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जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: शायर व पटकाथा लेखक जावेद अख्तर -किताबेंं अब इंटीरियर डेकोरेशन का हिस्सा हो गई है

Jaipur Literature Festival , जावेद अख्तर का कहना है कि आज की पीढी यदि साहित्य से दूर हो रही है तो उसका कारण यह है कि हमारे परिवारों और शिक्षा में ही साहित्य प्राथमिकता में नहीं है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 25 Jan 2019 02:37 PM (IST)Updated: Fri, 25 Jan 2019 02:37 PM (IST)
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: शायर व पटकाथा लेखक जावेद अख्तर -किताबेंं अब इंटीरियर डेकोरेशन का हिस्सा हो गई है
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: शायर व पटकाथा लेखक जावेद अख्तर -किताबेंं अब इंटीरियर डेकोरेशन का हिस्सा हो गई है

जयपुर, जेएनएन। शायर और पटकाथा लेखक जावेद अख्तर का कहना है कि आज की पीढी यदि साहित्य से दूर हो रही है तो उसका कारण यह है कि हमारे परिवारों और शिक्षा में ही साहित्य प्राथमिकता में नहीं है। शहरों में किताबें घरों के इंटीरियर डेकोरेशन का हिस्सा हो गई है जो पदें के रंग के हिसाब से चुनी जाती है। 

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जयपुर लिटरचेर फेेस्टिवल में जावेद अख्तर शबाना आजमी पवन के वर्मा ने बीते जमाने के मशहूर शायर कैफी आजमी और जांनिसार अख्तर को याद करते हुए हिन्दी उर्दू साहित्य प्रगतिशील लेखक आंदोलन और फिल्मों के लेखन के बारे में खुल कर चर्चा की। जावेद अख्तर का कहना था कि दो बीघा जमीन अपने जमाने की सुपरहिट फिल्म थी, क्योंकि उस जमाने का समाज किसान की तकलीफ को समझता था। वह उन्हीें में से आया था लेकिन औदयोगिक क्रांति ने शहरी मध्यम वर्ग को खेती से दूर कर दिया।

इन्हे पता ही नही कि खेती क्या होती है इसीलिए आज भले ही हजारों किसान आत्महत्याएं कर रहे है लेकिन उन पर बनी फिल्म सुपरहिट नहीं हो सकती। इतना जरूर है कि आज कि पीढी अपनी जडो को खोज रही है। आज जो सुई धागा, बरेली की बर्फी जैसी फिल्में बन रही है जो हिन्दुस्तान के गांव देहात और छोटे शहरो की कहानियां है और इन्हें बडे शहरों का मध्यम वर्ग पसंद कर रहा है ओर ऐसा इसीलिए हो रहा है कि आज का युवा अपनी जडों को खोज रहा है। 

शबाना आजमी ने अपने पिता कैफी आजमी सहित उस दौर के सभी प्रगतिशील लेखकों को याद करते हुए कहा कि प्रगतिशील लेखकों के काम में उनका मेनिफेस्टो दिखता था हालांकि यह भी एक तथ्य है कि ये सभी बहुत अच्छी रोमांटिक शायरी करते थे। महिलाओं के प्रति भी उनमें बहुत आदर था। कैफी साब ने 70 साल पहले औरत नाम से एक नज्म लिखी थी जो औरतों की आजादी को समर्पित थी और मेरी मां शौकत आज़मी ने यह नज्म सुनने के बाद ही मेरे पिता से शादी करने का फैसला किया था। 

उर्दू हिन्दी के बारे में शबाना ने कहा कि यह बहुत बडी गलतफहमी है कि उर्दू मुसलमानों की जुबान है और हिन्दी हिन्दुओं की जुबान है। भााषा का धर्म से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। भाषा क्षेत्र से जुडी होती है। पवन वर्मा ने कहा कि उन्होंने कई शायरों की किताबों का अनुवाद किया है और उनका मानना है कि कोई भाषा यदि सीमित हो जाएगी तो इससे न भाषा का भला होगा और न लोगों का। अनुवाद ही वह तरीका है जिसके जरिए अच्छा काम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचता है। इसमें ओरिजनल जैसी खुशबू तो नहीं होती लेकिन यह अनुवाद होना जरूर चााहिए।

लंदन के रेस्टोरेंट में पैदा हुआ प्रगतिशील लेखक आंदोलन. प्रगतिशील लेखक आंदोलन का इतिहास बताते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि इसकी शुुरूआत 1932.33 में लंदन के एक रेस्टोरेंट में हुई जहां कुछ लेखकों ने तय किया कि हमें सिर्फ दिमागी अय्याशी के लिए ही नहीं बल्कि समाज के हालात के बारे में भी लिखना चाहिए। इसके बाद लखनउ में एक सम्मेलन हुआ जिसमें मुंशी प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे लोगों ने भी यह माना कि हमें समाज के बदलाव के लिए भी लिखना चाहिए। उन्होने कहा कि बीच में यह जरूर कुछ ढीला पड गया लेकिन अब फिर इसकी जरूरत महसूस हो रही है। 


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