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Rajasthan: शतायु के बाद भी जीवटता, जानें-बीस साल से अन्न के बगैर किस तरह जी रहे मेवाड़ के रणजीत सिंह

Rajasthan उदयपुर में जन्मे रणजीतसिंह ओरड़िया ने गुरुवार को 102वें वर्ष में प्रवेश किया। उनके ज्यादातर साथी दो दशक पहले ही दुनिया से विदा हो गए लेकिन वह आज भी बड़े ही जीवटता से जी रहे हैं। इस जीवटता के पीछे छिपी है जीवन जीने की एक कहानी।

By Sachin Kumar MishraEdited By: Published: Thu, 17 Jun 2021 04:35 PM (IST)Updated: Thu, 17 Jun 2021 04:35 PM (IST)
Rajasthan: शतायु के बाद भी जीवटता, जानें-बीस साल से अन्न के बगैर किस तरह जी रहे मेवाड़ के रणजीत सिंह
शतायु के बाद भी जीवटता, जानें-बीस साल से अन्न के बगैर किस तरह जी रहे मेवाड़ के रणजीत। फाइल फोटो

उदयपुर, सुभाष शर्मा। तत्कालीन मेवाड़ प्रांत की राजधानी उदयपुर में जन्मे रणजीतसिंह ओरड़िया ने गुरुवार को 102वें वर्ष में प्रवेश किया। उनके ज्यादातर साथी दो दशक पहले ही दुनिया से विदा हो गए, लेकिन वह आज भी बड़े ही जीवटता से जी रहे हैं। इस जीवटता के पीछे छिपी है जीवन जीने की एक कहानी। वह कहते हैं कि जियो और जीने दो का सिद्धांंत रखते हुए हर जरूरतमंद की मदद करने वालों का ईश्वर भी ध्यान रखता है। बीस साल पहले अन्न का परित्याग कर फल और दूध के सेवन, प्रात:कालीन भ्रमण और योग के जरिए ओरड़िया अपने आप को स्वस्थ्य बनाए हुए हैं। कोरोना काल में बाहर घूमने पर लगी रोक के बाद उन्होंने घर में घूमना शुरू कर दिया। उनके जीवन के सारथी अब उनके नन्हें-मुन्ने पड़पोता और पड़पोती बने हुए हैं।

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कोरोना महामारी के बीच उनके चेहरे की चमक बताती है कि सादगी के साथ दूसरों का परोपकार करने की प्रवृत्ति से शानदार जीवन जिया जाता है। तत्कालीन मेवाड़ राज्य की राजधानी उदयपुर में सिविल इंजीनियर सरदारमल ओरड़िया के घर 17 जून, 1920 को जन्मे रणजीत सिंह ओरड़िया की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू हो जाती है। सुबह तीन-चार किलोमीटर के पैदल भ्रमण के बाद योगाभ्यास से वह खुद को बलवान बनाए हुए हैं। जिसके बाद भोजन में दूध और फलों का रस या फल खाते हैं। उनके खान-पान में गुड़ के अलावा छाछ, शिकंजी तथा कॉफी भी शामिल हैं। अन्न का परित्याग किए बीस साल से अधिक हो गया और दूध के साथ सुबह-शाम मिलाकर प्रोटीन के चार बिस्किट अवश्य खाते हैं।

पढ़ाई छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे, जेलों में बंद आजादी के नायकों तक पहुंचाते थे चिट्ठियां

मैट्रिक पास करने के बाद रणजीत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया तथा भारत देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए। वह जेल जाने से हमेशा बचे रहे लेकिन जेल में बंद आजादी के नायकों तक चिट्ठियां पहुंचाने का काम करते थे। कड़ी धूप तथा बारिश की चिंता किए बगैर वह सैकड़ों किलोमीटर साइकिल से यात्रा कर उनकी चिट्ठियां पहुंचाते थे। मेवाड़ राज्य प्रजामंडल की स्थापना के साथ ही वह राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ गए। लोकनायक माणिक्य लाल वर्मा, स्थानकवासी आचार्य जवाहरमल महाराज व गुरु मास्टर बलवंत सिंह मेहता की प्रेरणा से स्वतंत्रता के लिए जनता में अलख जगाने लगे। खादी को स्वतंत्रता आंदोलन का हथियार बनाने के आह्वान पर इन्होंने वर्ष 1940 में न केवल स्वयं खादी पहनने का संकल्प लिया जो आज तक बरकरार है। किसान, मजदूर और आमजन की समस्याओं के समाधान के लिए वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े और क्षेत्रीय स्तर पर उसके अगुआ रहे। देश के आजाद होने के बाद कई नायकों ने भारत सरकार से पेंशन ली, लेकिन वे अपने आदर्श से कभी नहीं डिगे। सहयोगी उन्हें पेंशन लाभ उठाने की सलाह दिया करते थे लेकिन बड़े ही ओजस्व वचनों से साफ इनकार कर देते। भीलवाड़ा में खादी भंडार की स्थापना का श्रेय रणजीत सिंह को जाता है।

तैराकी ऐसी कि हर दिन पीछोला झील पड़ जाती छोटी

रणजीत सिंह का बचपन पीछोला किनारे बीता। वह अपने समय के बेहतर तैराक थे। उनकी तैराकी के सामने पीछोला झील भी छोटी पड़ जाती। उन्नीस साल की आयु में उन्हें परिवार के साथ उदयपुर छोड़ भीलवाड़ा जाना पड़ा लेकिन किशोरावस्था का एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब उन्होंने पीछोला झील को तैरकर पार नहीं किया हो।

राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई स्टेशनों पर बनवाए वेयर हाउस

रणजीत सिंह ओरड़िया ने आजादी के बाद कई अनुभव लिए। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संवाद प्रेषण का काम किया। भीलवाड़ा में शैक्षणिक सुधार के लिए विद्यामंदिर तथा सेवासदन की स्थापना में महति भूमिका निभाई। जिले में पहला मेडिकल स्टोर खोला। इसी बीच कान्ट्रेक्टर का काम किया और राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के दर्जनों रेलवे स्टेशनों पर खड़े वेयरहाउस उनके निर्माण के गवाह हैं।


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