श्रद्धावान ही संसार सागर से होता है पार : मुनि पीयूष
सिविल लाइंस महावीर भवन में एसएस जैन सभा के तत्वावधान में चल रही चातुर्मास सभा में उप-प्रवर्तक श्री पीयूष मुनि म. ने कहा कि आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक है।
संस, लुधियाना : सिविल लाइंस महावीर भवन में एसएस जैन सभा के तत्वावधान में चल रही चातुर्मास सभा में उप-प्रवर्तक श्री पीयूष मुनि म. ने कहा कि आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक है। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए सच्ची श्रद्धा का होना आवश्यक है। जिसके हृदय में सच्ची श्रद्धा नहीं है, उसका मन पारे की तरह चंचल बना रहता है। वह कभी एक साधन को अपनाता है और कभी दूसरे को। परिणाम यह होता है कि उसके विचारों में स्थिरता नहीं आती तथा उसकी क्रियाएं भी समुचित रूप ग्रहण नहीं कर पाती।
बडे़ से बड़ा ज्ञानी भी अगर उसमें श्रद्धा नहीं है तो वह संसार सागर में डुबकियां लगाता रहता है और उसके ज्ञान का कोई मूल्य नहीं होता। ज्ञान की सारी शक्ति श्रद्धा में निहित है। श्रद्धावान ही संसार सागर को तैर कर पार हो जाता है। संसारी प्राणी जो अनादि काल से भवभ्रमण कर रहा है और अनेक योनियों में नाना प्रकार की यातनाएं भोग रहा है उनका मूल कारण उनकी श्रद्धाहीनता है। मुनि श्री ने कहा कि संसार का प्रत्येक धर्म, धर्म गुरु तथा धर्म ग्रंथ श्रद्धा पर अत्यधिक बल देता है। जैन परंपरा तो श्रद्धा को आध्यात्मिक विकास की पहली सीढ़ी मानता है। अश्रद्धा घोर पाप है तथा श्रद्धा समस्त पापों से छुटकाना दिलाने वाली शक्ति है। जिस प्रकार सांप अपनी पुरानी केंचूली छोड़ देता है। उसी प्रकार श्रद्धावान समस्त पापों का त्याग कर देता है। आत्मा श्रद्धा का ही पुतला है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है। वह वैसा ही बन जाता है। एक श्रद्धाहीन व्यक्ति अपनी सारी क्रियाओं में चलायमान रहता है। उसका कोई भी काम समुचित रूप से नहीं हो पाता। श्रद्धा के बिना आत्मा में दृढ़ता, साहस और आत्म शक्ति का उद्भव नहीं होता। जीवन की असली उन्नति श्रद्धा पर है तथा धीरे-धीरे आत्मा को परमात्मा बनाने में समर्थ होती है। जिस व्यक्ति को भगवान में श्रद्धा होती है वह किसी भी विपत्ति से व्याकुल नहीं होता। वह अपने को अपने इष्टदेव के चरणों में डाल देता है। दुश्मन पर भी वह क्रोध नहीं करता, उसे भी अपना मित्र मानता है। तर्क को ज्यादा बड़ा मानने वाला व्यक्ति अहंकार खरा स्वयं को सर्वज्ञ समझते हैं। अपने पूर्वजों का मजाक उड़ाता है। आधुनिक भौतिकवादी युग का सबसे बड़ा बुरा प्रभाव यह है कि मनुष्य अनात्मवाद की लहरों में बह गया है। अपने आपको भूलकर वह बाहरी जगत में सुख और शांति पाने का प्रयत्न करता है। परिणाम यह होता है कि वह न तो अपने आपको पाता है और ना ही बाहरी जगत को पाता है। कहीं भी उसे शांति नसीब नहीं होती।