ये बाल ग्राम देता है बेसहारा बच्चों को सहारा, मां व दादी-नानी बन ममता लुटाती हैं स्टाफ मेंबर
राजपुरा का बाल ग्राम बेसहारा बच्चों के लिए एक उम्मीद की किरण बनकर उभरा है। यहां पले-बढ़े बच्चे आज अपने पैरों पर खड़े हैं।
जालंधर, वंदना वालिया बाली। 'तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो, तुमको अपने आप ही सहारा मिल जाएगा... गीत के ये बोल 'एसओएस विलेज' में कार्यरत महिलाओं व बच्चों के लिए सटीक बैठते हैं। यहां रहने वाले बेसहारा बच्चों की मां के रूप में काम कर रही महिलाएं भी जरूरतमंद व बेसहारा हैं। यह संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था सेव योर सोल्स की ओर संचालित है।
शरीर नहीं मन से हैं 'मां'
आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा की विजया कुमारी जीवन के कड़वे अनुभवों के बाद अपने जीवन का अंत करने का मन बना चुकी थी लेकिन उसे डिप्रेशन से उभरने व दूसरों का सहारा बन कर उसके जीवन को सहारा मिला एसओएस बाल ग्राम में। हैदराबाद के एसओएस बाल ग्राम में काम शुरू करने वाली विजया को राजपुरा सेंटर खुलने पर यहां ट्रांसफर कर दिया गया। भले ही उन्होंने किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया लेकिन अब तक अनेक बच्चों की मां व दादी-नानी बन कर ममता लुटा रही हैं और उनसे प्यार पा रही हैं। ऐसी ही अन्य कहानियां भी हैं एसओएस विलेज की मांओं की।
राजपुरा में है पंजाब का एक मात्र एसओएस विलेज
पंजाब में एसओएस बाल ग्राम राजपुरा में स्थित है। इसकी स्थापना 1996 में हुई। आतंकवाद के बाद के उस दौर में अनेक बेसहारा बच्चों को एक नया घर इस बाल ग्राम के रूप में मिला। विलेज डायरेक्टर अनूप सिंह कहते हैं कि 'आज राजपुरा एसओएस विलेज 188 बच्चों का लालन-पालन कर रहा है, जिनमें से 135 यहां रह रहे हैं और अन्य पढ़ाई के लिए अन्य शहरों में होस्टल या पीजी में रह रहे हैं लेकिन उनका खर्च संस्था उठाती है। यहां छोटे बच्चे एक साथ मां के साथ रहते हैं लेकिन किशोर लड़कों के रहने की व्यवस्था 'युवा होस्टल' में कर दी जाती है।
बच्चों का बहुमुखी विकास प्रथमिकता
एसओएस के राष्ट्रीय बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की सदस्य सीमा चोपड़ा के अनुसार 'राजपुरा में चल रहे एसओएस बाल ग्राम का फलसफा 'फैमिली बेस्ड केयर' का है। हम चाहते हैं कि बच्चे पारिवारिक माहौल में पलें और हमारी कोशिश उनके व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास की रहती है। इनके लिए विभिन्न कार्यशालाएं समय-समय पर आयोजित की जाती हैं और इन्हें स्किल्ड बनाने के यत्न भी यहां होते हैं। संस्था पारदर्शिता से काम करती है और ज्यादातर फंड लोगों द्वारा दिए गए दान से ही जमा होता है। हमारी कोशिश उन्हें पढ़ा-लिखा कर संस्कारों सहित बेहतर इंसान बनाने की रहती है। आज तक एसओएस बाल ग्राम के किसी बच्चे ने बीच में स्कूल नहीं छोड़ा है।'
दिखा रहा उज्ज्वल भविष्य की राह
दिल्ली के जेडब्ल्यू मैरियट होटल में सुपरवाइजर 25 वर्षीय लक्की बावा 1997 में मात्र 6 साल की थी, जब उसे राजपुरा के एसओएस बाल ग्राम में एक नया घर मिला था। वहीं उसके रहने के अलावा पढ़ाई का इंतजाम हुआ। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर उसने उज्ज्वल भविष्य की राह पकड़ी। आज वह कहती है कि 'मेरी एसओएस फैमिली से मुझे बहुत लगाव है और मौका मिलते ही मैं उनसे मिलने पहुंच जाती हूं। जब भी कोई सुझाव चाहिए होता हो तो अपनी 'मां' से बात कर लेती हूं।
इसी प्रकार मुंबई में बतौर आर्किटेक्ट एक अच्छी फर्म में कार्यरत हैं स्वाति। उनकी एक सम्पन्न परिवार में शादी हुई है। एसओएस विलेज में 6 साल की उम्र से पली स्वाति ने चंडीगढ़ के सरकारी कालेज से आर्किटेक्चर की पढ़ाई की और 2013 में टॉप भी किया था।
ट्रैक्टर इंडिया प्राइवेट लिमिटिड में बतौर असिस्टेंट सेल्स मैनेजर काम कर रहे जतिंदर कुमार को 12 साल की उम्र में राजपुरा के बाल ग्राम ने अपनाया। दसवीं की पढ़ाई के बाद उसने बठिंडा के पॉलिटेक्निक से आर्किटेक्चर में डिप्लोमा और फिर 2008 में इलेक्ट्रिकल्स में बीटेक की पढ़ाई की। वह कहते हैं कि एसओएस बाल ग्राम में मुझे परिवार जैसा माहौल तो मिला। साथ ही मुझे पढ़-लिख कर व्यावसायिक प्रतिस्पर्धाओं के लिए भी तैयार किया गया। मैं अपनी सफलता का पूरा श्रेय इसी परिवार के प्यार को देता हूं।
क्या हैैं एसओएस विलेज
1964 में डॉ. माइनर द्वारा आस्ट्रिया में शुरू की गई अंतरर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था सेव आवर सोल्स (एसओएस) ने 133 देशों में 500 से अधिक एसओएस बाल ग्राम स्थापित किए गए हैं। इनमें प्रत्येक में 12-15 घर होते हैं। इनमें हर घर में एक 'मां' के साथ औसतन 10 बच्चे रहते हैं और एक सहायक आंटी भी। भारत में 22 प्रदेशों में एसओएस के 32 बाल ग्राम हैं और इनमें करीब 26000 बच्चे व 600 से अधिक महिलाएं हैं।