महंगा इलाज, गरीबों को करता है परेशान, सिविल अस्पतालों में सुविधाएं बढ़ाने की जरूरत
निजी अस्पतालों की तुलना में सरकारी अस्पतालों में अब भी वह बदलाव नहीं आया, जिसकी आज जरूरत है। यहीं वजह है कि मरीजों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है। निजी अस्पताल सुविधाएं देते हैं, इसलिए वह इसकी कीमत भी वसूल करते हैं।
लुधियाना और बरनाला में सिविल सर्जन के पद पर रह चुकी डॉ. रेनू छतवाल का मानना है कि भारत में इलाज करवाना आज भी इतना महंगा पड़ता है कि एक गरीब व्यक्ति अपनी या अपने किसी परिजन की बीमारी से जूझते हुए दाने-दाने को मोहताज हो जाता है। क्योंकि देश के ज्यादातर सरकारी अस्पताल आज भी कई बीमारियों का इलाज करने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। सरकार कई तरह की स्वास्थ्य योजनाएं तो बनाती है, लेकिन योजनाएं सही तरह से चल सके इसके बारे में गंभीरता से नहीं सोचती।
उदाहरण के तौर पर केंद्र और राज्य सरकारों के सहयोग से करोड़ों रूपये खर्च करके सरकारी अस्पतालों की इमारतें खड़ी हो रही है। लेकिन इनमें मरीजों को बेहतर इलाज मिल सके उसे लेकर संसाधन जुटा पाने में समक्ष नहीं। देखरेख के अभाव में यह इमारतें कुछ ही वर्षों में खंडहर में तब्दील होकर जर्जर हो जाती हैं। ऐसे में लोगों को प्राइवेट अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है, जहां उन्हें कड़ी चपत लगती है।
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डॉ. रेनू कहती हैं कि जब वह सिविल सर्जन थी, तो उनके समय में शहर के अंदर तीस बेड के मदर एंड चाइल्ड अस्पताल, अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर और अन्य कई स्वास्थ्य केंद्रों की इमारतें बनाई गई, जिस पर करोड़ों रूपये खर्च हुए। लेकिन इनमें से केवल एक या दो स्वास्थ्य केंद्रों को छोड़कर बाकी सभी डॉक्टरों, स्टॉफ, क्लासफोर्थ, दवाओं और जांच मशीनरी के इंतजार में है। सरकार को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए।
निजी अस्पतालों की तरह सिविल अस्पतालों में सुविधाएं बढ़ाने की जरूरत
बकौल डॉ. रेनू छतवाल, पिछले दो दशकों में शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार हुआ है। आज से अगर बीस साल पहले की बात करें, तो लुधियाना में केवल दो बड़े अस्पताल सीएमसी और डीएमसी ही हुआ करते थे। लेकिन, आज इन अस्पतालों के अलावा दो सौ बैड से अधिक वाले कई बड़े निजी अस्पतालों के अलावा सौ बेड से अधिक के निजी अस्पताल और पचास बेड वाले नर्सिंग होम काफी तादाद में है। जहां हर तरह की जांच सुविधाएं व माहिर डॉक्टर है।
दूसरी तरफ निजी अस्पतालों की तुलना में सरकारी अस्पतालों में अब भी वह बदलाव नहीं आया, जिसकी आज जरूरत है। यहीं वजह है कि मरीजों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है। निजी अस्पताल सुविधाएं देते हैं, इसलिए वह इसकी कीमत भी वसूल करते हैं।
लुधियाना की बात की जाए, तो 22 लाख की आबादी वाले इस शहर के लिए तीन सौ बेड का जिला अस्पताल काफी नहीं है। कम से कम एक हजार बेड का सिविल अस्पताल होना जरूरी है और उसी के अनुसार सिविल अस्पतालों में पर्याप्त संख्या में मेडिसन, ऑर्थो, शिशु और स्त्री रोग विशेषज्ञ होने चाहिए। बीमारियों की जांच के लिए विश्व स्तरीय मशीनरी होनी चाहिए।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को अपग्रेड किया जाए
उनका कहना है कि कम्युनिटी हेल्थ सेंटर लेवल पर स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है। यहां पर्याप्त संख्या में एएनएम, गॉइनी, ओर्थो, मेडिसिन और चाइल्ड स्पेशलिस्ट हो, तो सिविल अस्पतालों पर से दबाव कुछ कम होगा। वर्तमान में वर्किंग में जो कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं, उनकी की हालत काफी बदतर है।
इसके अलावा सरकार की ओर से कई कम्युनिटी हेल्थ सेंटर नए बना दिए गए हैं, जो स्टाफ की कमी की वजह से सफेद हाथी बने हुए है। गवर्नमेंट यदि स्वास्थ्य केंद्रों के लिए बिल्डिंगों बनाने पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही है, तो उसकी जिम्मेवारी बनती है कि वह इन स्वास्थ्य केंद्रों के लिए डॉक्टर, स्टॉफ का इंतजाम भी करें। सिर्फ इमारतें बना देने से कुछ नहीं होगा।
बुजुर्गों के इलाज के लिए सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में अलग से बने सेंटर
डॉ. रेनू छतवाल के अनुसार सरकारी अस्पताल हो या निजी अस्पताल, हर जगह पर बुजुर्गों को इलाज में काफी परेशानी आती है। बुजुर्गों को इलाज लिए लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ता है। टेस्टों के लिए भटकना पड़ता है।
ऐसे में वह सरकार से यहीं चाहेंगे कि सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों या कहीं अलग में ऐसे सेंटर बनाएं जाएं, जहां बुजुर्गों को एक छत के नीचे हर तरह का ट्रीटमेंट मिल सके और यह सेंटर पूरे दिन वर्किंग में रहें। इन सेंटर्स में कम से कम मेडिसिन और ओर्थो विशेषज्ञों के अलावा एक काउंसलर और फिजियोथैरेपिस्ट होना ही चाहिए।
स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार के लिए पब्लिक भी आगे आए
डॉ. रेनू कहती हैं कि जिस तरह से देश की आबादी तेजी से बढ़ रही है, उसके मुताबिक हर व्यक्ति को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवा पाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। देश के औद्योगिक घराने, बड़े व्यापारिक संगठन, बिजनेसमैन और अन्य सरकारी अस्पतालों को अडॉप्ट कर लें तो जरूरतमंद और गरीब लोगों को इलाज मिल सकता है। बदले में सरकार इन घरानों को कुछ रियायतें दें, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग प्रोत्साहित होकर सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की मदद के लिए आगे आएं।
दवाओं की कीमत तय करे सरकार
उन्होंने कहा कि देश में गंभीर रूप से बीमार एक चौथाई मरीज बीमारी और शायद जिंदगी से भी जंग इसीलिए हार जाते हैं क्योंकि उनके पास इलाज के लिए महंगी दवाएं खरीदने के पैसे नहीं होते। एक स्टडी में खुलासा हुआ है कि दिल की बीमारियों, कैंसर और डायबिटीज जैसी गैर संक्रामक बीमारियों पर देश के ज्यादातर परिवारों द्वारा सबसे ज्यादा पैसे खर्च किए जाते हैं। इन बीमारियों में जीवन भर दवाई खानी पड़ती है। कई परिवारों को इन बीमारियों ने बर्बाद कर दिया।
इसकी वजह यह है कि कंपनियां मनमानी कीमतें तय करके बाजार में दवाएं पहुंचा रही है, जिस दवा को बनाने में कंपनी की लागत दस से बीस रूपये आती है, वह दवा मरीज तक पहुंचते पहुंचते हजारों में हो जाती है। एक ही कंपनी की दवा अलग अलग मूल्य में बिकती है। यदि सरकार दवाओं की कीमतें तय कर दें, तो ऐसा नहीं होता।
वहीं दूसरी तरफ कहने के लिए तो लोगों को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने देशभर में जन औषधि केंद्र खोले हैं। लेकिन यहां दवाइयां या तो खत्म हो जाती हैं और समय पर मिलती नहीं। सरकारी डिस्पेंसरी में भी प्राय: दवाएं नहीं मिल पाती। ऐसे में मजबूरन मरीजों को बाजार से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ती है।
- डॉ. रेनू छतवाल, सिविल सर्जन, लुधियाना