यूयॉर्क फैशन वीक के लिए ऑडिशन दे रही थी लेकिन मेरी वॉक को देखे बिना ही मुझे मेरी डार्क स्किन की वजह से रिजेक्ट कर दिया गया।
दशकों से लडकियों को उनके रंग के कारण भेदभाव का सामना करना पड रहा है। आर्थिक आत्मनिर्भरता की भी इस सामाजिक रूढि को बदलने में कोई भूमिका नजर नहीं आती। अस्सी के दशक में अपनी बेहतरीन अदाकारी से स्मिता पाटिल ने भले दी दर्शकों का दिल जीत लिया हो लेकिन उनकी पीठ पीछे लोग स्मिता को काली कहकर ही संबोधित करते थे।
इस बारे में स्त्रियों के हक के लिए संघर्षरत कविता कृष्णन कहती हैं, 'समाज की सोच तभी बदलेगी, जब लोग यह बात समझ सकेंगे कि सुंदरता का त्वचा के रंग से कोई लेना देना नहीं है या फिर तब, जब समाज स्त्रियों और लडकियों को इंसान समझने लगेगा। उन्हें सिर्फ शरीर के तौर पर नहीं, बल्कि उनकी खूबियों से पहचाना जाएगा। तभी वे जान सकेंगे कि लडकियां उनकी त्वचा के रंग से कहीं ज्यादा हैं।
दुख नहीं जश्न मनाएं अब वक्त आ गया है इस सोच को बदलने का। फेयरनेस क्रीम्स वाली सोच से बहुत आगे निकल आई हैं लडकियां और वे अपने स्किन टोन पर नाज करती हैं, वे प्रकृतिप्रदत्त सुंदरता को स्वीकार करने का दम रखती हैं। काला या गोरा... महज एक रंग ही है। जब काला रंग फैशन में छा सकता है तो चेहरे पर इसका होना लोगों को क्यों स्वीकार्य नहीं? किसी व्यक्ति की पहचान उसके रंग से नहीं, उसके व्यक्तित्व और उपलब्धियों से होती है। ओप्रा विनफ्रे और मिशेल ओबामा जैसे न जाने कितने नाम हमारे सामने हैं, जिन्होंने अपने रंग को कभी अपनी सफलता की राह में रोडा नहीं बनने दिया। यही बात समझने की जरूरत है।