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ये है जालंधरः वाल्मीकि गेट इलाके में अश्वमेघ यक्ष का घोड़ा रोका था लव-कुश ने Jalandhar News

वाल्मीकी गेट को जालंधर के 12 प्रवेश द्वारों में से एक माना जाता है। इसका प्राचीन मेहराब वर्षा के कारण गिर गया था। बाद में दानी सज्जनों ने इसे दोबारा बनवाया है।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Tue, 03 Sep 2019 03:16 PM (IST)Updated: Tue, 03 Sep 2019 05:18 PM (IST)
ये है जालंधरः वाल्मीकि गेट इलाके में अश्वमेघ यक्ष का घोड़ा रोका था लव-कुश ने Jalandhar News
ये है जालंधरः वाल्मीकि गेट इलाके में अश्वमेघ यक्ष का घोड़ा रोका था लव-कुश ने Jalandhar News

जालंधर, जेएनएन। जालंधर के इतिहास में आध्यात्मिकता के बार-बार दर्शन होते हैं। कहीं भी ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं था। शहर में 18वीं शताब्दी के आरंभिक काल में वाल्मीकि गेट बनाया गया था। इसे शहर के 12 प्रवेश द्वारों में से एक माना जाता है। इसकी ऊंचाई 18 फीट और चौड़ाई 15 फीट थी। गेट के सामने बहुत बड़ा मैदान था। यहां बेरियों के झुंड भी दिखाई देते थे। नगर के भीतर से गाय-भैंसों को भी इसी रास्ते से बाहर बनी चरागाहों में भेजा जाता था। चरवाहे सायं ढलने के साथ ही पशुओं को लेकर नगर में आ जाते थे। सूर्यास्त के साथ ही द्वार पर लगे किवाड़ बंद कर दिए जाते थे। 

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आज जालंधर का वह चित्र कहीं दिखाई नहीं देता। वाल्मीकि गेट का प्राचीन मेहराब वर्षा के कारण एक बार गिर गया था और यहां के निष्ठावान लोगों ने वाल्मीकि गेट की मेहराब पुन: बनाई थी। यहां से एक रास्ता मलिका चौक को जाता है। कुछ लोग इसे मलिका विक्टोरिया को समर्पित मानते हैं, जबकि कुछ लोग इस चौक को एक नगर सेठ मलिक के नाम से जोड़ते हैं। इसी तरह दूसरा रास्ता चरणजीतपुरा की ओर निकलता है। यह गेट रामायण के रचयिता भगवान वाल्मीकि जी के प्रति श्रद्धा प्रकट करता है।

एक कथा के अनुसार भगवान राम द्वारा भेजा गया अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा भगवती सीता के सुपुत्र लव-कुश ने यहीं कहीं रोका था। इस पर भगवान राम और लव-कुश के मध्य युद्ध हुआ था इस लिए वाल्मीकी गेट के सामने वाले स्थान की यदि समय रहते खुदाई होती तो रामायण काल के कई अवशेष अवश्य मिल जाते परंतु विकास की अंधी दौड़ ने सब चौपट कर दिया।

नगर के भीतर प्रवेश से रोकने के लिए बनाया गया था शीतला गेट

भगवती शीतला के प्रति उस दौर के जालंधर निवासियों की बहुत गहरी आस्था थी, जो आज भी है। चैत्र मास के मेले में दूर-दूर से भक्तजन बैलगाडिय़ों और तांगों पर सवार होकर जालंधर आया करते थे। वह नगर के भीतर न प्रवेश करें, इसलिए इस पावन तीर्थ के निकट ही शीतला गेट बनाया गया था। गुप्तचरों द्वारा आने- जाने वालों पर पूरी दृष्टि रखी जाती थी। शीतला गेट की ऊंचाई 20 फुट और चौड़ाई 18 फुट होती थी। इसे भी चूने और सुरखी के मेल से बनाया गया था। इस गेट को मंदिर के द्वार जैसा रूप दिया गया था। इसके ऊपर रात को दीपक जलाकर रखने की परंपरा थी।

गेट पर लगी थीं सोने चांदी की कीलें

इसके दो प्रकार के लाभ माने जाते थे। एक सूर्यास्त के पश्चात् शीतला माता की पूजा के लिए आने वाले भक्त को रास्ता दिखाई दे। दूसरा सुरक्षाकर्मी उसकी पहचान कर लें। शीतला गेट में चंदन की लकड़ी के द्वार लगे थे जिन पर सोने-चांदी के कील लगाए गए थे। शीतला गेट सन 1930 से पूर्व ही गिरा दिया गया था। हो सकता है कि उसे गिराने के पीछे सोने-चांदी के वह कील ही रहे हों। यहां से नगर से भीतर जाने के लिए अब कोई विशेष रास्ता नहीं है। एक छोटा-सा मकान रह गया है, जहां आज भी प्रत्येक मंगलवार चैत्र मास में मेला लगता है, जिसमेें मुख्यत: महिलाएं ही पूजा के लिए आती हैं। आदि जगतगुरु शंकराचार्य जब जालंधर पधारे थे तो वह भी इस स्थान पर शीश नवाने आए थे। चीनी यात्री ह्यूनसांग ने भी नगर की धार्मिक भावनाओं का वर्णन किया था।

(प्रस्तुतिः दीपक जालंधरी - लेखक जालंधर के पुराने जानकार और स्तंभकार हैं)

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