National Handloom Day : विदेश तक बलविंदर के मफलर का जलवा, 70 से ज्यादा युवाओं को दे रहे राेजगार
National Handloom Day लुधियाना में अाकर वलविंदर ने लाेगाें काे भी राेजगार दिया। आज बेहतरीन उत्पाद तैयार करने के साथ वह लाेगाें के लिए प्रेरणा बन गए हैं।
लुधियाना, [राजेश भट्ट]। National Handloom Day : बचपन में पिता से खड्डी पर हाथ चलाने की बारीकियां व तकनीक सीखने के बाद गांव के एक महत्वकांक्षी युवक ने शहर का रुख किया। गांव छोड़ने के बाद इस युवक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज उनकी खड्डियों पर बने शॉल, मफलर की गर्माहट विदेश तक पहुंच गई है।
बलविंदर ने 32 सालाें के सफर में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन कुछ अलग करने के जज्बे के कारण ही वह आज बेहतरीन उत्पाद तैयार करने के साथ 70 से ज्यादा युवाओं को खड्डियों में रोजगार दे रहे हैं। यही कारण है कि विदेश से आने वाले एनआरआइज बलविंदर के शॉल और मफलरों के लिए गांव मानकवाल की ओर खींचे चले आते हैं।
पंजाब के ठेठ देहाती इलाके संगरूर के कूप गांव से निकल कर बलविंदर सिंह ने इस हुनर व जज्बे से साबित कर दिया है कि अपना कारोबार जमाने के लिए न तो किसी डिग्री की जरूरत होती है और न ही बहुत ज्यादा निवेश की। बलविंदर खुद आठवीं पास हैं और वह खड्डी चलाकर सालाना 25 से 30 लाख रुपये कमा रहे हैं।
एनआरआइ मफलर व शॉल के कायल
बलविंदर के बनाए मफलर, शॉल व स्टॉल की डिमांड सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी है। उनके पास कोई रजिस्टर्ड कंपनी नहीं है, जिसकी वजह से वह प्रत्यक्ष तौर पर निर्यात नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन दुनिया के अलग-अलग देशों से आने वाले एनआरआइ उनके मफलर व शॉल के कायल हैं। अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों से आने वाले एनआरआइ उनसे मफलर व शॉल लेकर जाते हैं।
हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर में ज्यादा डिमांड
बलविंदर बताते हैं कि आधुनिक युग में मशीनों (पावरलूम) पर तैयार होने वाले मफलर, शॉल स्टाल्स आदि का धागा खिंच जाता है। इससे वह पतला हो जाता है। खड्डी पर बनने वाले उत्पाद गफ होते हैं और उनमें गर्माहट ज्यादा होती है। यही कारण है कि विदेश या देश के पहाड़ी इलाकों में जहां ज्यादा ठंड होती है, वह खड्डी के उत्पादों को लोग पसंद करते हैं। यही कारण है कि विदेश के अलावा देश में हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर में उनके उत्पादों की मांग ज्यादा है।
लुधियाना की बड़ी मार्केट का मिला फायदा
बचपन में अपने पिता चंद सिंह को खड्डी पर काम करते देख बलविंदर का इस ओर झुकाव बढ़ा। 32 साल पहले वह अस्पतालों के लिए चादरें, पट्टियां व थोड़े बहुत शॉल बनाते थे। गांव में एक वक्त था कि उनके पास 80 खड्डियां थी। धीरे- धीरे लुधियाना एक बड़ी मार्केट के तौर पर विकसित होने लगी तो शहर में ही लोगों ने खड्डियां लगा लीं। 1988 में बलविंदर सिंह भी लुधियाना के मानकवाल में आए और यहां पर पांच खड्डियों से काम शुरू किया। अब उनके पास अपनी 16 खड्डियां हैं।