Mother's Day 2019 : ये मांए हैं 'स्पेशल', अंधेरों को चीर बच्चों को दिया चमकते भविष्य का उजाला
यूं तो हर मां स्पेशल होती है लेकिन कुछ इसलिए अधिक विशेष हो जाती हैं क्योंकि उनकी जिम्मेदारी स्पेशल बच्चे हैं।
जालंधर [वंदना वालिया बाली]। यूं तो हर मां स्पेशल होती है लेकिन कुछ इसलिए अधिक विशेष हो जाती हैं क्योंकि उनकी जिम्मेदारी 'स्पेशल बच्चे' हैं। मां की ममता के आगे उसके सभी बच्चे समान होते हैं। चाहे वे सामान्य हों या विशेष जरूरतों वाले दिव्यांग बच्चे। हां, मातृत्व की परीक्षा यकीकन तब अधिक कठिन हो जाती है जब परिवार की बगिया में इन फूलों के साथ परिस्थितियों के शूल भी हों। ऐसी संघर्षपूर्ण स्थिति में भी जब ममता की खुशबू परिवार की बगिया को महकाए रखे, तो नि:संदेह उस मां के प्रति आदर और बढ़ जाता है। कुछ ऐसी ही स्पेशल मदर्स को सलाम करते हुए आज 'मदर्स डे' पर दैनिक जागरण ने संजोयी हैं उनकी प्रेरक कहानियां आपके लिए...
सकारात्मकता से रोशन जहां
अमृतसर की मंजू गुप्ता का संघर्ष केवल एक स्पेशल मां के रूप में नहीं बल्कि एक महिला के रूप में भी अनोखा है। शादी के मात्र दो साल बाद एक कार दुर्घटना में उनके पति राजीव गुप्ता की मृत्यु हो गई थी और वह स्वयं तथा बेटा बुरी तरह जख्मी हुई। तब उनका दिव्यांग बेटा दानिश मात्र एक साल का था। उसे जन्म से ही 'निसटैगमसÓ नामक आंखों का रोग है, जिसमें आंखों की पुतलियां लगातार हिलती रहती हैं और व्यक्ति या तो बिलकुल नहीं देख पाता या दृष्टि काफी कमजोर हो जाती है। साथ ही वह 'जोबर्ट सिंड्रोम' नामक रोग से भी पीड़ित है, जिसमें आमतौर पर बच्चा बिल्कुल चल-फिर नहीं पाता और उसकी अल्पायु में ही मृत्यु हो जाती है।
दुघर्टना के 22 दिन बाद मंजू को जब होश आया, तो उसे पता चला कि उसके शरीर में 14 फ्रैक्चर थे। करीब ढ़ाई माह तक ससुराल वालों ने देखभाल की और फिर किसी बहाने से उसे मायके के लिए रवाना कर दिया। उसके बाद मां-बेटे के लिए उस घर के दरवाजे नहीं खुले। मंजू ने पठानकोट में अपनी मां सुनीता गुप्ता और पिता केवल स्वरूप गुप्ता के पास दो साल रही। फिर मुझे सरकारी नौकरी मिल गई लेकिन किस्मत पुन: उसी शहर में ले गई जिससे कड़वी यादें जुड़ी थीं। अमृतसर स्थित वेरका में सरकारी कन्या सीनियर सेकेंडरी स्कूल में मैं जॉब कर के अपने बेटे को पालने लगी। ससुराल पक्ष पर केस भी किया पर फायदा नहीं हुआ। फिर बेटे पर ही ध्यान केंद्रित कर दिया और उसे अच्छी शिक्षा दिलाई। उसने कंप्यूटर साइंस में वोकेशनल ट्रेनिंग के बाद आईटीआई से कंप्यूटर ओप्रेटर डिप्लोमा तथा ईटीटी की। अभी म्यूजिक (तबला) में डिग्र्री कर रहा है। साथ ही मेडिकल से संबंधित जेनरल ड्यूटी असिस्टेंट का डिप्लोमा कर रहा है।
मां-बेटे ने 'दृष्टि : एक अहसास' नामक एनजीओ शुरू की है। इसी के तहत वे झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहने वाले करीब 50 बच्चों को पढ़ा रहे हैं। मंजू बताती हैं, 'मैंने दानिश को मां और बाप दोनों बन कर पाला है। सातवीं क्लास तक तो उसे यह भी नहीं पता था कि उसके पिता इस दुनिया में नहीं हैं। उसे यही बताया था कि वे विदेश में हैं, क्योंकि उसकी बीमारी के बारे में जब डाक्टरों ने मुझे बताया था कि यह मात्र आठ साल जीएगा। मैं खुद ही उसे डाक द्वारा गिफ्ट भेजती और कहती कि पापा ने भेजा है। मेरी मकान मालकिन भी इसमें मेरा साथ देतीं और उसे कहा करती कि देर रात को तुम्हारे पापा का फोन आता है, तुम उस समय सो जाते हो। तब मुझे लगा था कि छोटी सी जिंदगी है तो इसे एक और गम क्यों दूं, लेकिन ईश्वर की कृपा से वह आठ साल पर पहली बार चला। तब डाक्टरों ने कहा कि शायद अब यह 14 साल तक जी ले। लेकिन मैंने कभी न तो हिम्मत हारी न कभी नेगेटिव सोचा। हालांकि 2013 में ऐसा भी समय आया जब मुझे पेट में पहली स्टेज का कैंसर डिटेक्ट हुआ और मेरा लंबा इलाज चला, लेकिन हमेशा यही सोच रही कि मुझे अपने बेटे के लिए तो हर बीमारी, हर कठिनाई से लडऩा है। इसी सकारात्मक ऊर्जा ने न केवल उसे आज 25 साल का कर दिया है बल्कि उसे जिम जाने की आदत है। वह स्पेशल बच्चों को पढ़ाता है और काउंसिलिंग भी करता है।
सीपी बेटे को बनाया 'केपेबल पर्सन'
45 वर्षीय डा. रितेश सिन्हा जन्म से ही सीपी (सेरेब्रल पाल्सी) से ग्रस्त हैं लेकिन उन्होंने सीपी को हमेशा 'केपेबल पर्सन' के रूप में परिभाषित किया है। सीपी लोगों के लिए विशेष मुद्राओं की खोज कर अपना नाम लिम्का बुक में दर्ज करवा चुके रितेश ने इस पर एक पुस्तक भी लिखी है। इनके द्वारा इनोवेट की गई एक विशेष साइकिल 'ट्राइक', जो सीपी लोगों के लिए विशेष रूप से बनाई गई है, को पेटेंट करवाया गया है। एक हजार से ज्यादा युवाओं को कंप्यूटर शिक्षा देने वाले रितेश सिन्हा हिम्मत, लगन व हौसले की मिसाल हैं। इन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने का श्रेय जाता है इनकी मां पुष्पलता रविंदर सिन्हा को। करनाल के नैशनल डेरी रिसर्च इंस्टीट्यूट से बतौर सीनियर साइंटिस्ट रिटायर हुई पुष्पलता बताती हैं कि जन्म के 11 माह बाद तक भी रितेश की समस्या के बारे में हमें समझ नहीं आयी थी। अस्पतालों के चक्कर लगाते-लगाते दिल्ली के एम्स पहुंचे तो पता चला कि इसे सेरेब्रल पाल्सी है। यह पढऩे में अच्छा था लेकिन तब कोई स्कूल इसे दाखिला देने को तैयार नहीं होता था।
1981 जब 'इयर फार द फिजिकली चैलेंज्ड' घोषित हुआ तो सेंट ट्रीज़ाज़ कानवेंट की प्रिंसिपल सिस्टर ग्रेस मारिया ने उसे कक्षा तीन में दाखिला देकर उसकी जिंदगी को दिशा दे दी। रितेश की बहन इसी स्कूल में कक्षा दो में पढ़ती थी। इन दोनों बच्चों में अंतर भी केवल 11 माह का था इसलिए दोनों को साथ-साथ पालना काफी चुनौतीपूर्ण था। बेटे के पीछे सारा दिन लगी रहती थी। बेटी तो बस पल गई। दसवीं के पेपर देने के लिए राइटर भी इसकी बहन ही बनी क्योंकि बोली स्पष्ट न होने के कारण वही थी, जो इसकी बात समझ सकती थी। बाद में रितेश ने पीजीजीसीए, मास्टर्स इन आईटी के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा में काफी पढ़ाई की और मुद्राओं पर इसकी रिसर्च के लिए मानद डाक्ट्रेट की उपाधि भी इसे मिली। इसके पिता का 2012 में देहांत हो गया। वे भी साइंटिस्ट थे और एनडीआरआई से बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल रिटायर हुए थे। वे भी हमेशा इसकी लाइफ बेहतर बनाने के लिए प्रयास करते रहते थे। आज भले ही रितेश कोर्ट में जॉब करता है और सारा डिजिटलाइजेशन का काम संभाल रहा है, लेकिन हमारे देश में सोशल सिक्योरिटी न होने के कारण मुझे चिंता होती है कि मेरे बाद यह कैसे मैनेज करेगा?
बनीं अन्य मांओं की मार्गदर्शक
'जन्म के समय आयी दिक्कतों के कारण मेरी बेटी सोनाली शुरू से अन्य बच्चों से अलग थी। शुरू में उसे सामान्य स्कूल में दाखिल करवाया लेकिन उसकी हाइपर एक्टिविटीज़ के कारण स्कूल से नियमित शिकायतें आती थीं। तब मुझे उसके लिए स्पेशल स्कूल की तलाश शुरू करनी पड़ी। उस समय ज्यादा स्पेशल स्कूल थे भी नहीं। मैं स्वयं मनोविज्ञान पढ़ी हुई थी इसलिए समझ पायी कि मेरी बेटी की जरूरतें अलग हैं। वह स्पेशल है।यह कहना है सूरत की मोना धमेंद्र ठक्कर का। वह बताती हैं, 'समाज में उसे सामान्य माहौल दिलवाना सबसे बड़ी चुनौती लगी मुझे। एक मां तो अपने बच्चे की जरूरतों को समझती है लेकिन लोगों को उनके बारे में समझाना मुश्किल है। लोग उसे अपने बच्चों के साथ खेलने नहीं देते थे, किसी जन्मदिन पर उसे शामिल नहीं करते थे। पागल कह कर चिढ़ाते थे। लेकिन मैं भी अपनी बेटी के हक के लिए उनसे लड़ती रही। शारीरिक रूप से वह स्वस्थ थी, इसलिए उसे खेलने के लिए प्रेरित किया। रोलर स्केटिंग सिखाई। उसी दौरान जूनागढ़ में हुई स्पेशल ओलंपिक्स में जब उसका मेडल आया तो मुझे मानो जीवन का मकसद मिल गया। मैंने उसे और अधिक मेहनत करवानी शुरू की और अब वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी है।
2015 में लॉस एंजलस में हुए स्पेशल ओलंपिक्स में वह एक सिल्वर और एक ब्रांस मेडल ले कर लौटी थी। राष्ट्रीय व राज्य स्तर की विभिन्न स्पर्धाओं में करीब 125 मेडल जीत चुकी सोनाली धमेंद्र ठक्कर को गत 3 दिसंबर को उप-राष्ट्रपति नायडू जी के हाथों नैशनल अवार्ड भी मिला है। इससे पहले वह 2014 में गुजरात के खेल महाकुंभ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों भी सम्मान प्राप्त कर चुकी है। विभिन्न संस्थाएं भी उसे सम्मानित करती हैं तो महसूस होता है कि मेरी बेटी वास्तव में 'स्पेशल' है। यह शब्द उस स्पेशल मां के हैं जो अपनी बेटी को होनहार बनाने के साथ-साथ 'मवजात' नामक संस्था के अंतरगत करीब एक हजार ऐसे परिवारों के साथ जुड़ी हैं जिनके बच्चे मानसिक चुनौतियां झेल रहे हैं। उनकी फ्री कांउसलिंग भी वे करती हैं अपनी बेटी का उदाहरण दे कर।
संघर्ष की जीत
पलविंदर जीत कौर के दोनों बेटे हाल ही में आबू धाबी में हुए स्पेशल ओलंपिक्स में मेडल जीत कर लौटे हैं। उदय वीर सिंह 25 साल का है और वह साइकिलिंग के पांच तथा दस किलोमीटर इवेंट्स में दो ब्रांस मेडल जीता जबकि 18 वर्षीय जसवीर सिंह बास्केट बॉल में सिल्वर मेडल जीता है। अनेक नेशनल इवेंट्स में विभिन्न खेलों में दम दिखाने वाले उदय वीर सिंह साढ़े आठ साल की उम्र में बोलना शुरू किया। इसी प्रकार उसका छोटा भाई भी हाइपर ऐक्टिव होने के कारण स्पेशल बच्चों में आता है। उसके बास्केट बाल कोच का कहना है कि इस बार भारत का सिल्वर मेडल जसवीर की मेहनत की बदौलत ही आया है।
पलविंदर कौर बताती हैं कि दोनों की परवरिश उनके लिए काफी परेशानियों से भरी रही है क्योंकि पति हरविंदर सिंह नेवी में होने के कारण अधिकांश समय घर से दूर रहते थे। इसलिए अकेले ही सब मैनेज करती रही हूं। इनकी प्रैक्टिस के लिए घर से 8-10 किलोमीटर दूर जाना-आना, दोनों का ध्यान रखना कि कहीं घर से दूर न निकल जाएं। कुछ शरारत में खुद को नुक्सान न पहुंचा लें। जैसी देखभाल छोटे से बच्चे की करनी होती है। इनकी बहन उदय से तीन साल बड़ी है। उसने मेरा बहुत साथ दिया है। अब ये दोनों अमृतसर के पहल सेंटर में खेलना सीखते हैं। इनकी अंतराष्ट्रीय उपलब्धि ने गर्व से हमारा सिर तो ऊंचा किया है लेकिन साथ ही मलाल है कि सरकार से प्रोत्साहन के रूप में कोई इनाम तो क्या आने जाने का खर्च तक नहीं मिला है। इन बच्चों के लिए सोशल सिक्योरिटी न होना इनके भविष्य के बारे में हमें व्याकुल करता है।
जारी है जंग जीतने की जिद्द
आरूष सूद 17 साल का है और जालंधर के उड़ान स्पेशल स्कूल से पांचवी के पेपर देने की तैयारी कर रहा है। मां सुमन सूद एक कालेज में क्रेच में काम करती हैं। वह बताती हैं कि 'सेरेब्रल पाल्सी के कारण आरूष एक साल की आयु तक ठीक से बैठ भी नहीं पाता था। काफी इलाज व फिजियोथेरेपी के बाद ढाई साल की उम्र में उसने थोड़ा चलना शुरू किया। तब तक मेरा पूरा वक्त उसी की देख-रेख में गुजरता था लेकिन जब वो आठ साल का था तब उसके पिता दिल का दौरा पडऩे के कारण दुनिया छोड़ गए। तब जीवन संघर्ष की आग और भड़क गई। बेटे की शारीरिक चुनौतियों के साथ आर्थिक चुनौतियों ने भी आ घेरा। फिजियोथेरेपी आदि बंद हो गई। जैसे-तैसे मैंने जॉब ढूंढी और गुजर-बसर कर रहे हैं। अब मेरे काम से लौटने तक आरूष के स्कूल से आ जाने के बाद घर पर उसकी दादी उसे देखती हैं। पढऩे में भले ही आरूष ज्यादा रुचि नहीं लेता है लेकिन उसे इलेक्ट्रोनिक्स और गैजेट्स से काफी लगाव है। इसलिए उसे उसके पैरों पर खड़ा करने के लिए उसकी रूचि अनुसार कोई वोकेशनल कोर्स करवाने की कोशिश करूंगी।
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