Rajasthan: पारस किन्नर की कहानी, पहले लोग नफरत करते थे, अब गौसेवा करके बनी सबकी 'बुआ'
पारसमणि बुआ के गौ सेवा संस्थान में चार दर्जन से अधिक गौ वंश के अलावा ऐसे कुत्ते और बिल्ली भी रखे गए हैं जिन्हें देखभाल की जरूरत थी। पारसमणि को किसी घायल जानवर के बारे में सूचना मिलती है वह उसे अपने संस्थान में लाती है उनका उपचार कराती है।
उदयपुर, सुभाष शर्मा। राजसमंद जिला मुख्यालय से समीप गुंजोल गांव की किन्नर पारसमणि गुजरे जमाने को याद नहीं करना चाहती। उसे लोग नफरत से देखते थे। किन्तु पशु प्रेम ने उनकी जिंदगी ही बदल दी। पशुओं विशेषकर गौ-सेवा के प्रति उनके प्रेम ने उनकी पहचान ही बदल दी। अब लोग उन्हें किन्नर पारस के नाम से नहीं, बल्कि 'बुआ' के नाम से जानते हैं। गुंजोल के सरकारी स्कूल के पास पारसमणि का गौ सेवा संस्थान संचालित है, जिसे उन्होंने अपने निजी खर्चे से शुरू किया। इन दिनों बुआ के संस्थान से कई लोग जुड़ चुके हैं।
पारसमणि बुआ के गौ सेवा संस्थान में चार दर्जन से अधिक गौ वंश के अलावा ऐसे कुत्ते और बिल्ली भी रखे गए हैं, जिन्हें देखभाल की जरूरत थी। पारसमणि को किसी घायल जानवर के बारे में सूचना मिलती है, वह उसे अपने संस्थान में लाती है और वहां उनका उपचार कराती है। उनके स्वस्थ्य होने पर उन्हें उस जगह छोड़ दिया जाता, जहां से उन्हें लाया जाता। हालांकि कुछ पशु तो उनके पालतू हो गए हैं और अब वहां से जाना ही नहीं चाहते।
पारसमणि बताती है कि किन्रर के रूप में जीवन बेहद मुश्किल लगता था। दैनिक खर्चे के लिए घर-घर या प्रतिष्ठानों पर जाकर पैसा मांगने पर लोग नफरत करते थे। इस बीच रास्ते में ऐसे जानवरों को देखकर दुख होता, जिन्हें वास्तव में मदद की जरूरत थी। इनमें अकसर गौ वंश की स्थिति ज्यादा दयनीय लगती, जिन्हें लोग अनुपयोगी या कम उपयोगी होने पर सड़क पर छोड़ देते। उसने ठान लिया कि वह ऐसे जानवरों के लिए काम करेगी। पहले लोगों ने उसके काम का मजाक बनाया लेकिन वह गौ-वंश तथा अन्य पशुओं, जिन्हें देखभाल की जरूरत थी, उन्हें अपने यहां लाकर उनकी सेवा करती। उनके पशुओं के प्रति प्रेम को देखकर गांव के अन्य लोग भी उनसे जुड़ने लगे। अब स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। राजसमंद जिले में अब उनकी पहचान बुआ के रूप में हो चुकी है और जो लोग उन्हें पहले नफरत की नजर से देखते थे, अब खुलकर उनके साथ हैं। उनके संस्थान में आते हैं और खुद भी गौवंश की सेवा करते हैं और उनके लिए चारा-पानी की मदद भी करते हैं। पैंसठ वर्षीया पारसमणि बताती हैं अब तो उन्हें विश्वास है कि उनके द्वारा चलाया गया यह काम अब कभी बंद नहीं होगा। अब कई लोग उनके सेवा कार्य से जुड़ चुके हैं।
संस्थान में रहने वाले सभी पशुओं की है विशिष्ट पहचान
पारसमणि बताती हैं कि उनके संस्थान में रहने वाले पशुओं की विशिष्ट पहचान हैं। सभी को उन्होंने नाम दे रखे हैं। नाम पुकारते ही वह उनके पास दौड़े चले आते हैं। वह पशुओं के नाम धार्मिक पुस्तकों में देखकर ही रखती हैं।
डेढ़ दशक से संचालित करती हैं रामरसोड़ा
गौ-सेवा ही नहीं, पारसमणि पिछले डेढ़ दशक से रामरसोड़ा भी संचालित कर रही हैं। रामदेवरा के लिए पैदल जाने वाले जातरूओं को निशुल्क भोजन-पानी की जरूरत पूरा करने में पारसमणि अग्रणी रहती हैं। मेवाड़ से हजारों लोग रामदेवरा के लिए दर्शन के लिए पैदल जाते हैं और इस बीच वह बुआ की ओर से संचालित रामरसोड़ा का प्रसाद लेना नहीं भूलते।