बीबी मुमताज की याद में सजाया नगर कीर्तन
रूपनगर के गुरुद्वारा श्री भट्ठा साहिब से गांव बड़ी पुरखाली स्थित एतिहासिक गुरुद्वारा बीबी मुमताज तक 16वां सर्व सांझा नगर कीर्तन सजाया।
संवाद सहयोगी, रूपनगर: रूपनगर के गुरुद्वारा श्री भट्ठा साहिब से गांव बड़ी पुरखाली स्थित एतिहासिक गुरुद्वारा बीबी मुमताज तक 16वां सर्व सांझा नगर कीर्तन सजाया। नगर कीर्तन का आयोजन खालसा प्रचार कमेटी व घाड़ क्षेत्र की संगतों के सहयोग से किया गया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की पावन ओट व पांच प्यारों के नेतृत्व में सजाए नगर कीर्तन में बड़ी संख्या में संगत ने उपस्थिति दर्ज करवाते हुए अपने जीवन को धन्य बनाया। नगर कीर्तन में रागी व ढाडी जत्थों ने पंथक इतिहास का गुणगान कर संगत को निहाल किया। गुरसिख युवाओं ने गतका व पंथ के वीर रस का प्रदर्शन कर नगर कीर्तन की शान को बढ़ाया। नगर कीर्तन की समापन अरदास से पहले गुरुद्वारा बीबी मुमताज के मुख्य सेवादार भाई गुरप्रीत सिंह के नेतृत्व में अन्य प्रबंधकों व सेवादरों ने पांच प्यारों का स्वागत किया। ब्लाक रूपनगर के गांव बड़ी पुरखाली के पास लगती शिवालिक की पहाड़ियों पर स्थित गुरुद्वारा तप स्थान बीबी मुमताज जी का इतिहास पंथ के साथ जुड़ा हुआ है। बीबी मुमताज कोटला निहंग गांव के चौधरी निहंग खां पठान की पुत्री थी, जिसने गांव नौरंगपुर झांडियां से पांच किलोमीटर दूर जंगलों में 100 वर्ष तक तप किया व गुरुघर की सेवादार एवं श्रद्धालु होने का गौरव हासिल किया था। मान्यता के अनुसार बीबी मुमताज के पिता चौधरी निहंग खां पठान के बुजुर्ग दशमेश पिता श्री गुरु गोबिद सिंह जी महाराज के मुरीद थे। जब दशमेश पिता घनौली के पास सरसा नदी को पार करते हुए मुगल फौज से लोहा लेते हुए रूपनगर के पास स्थित पठानों के भट्ठे पर पहुंचे, तो उन्होंने वहां जरूरत के अनुसार अपने नीले घोड़े की पौड़ द्वारा भट्ठे को ठंडा किया। इसकी सूचना मिलते ही भट्ठे का मालिक चौधरी निहंग खां पठान वहां पहुंचा व दशमेश पिता को देख उनके समक्ष नतमस्तक होता हुआ उन्हें अन्य सिंहों के साथ अपने किले में ले गया। इस बारे जब रोपड़ (रूपनगर) के कोतवाल चौधरी जाफर अली खां को सूचना मिली तो उसने सुबह का उजाला होने से पूर्व ही फौज सहित किले को घेरे में ले लिया, पर दशमेश पिता मध्य रात ही अन्य सिंहों के साथ किला छोड़ जा चुके थे। इसी दौरान गुरु महाराज का एक सिंह भाई बचित्तर सिंह घायल होने के कारण उस वक्त किले में ही मौजूद था। बीबी मुमताज उनकी देखरेख व उपचार में लगी हुई थी। मुगल कोतवाल चौधरी जाफर अली जब उस कमरे की तरफ जाने लगा, तो निहंग खां ने यह कहते हुए उसका रास्ता रोक लिया कि किले के इस आखिरी कमरे में उसकी पुत्र व उसका दामाद हैं, जिसके चलते कोतवाल बिना कमरे की तलाशी लिए माफी मांगता हुआ फौज सहित वहां से चला गया। इतिहास में यह भी दर्ज है कि उन दिनों बीबी मुमताज का निकाह बस्सी पठाना के अबगान खां के साथ तय हो चुका था, लेकिन जब उसे अपने पिता द्वारा मुगल कोतवाल को कही बात बारे पता चला तो बीबी मुमताज ने निकाह करने से इन्कार करते हुए कहा कि अब तो वह जीवन भर गुरुघर की सेवा ही करेंगी। कहते हैं कि बीबी मुमताज की इस श्रद्धा से दशमेश पिता ने उसे गातरा (कटार) व किरपान प्रदान की। इसके बाद दशमेश पिता तो वहां से चले गए, जबकि बीबी मुमताज ने वहां पर तपस्या शुरू कर दी। यहीं पर उनकी इच्छा पर किले का निर्माण भी करवाया गया जहां बीबी मुमताज ने तप करते हुए 136 वर्ष की आयु में शरीर को त्याग दिया था। आज उसी स्थान पर गुरुद्वारा तप स्थान बीबी मुमताज जी सुशोभित है।