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दुर्जन अपना और दूसरों का भला नहीं करता : मुनि पीयूष

सिविल लाइंस जैन स्थानक में चातुर्मास सभाव प्रवचन जारी फोटो 102, 103

By JagranEdited By: Published: Mon, 12 Nov 2018 06:00 AM (IST)Updated: Mon, 12 Nov 2018 06:00 AM (IST)
दुर्जन अपना और दूसरों का भला नहीं करता : मुनि पीयूष
दुर्जन अपना और दूसरों का भला नहीं करता : मुनि पीयूष

संवाद सहयोगी, लुधियाना : सिविल लाइंस जैन स्थानक में रविवार को उप-प्रवर्तक श्री पीयूष मुनि म. के सानिध्य में जारी दैनिक प्रवचन सभा में मुनि श्री ने कहा कि कुछ व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से हीन स्थितियों में जन्म लेकर अपने विचारों, वाणी तथा कर्मो से भी हीन बने रहते हैं। ऐसे व्यक्ति जिंदगी भर तुच्छ बने रहते हैं और सुधरने का नाम नहीं लेते। इस संसार में कोई भी गुरु, कैसा भी उपदेश तथा अच्छे से वातावरण भी उनके हृदय को बदल नहीं पाता। जिस प्रकार से विषधर सांप चंदन के पेड़ पर रहकर भी जहर से रहित नहीं होता है, उसी प्रकार नीच व्यक्ति सज्जनों के साथ जीवन व्यतीत करते हुए भी अपनी नीचता को नहीं छोड़ता। उन्होंने कहा कि दुर्जन व्यक्ति न तो अपना भला कर सकता है और न ही दूसरों का भला कर सकता है। इस लोक में वह सदा दूसरों का अनिष्ट करता है तथा परलोक में भी महान दुख और कष्ट का भोगी बनता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं कि दुष्ट लोगों से कभी भी मैत्री नहीं करनी चाहिए। दुष्ट व्यक्ति दुश्मन होने पर तो अहित करता ही है, वह मित्र बनकर भी अनिष्टकारी ही बनता है। दुर्जन के साथ न मैत्री और न वैर करना चाहिए। वह प्रत्येक स्थिति में दुख का कारण बनता है। जिस तरह कोयला अगर जलता हुआ हो तो वह छूते ही जला देता है और ठंडा हो तो हाथ और कपडे़ काले कर देता है।

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मुनि श्री ने कहा कि अपने जीवन को महान तथा समुच्चत बनाने के लिए जन्म से उच्च, कुलीन अथवा ऐश्वर्य संपन्न होना आवश्यक नहीं है, बल्कि अपने विचारों, बोल-चाल तथा कर्मो से ऊंचा होना चाहिए। हृदय में विकारों का न होना तथा उसका शुद्ध और पवित्र होना महानता का लक्षण है। मनुष्य उतना ही महान होगा जितना उसमें सत्य, त्याग, वैराग्य प्रेम, क्षमा तथा वैराग्य की भावना का विकास होगा। जिसकी आसक्ति नष्ट हो गई, जिसका अज्ञान मिट गया तथा जो परमात्मा तत्व में स्थिर है, वही अपनी आत्थ्मा का कल्याण कर सकता है। इसलिए अगर व्यक्ति अपने जीवन को महान और अपनी आत्मा को परमात्मा बनाना चाहता है तो अपने मन को शुद्ध, वाणी को संयत और विवकेमयी तथा कर्मो को अपने तथा दूसरों के लिए कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।


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