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लोककथा: बुद्धि बड़ी या पैसा

राजा सिर से पैर तक पैसे के मद में डूबा था; परंतु उसकी रानी बड़ी बद्विमती थी। वह पैसे को तुच्छ और बुद्वि को श्रेष्ठ समझती थी। रानी की चतुराई के कारण राज का सब काम-काज ठीक रीति से चलता था।

By Babita KashyapEdited By: Published: Fri, 25 Nov 2016 02:30 PM (IST)Updated: Fri, 25 Nov 2016 02:38 PM (IST)
लोककथा: बुद्धि बड़ी या पैसा

किसी देश में एक राजा राज करता था। उसके लिए पैसा ही सबकुछ था। वह सोचता था कि पैसे के बल पर दुनिया के सब काम-काज चलते हैं। 'तांबे की मेख तमाशा देख, कहावत झूठ नहीं है। मेरे पास अटूट धन है, इसीलिए मैं इतने बड़े देश पर राज करता हूं। लोग मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। चाहूं तो अभी रुपयों की सड़क तैयार करा दूं। आसमान में सिर उठाये खड़े इन पहाड़ों को खुदवाकर फिकवा दूं। पैसे के बूते पर मेरे पास एक जबरदस्त फौज है। उसके द्वारा किसी भी देश को क्षण-भर में कुचल सकता हूं। वह सबसे यही कहता था कि इस संसार में धर्म-कर्म, स्त्री-पुत्र, मित्र-सखा सब पैसा ही है।

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राजा सिर से पैर तक पैसे के मद में डूबा था; परंतु उसकी रानी बड़ी बद्विमती थी। वह पैसे को तुच्छ और बुद्वि को श्रेष्ठ समझती थी। रानी की चतुराई के कारण राज का सब काम-काज ठीक रीति से चलता था। उसका कहना था कि दुनिया पैसे के बूते उतनी नहीं चलती, जितनी बुद्वि के बूते पर। लेकिन राजा के सामने साफ बात कहने में संकोच करती थी।

एक दिन राजा ने पूछा, रानी, सच कहो, दुनिया में बुद्वि बड़ी या पैसा?

रानी बड़े असमंजस में पड़ी। सोचने लगी, सत्य का मुख रूखा होता है। राजा के मन में जो पैसे का मूल्य बसा था, उसे वह अच्छी तरह जानती थी। कुछ उत्तर तो देना ही था। वह बोली, 'महाराज, यदि आप सच पूछते हैं तो मैं बुद्वि को बड़ा समझती हूं। बुद्वि से ही पैसा आता है। और बुद्वि से ही सब काम चलते हैं। बुद्वि न हो तो सब खजाने योंही लुट जाते हैं-राजपाट चौपट हो जाते हैं।'

पैसे की इस प्रकार निंदा सुनकर राजा को बहुत गुस्सा आया। बोला, 'रानी तुम्हें अपनी बुद्वि का बड़ा घमंड है। मैं देखना चाहता हूं कि तुम बिना पैसे के बुद्वि के सहारे कैसे काम चलाती हो? ऐसा कहकर उसने रानी को नगर के बाहर एक मकान में रख दिया। सेवा के लिए दो-चार नौकर भेज दिये। खर्च के लिए न तो एक पैसा दिया और न किसी तरह का कोई सामान रानी के शरीर पर जो जेवर थे, वे भी उतरवा लिये। रानी मन-ही-मन कहने लगी कि मैं एक दिन राजा को दिखा दूंगी कि संसार में बुद्वि भी कोई चीज है, पैसा ही सब कुछ नहीं है।

नये मकान में पहुंचकर रानी ने नौकर द्वारा कुम्हार के अवे से दो ईंटें मंगवाईं और उन्हें सफेद कपड़े में लपेटकर ऊपर से अपने नाम की मुहर लगा दी। फिर नौकर को बुलाकर कहा, तुम मेरी इस धरोहर को धन्नू सेठ के घर ले जाओ। कहना, रानी ने यह धरोहर भेजी है, दस हजार रुपये मंगाये हैं। कुछ दिनों में तुम्हारा रुपया मय सूद के लौटा दिया जायगा और धरोहर वापस कर ली जायगी।

नौकर सेठ के यहां पहुंचा। धरोहर पर रानी के नाम की मुहर देखकर सेठ समझा कि इसमें कोई कीमती जेवर होंगे। उवसे दस हजार रुपया चुपचाप दे दिया। रुपया लेकर नौकर रानी के पास आया। रानी ने इन रुपयों से व्यापार शुरू किया। नौकर-चाकर लगा दिये। रानी देख-रेख करने लगी। थोड़े ही दिनों में उसने इतना पैसा पैदा कर लिया कि सेठ का रुपया चुक गया और काफी पैसा बच रहा। इस रुपये से उसने गरीबों के लिए मुफ्त दवाखाना, पाठशाला तथा अनाथालय खुलवा दिये। चारों ओर रानी की जय-जयकार होने लगी। शहर के बाहर रानी के मकान के आसपास बहुत-से मकान बन गये और वहां अच्छी रौनक रहने लगी।

इधर रानी के चले जाने पर राजा अकेला रहा गया। रानी थी तब वह मौके के कामों को संभाले रहती थी। राजकाज में उचित सलाह देती थी। धूर्तों की दाल उसके सामने नहीं गलने पाती थी। अब उसके चले जाने पर धूर्तों की बन आई। धूर्त लोग आ-आकर राजा को लूटने लगे। अंधेरगर्दी बढ़ गई। नतीजा यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में खजाना खाली हो गया। स्वार्थी कर्मचारी राज्य की सब आमदनी हड़प जाते थे। अब नौकरों का वेतन चुकाना कठिन हो गया। राज्य की ऐसी दशा देख राजा घबरा गया। वह अपना मन बहलाने के लिए राजकाज मंत्रियों को सौंपकर देशाटन के लिए निकल पड़ा।

जाते समय नगर के बाहर ही उसे कुछ ठग मिले। उनमें से एक काना आदमी राजा के पास आकर बोला, 'महाराज, मेरी आंख आपके यहां दो हजार में गिरवी रखी थी। वादा हो चुका है। अब आप अपने रुपये लेकर मेरी आंख मुझे वापस कीजिये।Ó

राजा बोला, 'भाई, मेरे पास किसी की आंख-वांख नहीं है। तुम मंत्री के पास जाकर पूछो।Ó

ठग बोला, 'महाराज, मैं मंत्री को क्या जानूं? मैंने तो आपके पास आंख गिरवी रखी थी, आप ही मेरी आंख दें। जब बाड़ ही फसल खाने लगी तब रक्षा का क्या उपाय? आप राजा हैं, जब आप ही इंसाफ न करेंगे तो दूसरा कौन करेगा? आप मेरी आंख न देंगे तो आपकी बड़ी बदनामी होगी?

राजा बड़ा परेशान हुआ। बदनामी से बचने के लिए उसने जैसे-तैसे चार हजार रुपये देकर उसे विदा किया। कुछ दूर आगे चला था कि एक बूचा आदमी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। पहले के समान वह भी कहने लगा, 'महाराज, मेरा एक कान आपके यहां गिरवी रखा था। रुपया लेकर मेरा कान मुझे वापस कीजिये।Ó राजा ने उसे भी रुपया देकर विदा किया। इस प्रकार रास्ते में कई ठग आये और राजा से रुपया ऐंठकर चले गये। जो कुछ रुपया-पैसा साथ लाये थे, वह ठगों ने लूट लिया। वह खाली हाथ कुमारी चौबोला के देश में पहुंचे।

कुमारी चौबोला उस देश की राजकन्या थी। उसका प्रण था कि जो आदमी मुझे जुए में हरा देगा उसी के साथ विवाह करूंगी। राजकुमारी बहुत सुन्दर थी। दूर-दूर के लोग उसके साथ जुआ खेलने आते थे और हार कर जेल की हवा खाते थे। सैकड़ों राजकुमार जेल में पड़े थे।

मुसीबत के मारे यह राजा साहब भी उसी देश में आ पहुंचे। चौबोला की सुन्दरता की खबर उनके

कानों में पड़ी तो उनके मुंह में पानी भर आया। उनकी इच्छा उसके साथ विवाह करने की हुई। राजकुमारी ने महल से कुछ दूरी पर एक बंगला बनवा दिया था। विवाह की इच्छा से आनेवाले लोग इसी बंगले में ठहरते थे। राजा भी उस बंगले में जा पहुंचा। पहरेदार ने तुरंत बेटी को खबर दी। थोड़ी देर बाद एक तोता उड़कर आया और राजा की बांह पर बैठ गया। उसके गले में एक चिटठी बंधी थी, जिसमें विवाह की शर्तें लिखी थीं। अंत में यह भी लिखा था कि यदि तुम जुए में हार गये तो तुम्हें जेल की हवा खानी पड़ेगी। राजा ने चिटठी पढ़कर जेब में रख ली।

थोड़ी देर बाद राजा को राजकुमारी के महल में बुलाया गया। जुआ शुरू हुआ और राजा हार गया। शर्त के अनुसार वह जेल भेज दिया गया।

राजा की हालत बिगडऩे और नगर छोड़कर चले जाने का समाचार जब रानी को मालूम हुआ तो उसे बहुत दु्र:ख हुआ। राजा का पता लगाने वह भी परदेश को निकली। कुछ ही दूर चली थी कि वही पुराने ठग फिर आ गये। सबसे पहले वही काना आया। कहने लगा, रानी साहब, आपके पास मेरी आंख दो हजार में गिरवी रखी थी। आप अपना रुपया लेकर मेरी आंख वापस दीजिये।

रानी बोली, बहुत ठीक, मेरे पास बहुत-से लोगों की आंखें गिरवी रखी हैं, उन्हीं में तुम्हारी भी होगी। एक काम करो। तुम अपनी दूसरी आंख निकालकर मुझे दो। उसके तौल की जो आंख होगी, वह तुम्हें दे दी जायगी।Ó

रानी का जवाब सुनकर ठग की नानी मर गई। वह बहुत घबराया। रानी बोली, 'देर मत करो। दूसरी आंख जल्दी निकालो। उसी के तौल की आंख दे दी जायगी।Ó

ठग हाथ-पैर जोड़कर माफी मांगने लगा। बोला, 'सरकार, मुझे आंख-वांख कुछ नहीं चाहिए। मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।Ó

रानी बोली, 'नहीं, मैं किसी की धरोहर आपने पास रखना उचित नहीं समझती। तुम जल्दी अपन आंख निकालकर मुझे दो, नहीं तो सिपाहियों से कहकर निकलवा लूंगी।Ó

अंत में ठग ने विनती करके चार हजार रुपया देकर अपनी जान बचायी। यही हाल बूचे का हुआ। जब उसने देखा कि रानी का नौकर दूसरा कान काटने ही वाला है तो उसने भी चार हजार रुपया देकर रानी से अपना पिंड छुड़ाया।

ठगों से निपटकर रानी आगे बढ़ी और पता लगाते-लगाते कुमारी चौबाला के देश में जा पहुंची। राजा के जेल जाने का समाचार सुनकर उसे दु:ख हुआ। अब वह राजा को जेल से छुड़ाने का उपाय सोचने लगी। उसने पता लगाया कि रानी चौबीला किस प्रकार जुआ खेलती है। सारा भेद समझकर उसने पुरुष का भेष बनाया और बंगले पर जा पहुंची। पहरेदार ने खबर दी। थोड़ी देर में तोता उड़कर आया। रानी ने उसके गले से चिटठी खोलकर पढ़ी। कुछ समय बाद बुलावा आया।

रानी पुरुष-वेश में कुमारी चौबोला के महल में पहुंची। इन्हें देखकर चौबोला का मन न जाने क्यों गिरने लगा। उसे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं इस राजकुमार को जीत न सकूंगी। खेलने के लिए चौसर डाली गई। कुमारी चौसर खेलते समय बिल्ली के सिर पर दीपक रखती थी। बिल्ली को इस प्रकार सिखाया गया था कि कुमारी का दांव जब ठीक नहीं पड़ता था और उसे मालूम होता था कि वह हार रही है, तब वह बिल्ली के सिर हिलाने से दीपक की ज्योति डगमगाने लगती थी। इसी बीच वह अपना पासा बदल देती थी। रानी यह बात पहले ही सुन चुकी थी। बिल्ली का ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने एक चूहा पाल लिया था और उसे अपने कुर्ते की बांह में छिपा रखा था। चौसर का खेल खेलने लगा। खेलते-खेलते कुमारी जब हारने लगी तब उसने बिल्ली को इशारा किया। रानी तो पहले से ही सजग थी। इसके पहले ही उसने अपनी आस्तीन से चूहा निकालकर बाहर कर लिया। बिल्ली की निगाह अपने शिकार पर जम गई। राजकुमारी के इशारे का उस पर कोई असर नहीं हुआ। राजकुमारी के बार-बार इशारा देने पर भी बिल्ली टस-से-मस न हुई। निदान राजकुमारी हार गई। तुरंत सारे नगर में खबर फैल गयी। राजकुमारी के विवाह की तैयारियां होने लगीं। रानी बोली, 'विवाह तो शर्त पूरी होते ही हो गया। रहा भांवरें पडऩे का दस्तूर, वह घर चलकर कर लिया जायगा। वहीं से धूम-धाम के साथ शादी की जायगी।'

चौबोला राजी हो गई। पुरुष वेशधारी रानी बोली, 'एक बात और है। यहां से चलने से पहले उनसब लोगों को, जिन्हें जेल में डाल रखा है, छोड़ दो। लेकिन पहले एक बार उन सबको मेरे सामने बुलाओ।'

कैदी सामने लाये गए। हरेक कैदी की नाक छेदकर कौड़ी पहनाई गई थी। सबके हाथ में कोल्हू हांकने की हंकनी और गले में चमड़े का खलीता पड़ा था। इस खलीते में उनके खाने के लिए खाली रखी जाती थी। खलीते पर हर कैदी का नाम दर्ज था। इन्हीं कैदियों के बीच रानी के पति (राजासाहब) भी थे। रानी ने जब उनकी दशा देखी तो उसका जी भर आया। उसने अपने मन के भाव को तुरंत छिपा लिया। सब कैदियों की नाक से कौड़ी निकाली गइ। नाई बुलाकर हजामत बनवाई गई। अच्छे कपड़े पहनाकर उत्तम भोजन कराके उनको छुटटी दे दी गई। राजा ने राजकुमार की जय बोलकर सीधी घर की राह पकड़ी।

दूसरे दिन सवेरे रानी राजकुमारी चौबोला को विदा कराकर हाथी-घोड़े, दास-दासी और धन-दहेज के साथ अपने नगर को चली। रानी पुरुष-वेश में घोड़े पर बैठी आगे-आगे चल रही थी। पीछे-पीछे चौबोला की पालकी चल रही थी। कुछ दिन में वह अपने नगर में आ पहुंची और नगर के बाहर अपने बंगले में ठहर गई।

राजा जब लौटकर अपने नगर में आये तो देखते क्या हैं कि रानी के मकान के पास औषधालय, पाठशाला, अनाथालय आदि कई इमारतें बनी हैं, देखकर राजा अचंभे में आ गया। सोचने लगा, रानी को मैंने एक पैसा तो दिया नहीं था, उसने ये लाखों की इमारतें कैसे बनवा लीं। पैसे का महत्व उसकी नजरों में अभी तक वैसा ही बना हुआ था।

संध्या-समय उसने रानी को बुलवाया, पूछा, 'कहो रानी, अब भी तुम्हारी समझ में आया कि बुद्वि बड़ी होती या पैसा?'

रानी कुछ नहीं बोली। चुपचाप उसने राजा के नाक की कौड़ी, खलीता, हंकन और खली का टुकड़ा सामने रख दिया। राजा विस्मित होकर रह गया। सोचने लगा, ये चीजें इसे कहां से मिलीं। इतने में रानी कुमारी चौबोला को बुलाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। अब राजा की आंखें खुलीं। वह समझ गये कि चौबोला की कैद से छुड़ाने वाला राजकुमार और कोई नहीं, उसकी बुद्विमती रानी ही थी।

राजा ने लज्जित होकर सिर नीचा कर लिया। फिर कुछ देर सोचकर कहने लगा, 'रानी, अभी तक मैं बड़ी भूल में था। तुमने मेरी आंखें खोल दीं। अभी तक मैं पैसे को ही सब कुछ समझता था, पर आज मेरी मसझ में आया कि बुद्वि के आगे पैसा कोई चीज नहीं है।'

शुभ मुहूर्त में चौबोला का विवाह राजा के साथ धूमधाम के साथ हो गया। दोनों रानियां हिल-मिलकर आनंदपूर्वक रहने लगीं।

लेखक-शिव सहाय चतुर्वेदी

साभार: साहित्यदर्शन.कॉम

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