Move to Jagran APP

स्पेशल हो दिव्यांग बच्चों की परवरिश, आप भी जानें पेरेंटिंग में आने वाली चुनैतियां से निपटना

मानसिक दिव्यांग्ता से जूझ रहे बच्चे जब किशोरावस्था में पहुंचते हैं या व्यस्क बनते हैैं तो उनके स्वभाव में भी बहुत बदलाव आते हैं। ऐसे में इनकी देखभाल और चुनौतीपूर्ण हो जाती है।

By Pankaj DwivediEdited By: Published: Tue, 03 Dec 2019 03:30 PM (IST)Updated: Tue, 03 Dec 2019 03:30 PM (IST)
स्पेशल हो दिव्यांग बच्चों की परवरिश, आप भी जानें पेरेंटिंग में आने वाली चुनैतियां से निपटना
स्पेशल हो दिव्यांग बच्चों की परवरिश, आप भी जानें पेरेंटिंग में आने वाली चुनैतियां से निपटना

जालंधर, [वंदना वालिया बाली]। बचपन की दहलीज से निकल जब बच्चे किशोरावस्था में कदम रखते हैं तो उनके शारीरिक बदलावों के साथ-साथ उनके व्यवहार में भी बहुत अंतर आता है। पेरेंटिंग को चुनौतीपूर्ण बनाने वाली यह अवस्था सामान्य रूप से हर घर में अभिभावक महसूस करते हैं। लेकिन जरा सोचिए, यदि बच्चे का शरीर किशोरावस्था में है या व्यस्क हो गया है और दिमाग छोटे बच्चे जैसा है तो उसकी परवरिश कितनी चुनौतीपूर्ण होगी।

loksabha election banner

मानसिक दिव्यांग्ता से जूझ रहे बच्चे जब किशोरावस्था में पहुंचते हैं या व्यस्क बनते हैैं, तो उनके स्वभाव में भी बहुत बदलाव आते हैं। इन विशेष बच्चों की जरूरतें भी बदल जाती हैं। हमउम्र दोस्तों या साथियों की कमी, घर से बाहर जाने की आजादी या क्षमता न होना, आदि कारण उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना देते हैं। पहले ही दिमागी अस्वस्थता से जूझ रहे इन टीनएजर्स के लिए यह स्थिति काफी दुखदायी होती है और उनके अभिभावकों के लिए भी परेशानी का सबब बन जाती है। पेरेंटिंग की इन चुनौतियों का सामना कैसे किया जा सकता है? किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए इस उम्र की बदलती जरूरतों के अनुसार अभिभावकों को? इन स्पेशल बच्चों को पेरेंट्स आत्मनिर्भर कैसे बना सकते हैं? ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानने की कोशिश की है हमने कुछ पेरेंट्स और विशेषज्ञों से बात कर के। आइए जानें क्या कहते हैं वे...

रहना पड़ता है सतर्क

रागिनी ठाकुर, 25 साल के स्पेशल बेटे आयूष की मां हैं। वह स्कूल टीचर हैं और छोटा बेटा पढ़ाई के सिलसिले में शहर से बाहर रहता है। पति फौज में थे, अब इस दुनिया में नहीं हैं। ऐसे में स्पेशल बेटे की पूरी देखरेख का जिम्मा अकेले उन पर है। बेटे की परवरिश उन्होंने कुछ ऐसे की है कि उनकी अनुपस्थिति में वह आत्मनिर्भर रहता है। इसके बावजूद भी बेटे की सुरक्षा व समाज के रवैये के कारण अनेक चुनौतियों का सामना आए दिन करती हैं वह। कहती हैं, 'शरीर से बेटा भले ही बड़ा हो गया है लेकिन दिमाग से बच्चा है। इसी कारण अकेले बाहर भेजना या किसी के साथ उसे छोडऩे में दो बार सोचना पड़ता है। शारीरिक शोषण का डर केवल लड़कियों के लिए हो, ऐसा नहीं है। मुझे बेटे के लिए भी यह डर सताता है, इस कारण उसे 'गुड टच, बैड टच' की ट्रेंनिंग दी है मैंने।

अपने बेटे आयूष के साथ रागिनी ठाकुर।

साथ ही इस बात का भी विशेष ध्यान रखती हूं कि इसके घर पर अकेले होने पर कोई काम वाली बाई न आए। यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि इस पर ही कोई झूठा इल्जाम न लगा दे। अत: सतर्क रहना पड़ता है हर वक्त।'

सरकारी सुविधाएं अब भी दिव्यांगों से हैं दूर

पंजाब में दिव्यांग जन स्टेट एडवाइजरी बोर्ड के विशेषज्ञ अमरजीत सिंह आनंद स्वयं एक स्पेशल बेटी के पिता हैं और जालंधर में दिव्यांग जन के उत्थान के लिए 'चाणन' (रोशनी) नाम की संस्था के संस्थापक भी हैैं। उनका कहना है कि भारत सरकार द्वारा दिव्यांग बच्चों के लिए 1999 में नेशनल ट्रस्ट बनाया गया था। एक हजार करोड़ रुपये की कारपोरेट फंडिंग से इसे चलाने की योजना बनाई गई थी। 1999 में इस धनराशि के ब्याज से सराहनीय काम शुरू हुआ और आशा की किरण दिखाई दी थी। समय के साथ महंगाई बढ़ती गई और इस फंडिंग की धनराशि कम पड़ गई। आज 20 साल बाद नेशनल ट्रस्ट एक अनाथ बच्चे की तरह सांसें ले रहा है क्योंकि गत पांच साल से इसका कोई चेयरमैन ही नहीं है। जिस भी सरकारी अफसर को इसमें बतौर सीईओ लगाया जाता है, देखने, सुनने में आया है कि उन्होंने पैसे का दुरुपयोग किया है। 18 साल से बड़े बच्चों के लिए कोई भी नेशनल स्कीम हमारी संस्थाओं को नहीं दी गई है।

पंजाब में दिव्यांग जन स्टेट एडवाइजरी बोर्ड के विशेषज्ञ अमरजीत सिंह आनंद।

नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद दिव्यांग जन के लिए 2016 में आए राइट्स आफ पर्सन्स विद डिसअबेलिटीज एक्ट के तहत अब सरकारी नौकरियों में एक प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान इनके लिए किया गया है। विडंबना यह है कि भारत के एक भी राज्य में दिव्यांगों के लिए रोजगार कार्यालय आज तक नहीं बना है। इसी कारण दिव्यांग जनों को सरकारी व गैर सरकारी नौकरियां नहीं मिल रहीं।

अन्य तरह की दिव्यांगों को नौकरियों में तीन प्रतिशत आरक्षण दिया गया है लेकिन वे भी इस सुविधा से वंचित हैं क्योंकि इसे लागू करने के लिए कोई सिस्टम नहीं बनाया गया है। भारत सरकार द्वारा राज्यों को स्किल डेवलपमेंट पर योजनाओं के लिए विशेष फंड मुहैया करवाए गए लेकिन जमीनी स्तर पर जागरूकता की कमी के कारण जिन्हें इनकी जरूरत है, उन्हें इनके बारे में पता ही नहीं चलता। वे इनका फायदा नहीं उठा पाते। इसके लिए जिला स्तर पर बीपीओ व आंगनवाड़ी वकर्स के माध्यम से जनता को जागरूक करवाया जाना चाहिए।

डायट का भी रहता है अहम रोल

नव प्रेरणा फाउंडेशन संस्थापक शाश्वती सिंह ने देहरादून में भारत का पहला आटिस्टिक ग्रुप होम स्थापित किया है। स्वयं एक आटिस्टिक बेटे की इस मां ने सिद्ध किया है कि ममता में दुनिया की हर कठिनाई से लडऩे की शक्ति है। आज भले ही उनका बेटा 31 वर्ष का हो चुका है लेकिन इस मां का संघर्ष उसके जन्म के साथ ही शुरू हुआ। उम्र के पहले चार साल तक तो बेटा हाइपरएक्टिव था, लेकिन फिर मिर्गी के एक दौरे के बाद वह ऑटिज्म से ग्रस्त हो गया। दिल्ली के 42 स्कूलों ने जब उनके बेटे को दाखिला देने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने स्वयं उसके लिए स्कूल खोलने की ठानी और साथ ही अनेक ऐसे बच्चों का भी कल्याण हो गया।

वह बताती हैं कि एक समय था जब वह भी एक हताश मां की तरह रोती रहती थीं। फिर सिकंदराबाद में उनकी मुलाकात डॉ. रीटा पेशावरिया (डॉ. किरण बेदी की बहन) से हुई। उनसे ऑटिस्टिक बच्चों की देखभाल का प्रशिक्षण स्वयं लिया। उन्होंने ही शाश्वती को स्पेशल बच्चों के लिए स्कूल शुरू करने के लिए प्रेरित किया और नतीजतन दिल्ली में 'इंस्पीरेशन' नाम से वह स्कूल शुरू हुआ। बाद में उन्हें उसी तर्ज पर देहरादून में भी स्कूल स्थापित करने का निमंत्रण मिला और वह विशेष ग्रुप होम बना पाईं। यहां अब चार बच्चे उनके पास सदा के लिए रह रहे हैं, जबकि अन्य बच्चों को वे कुछ महीने या एक -दो साल की आत्मनिर्भरता की ट्रेनिंग के बाद वापिस परिवार में भेज चुकी हैं। 

साथ ही अभिभावकों को भी वह मुफ्त प्रशिक्षण देती हैं, ताकि वे अपने स्पेशल बच्चों की ठीक से परवरिश कर सकें। उनकी बेटी प्रेरणा ने भी भाई की देखभाल के लिए विशेष प्रशिक्षण लिया है। विदेश में भी सन राइज प्रोग्राम के तहत प्रशिक्षण लेने वाली शाश्वती सिंह का कहना है कि इन बच्चों के व्यवहार के साथ-साथ इनकी डायट का भी विशेष ध्यान रखने की जरूरत होती है। इन्हें दूध व गेहूं से परहेज करवाना चाहिए। ये चीजें पेट में अल्सर पैदा करती हैं, जिनका असर इनकी मानसिक स्थिति पर भी होता है। उनका कहना है कि गत कई सालों से इसी विषय पर काम करते हुए इस परहेज के बहुत अच्छे परिणाम उन्होंने पाए हैं। इससे उनके आक्रामक स्वभाव में भी सुधार होता है और वजन भी नियंत्रित रहता है। वह अपने होम में ही वोकेशनल ट्रेनिंग के अंतरगत इन बच्चों को ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने भी सिखाती हैं। 'कैफे कैनोप' नाम से इस बेकरी के सामान की आनलाइन बिक्री कर के इन बच्चों की कमाई का साधन भी जुटाया जा रहा है।

शारीरिक सफाई के लिए बनाएं आत्मनिर्भर

गाजियाबाद में स्पेशल बच्चों के विशेषज्ञ डॉ. गौरव चड्ढा बताते हैं कि किशोरावस्था में बच्चे जब कदम रखते हैं, तो उनकी शारीरिक संरचना में आने वाले बदलाव का असर उनके दिमाग पर भी होता है और व्यवहार पर भी। उन्हें इन बदलावों के बारे में अभिभावकों द्वारा समझाया जाना चाहिए। बार-बार बताने और प्रैक्टिस करवाने से वे सब करने में सक्षम बन जाते हैं। कई मामलों में 15-16 साल तक के बच्चों को भी अभिभावकों ने टॉयलेट ट्रेनिंग नहीं दी होती। ऐसे में समस्या और बढ़ जाती है। खासकर बेटियों के मामले में। उन्हें माहवारी के बारे समझाने व उससे संबंधित स्ट्रेस से निपटने में दिक्कत आने लगती है। इसलिए जरूरी है कि टॉयलेट ट्रेनिंग तो 4-5 साल की उम्र से ही दी जाए और 10-12 साल में उन्हें थोड़ा-थोड़ा कर के आने वाले शारीरिक बदलावों की जानकारी दे कर तैयार किया जाना चाहिए। किशोरावस्था तक बच्चों को शारीरिक सफाई के लिए पूरी तर आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश रहनी चाहिए।

गाजियाबाद में स्पेशल बच्चों के विशेषज्ञ डॉ. गौरव चड्ढा। उनका कहना है कि किशोरावस्था तक बच्चों को शारीरिक सफाई के लिए पूरी तर आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश रहनी चाहिए।

सिखाएं समाज में उठना-बैठना

लखनऊ की स्वाति शर्मा आशा ज्योति नामक स्पेशल स्कूल चलाती हैं। उनका कहना है कि किशोरावस्था में स्पेशल बच्चों को बार-बार याद दिलाया जाना चाहिए कि वे बड़े हो गए हैं और अब समाज में उठना-बैठना उन्हें सीखना है। उन्हें गुड टच व बैड टच के बारे में सिखाने के साथ-साथ समझाया जाना चाहिए कि किसी के सामने अपने प्राइवेट पाट्र्स पर हाथ नहीं लगाना है। इसके लिए 'बिजी हैंड टेकनीक' का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यानी उन्हें किसी न किसी काम में लगाए रखें। साथ ही उन्हें समय-समय पर समझाते रहना चाहिए कि शादी नहीं करनी है। क्योंकि बहुत से किशोर या व्यस्क होने वाले विशेष बच्चे शादी की जिद करने लगते हैं। कुछ अभिभावक भी मानने लगते हैं कि शादी के बाद उनकी स्थिति में सुधार आएगा, लेकिन यह केवल भ्रम है और ऐसी गलती करने से किसी अन्य के जीवन से भी खिलवाड़ करेंगे आप।

बच्चों को जल्द से जल्द अपने काम खुद करना सिखाएं

गुजरात के नवसारी की डॉ. नीना पियूष वैद्या विशेष बच्चों का अस्पताल चलाती हैं। वह मानव कल्याण ट्रस्ट से जुड़ी हैं, जिसके अंतरगत चलने वाले विशेष बच्चों के स्कूल में भी अपनी सेवाएं देती हैं। समय-समय पर देश भर के स्पेशल बच्चों के अभिभावकों के लिए वर्कशॉप्स लगाने वाली डॉ. नीना का कहना है कि यदि ये विशेष बच्चे समाज में नहीं विचरेंगे, तो दुनियादारी नहीं समझ पाएंगे। इनके भी दोस्त बनें, इसके लिए इन्हें किसी न किसी वोकेशनल सेंटर या स्कूल में डालना बहुत जरूरी है।

यह समाजिक जरूरत भी है और बच्चे के दिमाग को सही दिशा में व्यस्त रखने का जरिया भी। पेरेंट्स की कोशिश हमेशा यह होनी चाहिए कि वे इन बच्चों को जीवन में जल्द से जल्द अपने सभी काम खुद करना सिखाएं। ऑटिस्टिक बच्चे हों या डाउन्स सिंड्रोम वाले, वे बार-बार सिखाने से सब सीख जाते हैं। अभिभावकों को धैर्य रखने की जरूरत है। उन्हें पढऩा लिखना सिखाने से ज्यादा जरूरी है आत्मनिर्भरता से जीने की कला सिखाने की।

हरियाणा की ताजा खबरें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

पंजाब की ताजा खबरें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.