ग्लेशियरों के अस्थायी परिवर्तनों को समझने के लिए आइआइटी रोपड़ में शोध जारी, चांगसांक ग्लेशियर की लंबाई प्रतिवर्ष अधिकतम 73 मीटर पिघली
आइआइटी रोपड़ की जियोमेटिक्स इंजीनियरिंग लेबोरेटरी में शोधकर्ताओं ने क्रायोस्फियर अध्ययन के क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया है। क्रायोस्फियर पृथ्वी पर एक ऐसी जगह है जिसमें गृह के जमे हुए हिस्से शामिल हैं। इसमें जमीन पर बर्फ बर्फ की परत ग्लेशियर पर्माफास्ट और समुद्री बर्फ शामिल हैं।
जागरण संवाददाता, रूपनगर : पानी की कमी और संबंधित समस्याओं को कम करने के लिए आइआइटी रोपड़ की जियोमेटिक्स इंजीनियरिंग लेबोरेटरी, (जीइएल) में शोधकर्ताओं ने क्रायोस्फियर अध्ययन के क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया है। क्रायोस्फियर पृथ्वी पर एक ऐसी जगह है, जिसमें गृह के जमे हुए हिस्से शामिल हैं। इसमें जमीन पर बर्फ, बर्फ की परत, ग्लेशियर, पर्माफास्ट और समुद्री बर्फ शामिल हैं। यह क्षेत्र अंतरिक्ष में आने वाले सौर विकिरण को प्रतिबिंबित करके पृथ्वी की जलवायु को बनाए रखने में मदद करता है। शोधकर्ता मुख्य रूप से उपग्रह इमेजरी का उपयोग करके हिमालय में ग्लेशियरों के अस्थायी परिवर्तनों और वर्तमान स्थिति को समझने का प्रयास कर रहे हैं।
हालांकि वर्तमान समय में क्रायोस्फियरर अध्ययन के जरिये ये भी पता किया जा सकता है कि बढ़ रहे प्रदूषण को कैसे कम किया जा सकता है और इसके लिए ग्लेशियरों को पिघलने से रोकने के लिए जरूरी प्रयास किए जा सकते हैं। अगर ग्लेशियर पिघलने की प्रक्रिया को धीमा किया जा सका तो तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोका जा सकेगा। जीइएल के फैकल्टी इंचार्ज डा. रीत कमल तिवारी का कहना है कि उत्सर्जन को कम करने के अलावा हमारे पास जलवायु परिवर्तन को कम करने को कोई तुरंत हल नहीं है। भविष्य में पानी की कमी से पैदा होने वाली समस्याओं को रोकने के लिए उचित नीति बनाने के लिए ग्लेशियोलाजिकल अध्ययन आवश्यक हैं।
डा. तिवारी ने बताया कि रिमोट सेंसिंग, जीआइएस, भूविज्ञान और पर्यावरण विज्ञान पर केंद्रित एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक पत्रिका जियोकार्टो इंटरनेशनल में डा. सुप्रतिम गुहा और उनका (डा. तिवारी द्वारा) हाल ही में वैज्ञानिक शोध लेख प्रकाशित हुआ है। इसमें उल्लेख किया है कि उन्होंने उपगृह रिमोट सेंसिंग तकनीकों का उपयोग करके 30 से अधिक वर्षों तक सिक्किम के ग्लेशियरों की निगरानी की है। शोध में पाया गया कि सिक्किम के सभी ग्लेशियर अध्ययन अवधि के दौरान तेजी से पिघल रहे हैं।
चांगसांक ग्लेशियर की लंबाई प्रतिवर्ष अधिकतम 73 मीटर पिघली। डा. गुहा ने चेतावनी दी है कि 2014 के बाद पूरे सिक्किम ग्लेशियरों में पिघलने की दर बढ़ गई है जो सभी के लिए एक गंभीर खतरा है। हिमालय के दूसरे हिस्से में ग्लेशियरों की स्थिति को समझने के लिए पूरी हिमालय श्रृंखला के लिए इस तरह के अध्ययन आवश्यक हैं। आइआइटी में टीचर एसोसिएटशिप फार रिसर्च एक्सीलेंस (टीएआरइ) फेलो डा. सरताजवीर ¨सह ने कहा कि स्कैटरोमीटर बर्फ के आवरण की सीमा, हिम बर्फ पिघलने और भारतीय हिमालय पर फ्लैश फ्लड और हिमस्खलन की भविष्यवाणियों की निगरानी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।