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खंडहरहाल 'प्रतापी किला' जो आज भी सुनाता है गौरव गाथा, पहचान के लिए हो चुका है मोहताज

उदयपुर शहर से लगभग साठ किलोमीटर सराड़ा तहसील में शामिल चावंड कस्बा महाराणा प्रताप की अंतिम राजधानी रहा है।

By Neel RajputEdited By: Published: Fri, 26 Jun 2020 06:28 PM (IST)Updated: Fri, 26 Jun 2020 06:32 PM (IST)
खंडहरहाल 'प्रतापी किला' जो आज भी सुनाता है गौरव गाथा, पहचान के लिए हो चुका है मोहताज
खंडहरहाल 'प्रतापी किला' जो आज भी सुनाता है गौरव गाथा, पहचान के लिए हो चुका है मोहताज

उदयपुर [सुभाष शर्मा]। राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के इतिहास के पुस्तक में महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी के युद्ध को लेकर प्रकाशित तथ्य इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं लेकिन जहां महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए, उस किले का संरक्षण अब बेहद जरूरी है। यह 'प्रतापी किला' महाराणा प्रताप की गौरव गाथा का गवाह रहा है लेकिन अब किले की नींव कब तक इस गौरव गाथा का गवाह बनी रहेंगी, विचारणीय है। चावंड का प्रतापी किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन होते हुए भी पहचान के लिए मोहताज है।

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उदयपुर शहर से लगभग साठ किलोमीटर सराड़ा तहसील में शामिल चावंड कस्बा महाराणा प्रताप की अंतिम राजधानी रहा है। इसलिए प्रदेश के इतिहास में इसकी विशेष पहचान है। इसके बावजूद यहां लोगों की पहुंच आसान नहीं, यदा-कदा यहां पर्यटक पहुुंचे तो उन्हें मौके पर किला नहीं मिलता। ईंट और पत्थर से बनी नींवें ही अब इस किले की गवाह है। महाराणा प्रताप से जुड़े स्थलों को पर्यटकों से जोडऩे के लिए मेवाड़ कॉम्पलेक्स योजना बनाई गई थी। जिसके दूसरे चरण में हल्दीघाटी तथा चावंड के विकास के कामों को हाथ में लिया गया, लेकिन योजना को सफलता नहीं मिली।

हल्दीघाटी तक पर्यटकों की पहुंच तो बनी लेकिन चावंड का विकास नहीं हो पाया। तहस-नहस प्रतापी किले भी असफल योजना की भेंट चढ़ गया और उसकी नींव ही सुरक्षित रह पाई। महाराणा प्रताप के यहां बसने की वजह से यह किला प्रतापी किले के नाम से मशहूर हो गया। हालांकि यह किला ना तो भव्य था और ना ही अन्य किलों की तरह विशाल और सुरक्षित। एक मगरी यानी छोटी पहाड़ी पर पत्थर, कंकर, ईंटों तथा खनिज चूने को बुझाकर बनाई ईंट और बालू के उपयोग से इसे बनाया गया। जहां लंबे-लंबे कमरे बना गए। जिनको लेकर इतिहास में उल्लेख है कि इन्हें छप्पनिया राठौड़ वंश ने बनवाया था। वीर विनोद तथा इतिहास की अन्य पुस्तक साबित करती है कि महाराणा प्रताप ने सरदान लूना चावण्डिया को हराकर इस किले पर कब्जा किया। जीत की खुशी में यहां माताजी का मंदिर भी बनवाया, जो आज भी मौजूद है।

महाराणा प्रताप यहां रहे जरूर लेकिन उन्होंने नजदीकी उदय की पहाडिय़ों में ही ज्यादा समय बिताया। महाराणा प्रताप के निधन के बाद केजड़ और चावंड के बीच केजड़ झील किनारे उसी जगह जहां महाराणा का अंतिम संस्कार किया गया, वहां उनकी स्मृति में सात खंभों की छतरी बनाई गई, जो आज भी मौजूद है। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते समय महाराणा की हुई थी मौत इतिहास के मुताबिक चावंड के महल में साल 1597 की माघ शुक्ला एकादशी की शाम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा रहे थे। इसी दौरान लगी अंदरूनी चोट की वजह से उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि महाराणा प्रताप ने जीवन के अंतिम दिन चावंड में ही बिताए थे।

बेहद संपन्न था चावंड चावंड भले ही आज छोटा सा कस्बा है लेकिन कभी यह बेहद संपन्न क्षेत्र था। जावरमाल, बाबरमाल, मोचियाखान, तनेसर, बारां आदि की बदौलत इसका आर्थिक महत्व इतना ज्यादा था कि इसको मण्डल माना गया। अबुल फजल ने भी चावंड के बारे में लिखा है कि गोमती नदी का तट बहुत उपजाऊ था और यहां खेतों में रहट चला करते थे, जिनके चर्चे गुजरात तक थे। राणा अमरसिंह का राज्याभिषेक यहीं हुआ। रागमाला जैसी मशहूर चावंड चित्र शैली यहीं से चली। 


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