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'तोते वाली कोठी' से कम हो रहा प‍क्षियों का मोह, जानें क्या है इसके पीछे की बड़ी वजह

कुछ साल पहले कोठी में गोरैया कबूतर व तोते की भरमार थी। लेकिन जैसे-जैसे प्रदूषण बढ़ा और कोठी जर्जर होती गई। जैसे-जैसे प्रदूषण बढ़ता गया वैसे-वैसे पक्षियों ने यहां आना बंद कर दिया।

By Sat PaulEdited By: Published: Mon, 14 Oct 2019 02:38 PM (IST)Updated: Tue, 15 Oct 2019 09:01 PM (IST)
'तोते वाली कोठी' से कम हो रहा प‍क्षियों का मोह, जानें क्या है इसके पीछे की बड़ी वजह
'तोते वाली कोठी' से कम हो रहा प‍क्षियों का मोह, जानें क्या है इसके पीछे की बड़ी वजह

लुधियाना, जेएनएन। दरेसी के पास कटेहरे में एक लाल कोठी है। 1907 में शालिग्राम थापर द्वारा बनवाई इस कोठी में पक्षियों के लिए विशेष तौर पर आलने बनाए गए थे। यहां इतने तोते आते थे कि कोठी का नाम ही तोते वाली कोठी पड़ गया था। इलाहबाद स्थित पंडित नेहरू के ‘आनंद भवन’ की तर्ज पर बनी इस कोठी का नाम भी यही रखा गया था।

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इस कोठी के डिजाइन को पक्षी संरक्षण के हिसाब से तैयार किया गया था। कोठी में पक्षियों के लिए हर मंजिल की दीवारों पर दो सौ से ज्यादा आलने बने हैं। इन्हीं आलनों पर अलग-अलग तरह के पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते थे। बीते दशक तक इस कोठी में गोरैया, कबूतर व तोते की भरमार थी। कटेहरे में बनी यह लाल कोठी इसीलिए ‘तोते वाली कोठी’ कहलाती थी। लेकिन जैसे-जैसे प्रदूषण बढ़ा और कोठी जर्जर होती गई। वैसे-वैसे पक्षियों ने इस कोठी से अपना मोह छोड़ना शुरू किया।

अब हालात ये हैं कि गिने चुने पक्षी ही इस कोठी में आते हैं। कोठी में बने आलों को फिर से पक्षियों की चहचहाट का इंतजार है। आसपास के लोग बताते हैं कि जब से आसपास मोबाइल टावर बने हैं, तब से पक्षियों का आना कम हो गया। 50 साल से कोठी में रह रहे अनिल कुमार बताते हैं कि इस कोठी का निर्माण शालिग्राम थापर नाम के व्यक्ति ने 1907 में करवाया था। तब यह शहर की सबसे बड़ी इमारत थी।

बताते हैं कि शालिग्राम थापर उस वक्त रेलवे में काम करते थे और उन्होंने ही इस कोठी को तैयार करवाया। तब इसका नाम ‘आनंद भवन’ रखा गया था। आज भी कोठी के मुख्य गेट पर यह अंकित है। उन्होंने बताया कि पूरी कोठी में 50 से ज्यादा कमरे हैं और इसका निर्माण गार्डर बालों से करवाया गया है। इसमें जो गार्डर लगे हैं, वो इंग्लैंड में निर्मित हैं। इस कोठी में पक्षियों के लिए आलने बने थे और काफी संख्या में पक्षी यहां पर रहते थे। पिछले आठ दस साल से पक्षियों ने आना कम कर दिया।

छत पर खड़े होकर दिख जाते थे शहर के चारों कोने

विजय कुमार बिल्ला बताते हैं कि वह करीब 60 साल से कटेहरे में रह रहे हैं। उनके अनुसार यह लाल कोठी पूरे लुधियाना में सबसे बड़ी थी। इसकी छत पर जाकर शहर के चारों कोने दिख जाते थे। लुधियाना शहर में उस वक्त सिर्फ सात सिनेमा हॉल थे, जो सभी इस कोठी की छत से दिखते थे। यह कोठी अब अलग-अलग हिस्सों में बंट चुकी है लेकिन अब भी स्वरूप वैसा ही है। सिर्फ एक बड़ा अंतर आया है कि पक्षियों ने यहां आना छोड़ दिया है।

इलाहबाद के आनंद भवन की तर्ज पर बनी थी यह कोठी

विजय कुमार बिल्ला के अनुसार पुराने लोग बताते थे कि इस कोठी को बनाने वाले शालिग्राम थापर उस जमाने के काफी अमीर व्यक्ति थे और उनकी अपनी बग्गियां चलती थीं। उन्होंने पंडित नेहरू के इलाहबाद स्थित आनंद भवन को देखकर ही लुधियाना में अपना आनंद भवन बनाया था। कई पंजाबी फिल्मों के प्रोड्यूर अब यहां पर फिल्मों की शूटिंग करने की तैयारी भी कर रहे हैं। 

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